Ravi ki duniya

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Friday, September 8, 2023

कोटा सुसाइड का

 

         

हम अपने बच्चे को वो नहीं बनने देना चाहते जो वो बनना चाहता है हम बच्चे को वो बनाना चाहते हैं जो हम उसे बनाना चाहते हैं। मैं इंजीनियर नहीं बन पाया तो क्या ? मेरा बेटा/बेटी बनेगी। और दिखा देगी दुनियां को कि शर्मा जी/गुप्