Ravi ki duniya

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Wednesday, July 2, 2025

व्यंग्य : पूनम चंद जटिल


 

      रेलवे में अपने कार्यकाल के दौरान कई जगह पोस्टिंग के अनेकानेक खट्टे-मीठे अनुभव हुए और वो कहावत है न

 

                ' आदमी आदमी में अंतर

         कोई हीरा कोई कंकर '

 

इसी को इंगलिश में कहते हैं:

 

        देयर आर मैन,  एंड मैन

      सम आर स्टोन, सम आर जैम

 

पूनम चन्द जटिल क्या थे ? ये फैसला में आप पर छोड़ता हूँ।

 

 

              श्री श्री पूनम चंद जटिल जी से मेरी मुलाक़ात अपनी कोटा पोस्टिंग के दौरान अस्सी के दशक में हुई। वे कार्यालय में कल्याण निरीक्षक थे। कल्याण निरीक्षक का काॅडर रेलवे में अद्भुत है वह पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर सभी होता है। जो किसी का काम नहीं वह कल्याण निरीक्षक का। वह ऑफिस में कम फील्ड में अधिक नज़र आने वाली आत्मा है। उनको बीट भी दी जाती है। फलां स्टेशन से फलां स्टेशन तक के रूट पर सारे स्टेशन पर आपको जाना है और वहाँ दूर दराज़ इलाकों में बसर कर रहे रेल कर्मियों के ऑफिस के मुतल्लिक कामों में मदद करना।

 

                        अब ये मदद, सेवा, कल्याण बड़े ही क्लिशे से लफ्ज हैं। आप देख ही रहे हो नेता सब हमारी सेवा को हैं,  हमारे कल्याण को हैं या हम इनकी सेवा-पानी को।

 

                          हाँ तो हमारे नायक श्री जटिल जी को कभी ये बात अखर गई कि वे इतने बेहतरीन निरीक्षक हैं (वो थे भी) और कल के छोकरे टाइप जिनको बतौर उनके उन्होने सिखाया-पढ़ाया है वो आगे बढ़ गए हैं। अतः इसका बदला वो यूं लेते कि किसी अफसर की बात चले वो कहते ओह वो ? वो उनका जूनियर था। उनका चेला था, उनका बच्चा है आदि आदि। किसी ने उलाहना दे दिया यानि ताना मार दिया। जिसका अंजाम ये निकला कि जटिल जी ने कमर कस ली कि वे दिखा देंगे कि वो भी अफसर मैटीरियल हैं। बस पारिवारिक कारणों से यहाँ निरीक्षक में गुजर कर रहे हैं। हालांकि वे बड़े तेज़ तर्रार और सेवा-पानी कराने वाले निरीक्षक थे। अपना कल्याण पहले टाइप। तो जी जटिल जी ने विभागीय परीक्षा दी और पास भी हो गए। सब उनकी तारीफ करते नहीं थकते। होशियार है, लगता नहीं था, बहुत नाॅलिज़ है आदि आदि उनके विषय में कहा जाने लगा। जैसी कि सामान्यतः नीति होती है उनको अफसर तो बना दिया मगर पोस्टिंग दे दी मुंबई मुख्यालय में। अब मुंबई जैसे महानगर में जहां कदम कदम पर एक से बड़ा,  फ़न्ने खां, क्या ऑफिस, क्या शहर में कदम कदम पर मिल जाएँगे। जहां एक से बड़े एक, अफसर बैठते हों वहाँ बेचारे एक अदना से नए बने अफसर को कौन पूछे? फील्ड कोई था नहीं। बस एक विशालकाय पिरामिड था जिसके बॉटम पर जटिल जी अपने को पाते थे। मकान भी एक दम नहीं मिल जाता। बहुत दिनों तक  रेस्ट हाउस का एक बैड ही उनका आशियाना था। वहीं बेड के नीचे उन्होंने अपना काला ट्रंक रख छोड़ा था। अभी शनिवार का अवकाश चालू नहीं हुआ था, हुआ भी तो मुख्यालय का अज़ब काम है। शनिवार को सबको बुला भेजो, मीटिंग करो आदि आदि। अब जटिल जी आने सात बच्चों और पत्नी से मिलने को भी तरस गए।

 

                    एक बार उनसे रेस्ट हाउस में मुलाक़ात हुई तो वे एक रिप्रेजेंटेशन लिख रहे थे। उसका एक वाक्य मुझे अभी तक याद है “ मुंबई में प्रार्थी को कायदे का खाना नहीं मिलता है। इससे प्रार्थी की सेहत दिन- ब-दिन गिरती जा रही है, प्रार्थी के सात बच्चे हैं। प्रार्थी को मुम्बई की मैदे से बनी पूड़ी माफिक नहीं पड़ती। अतः प्रार्थी का ट्रांसफर कोटा नहीं तो कम से कम कोटा के नजदीक किसी मण्डल पर कर दिया जाये ताकि प्रार्थी अपने घर सप्ताहांत पर जा सके अथवा उसके घर से कोई आ सके।

 

 

                  इस रिप्रेंजेटेशन को वो खूब फॉलो करते, इस-उस से कहलवाते। सुनने में आया कि तंग आकर उनका ट्रांसफर प्रशासन ने रतलाम कर दिया। जिसके बाद कोटा मण्डल ही है। अब उनको वीकेंड पर जाने का सुभीता हो गया। इससे नुकसान ये हुआ कि उन की घर की हालत की चिंता करने को हर हफ्ते नया मेटीरियल मिल जाता। वे बहुत परेशान साला नाम जटिल क्या, ज़िंदगी ही जटिल बनती जा रही है। कोटा में कोई उन्हें पूछ भी नहीं रहा। अब वे परदेसी हो गए थे। जंगल में मोर नाचा किसने देखा। जैसा कि होता है माता पिता नहीं चाहते कि आप टिम्बकटू में राजदूत बन कर राज करें। इससे उनको/ उनका क्या ?

 

 

                         रतलाम आने के  एक महीने के अंदर ही उन्होने लैटर बॉम्ब की एक नई श्रंखला चालू कर दी। मजमून वही ! प्रार्थी अपने घर से दूर पड़ा है। परिवार की देखभाल नहीं कर पा रहा। प्रार्थी की बेटियाँ बड़ी हो रही हैं। उनकी शादी के लिए भी लड़का देखना है जो यहाँ रतलाम (मध्य प्रदेश) में रह कर मुमकिन नहीं। हर हफ्ते वो नए नए कारणों से मुख्यालय को लिखते रहते। रतलाम में उनके अफसर ने ये नस पकड़ ली और कह दिया कि आप कोटा अगले शनिवार रविवार तब जाएँगे जब ये काम खत्म हो जाएगा। वो काम में जुट जाते। जटिल से ज़िंदगी क्या क्या जटिल काम करा रही थी।  वो उस घड़ी को कोसते क्यूं उनके दिमाग में ये अफसर बनने का कीड़ा आया। निरीक्षक की ज़िंदगी कितनी शाही थी। सब हाथ बांधे खड़े रहते थे। उनकी मेहनत रंग लायी और लो जी उनका ट्रांसफर कोटा हो गया।

 

                    आप अगर सोच रहे हैं उनके जीवन में जटिलताओं का अंत हो गया तो आप गलत सोच रहे हैं। अब नई तरह की समस्याएँ उतपन्न हो गईं थीं। वे कल तक कोटा में ही निरीक्षक थे। आज कोई उन्हें अफसर मानने को ही तैयार नहीं था। सब अबे तबे तू तड़ाक करते। लोग हँसते। कोई काम करता नहीं था। वहाँ भी वही लगे रहते थे। आदमी कितनी मेहनत करेगा। वे अफसर बन कर पछताए। अच्छा मेहनत तो कर भी लेते मगर उनको ये कतई पसंद नहीं था कि कल तक के उनके साथी उनका मज़ाक बनाएँ, हास-परिहास करें। आखिर वो अफसर क्यूँ बने, इज्ज़त कमाने को, दबदबे के लिए। यहाँ देख रहे थे कि उनका दबदबा तो भाड़-चूल्हे गया लोग दायें-बाएँ, ऊपर-नीचे उनको ही दबा रहे हैं।

 

 

पुनश्च: मैंने सुना एक दिन तंग आकर उन्होने अपने रिवर्जन का प्रार्थना पत्र लगा दिया और मूषक मूषक पुनः की तर्ज़ पर पुन: निरीक्षक बन गए। और पूरी अफसरशाही को कोसते/गाली देते न थकते थे। वो कहते "सब बस नाम का है... सब खोखला है...सब ढकोसला है"

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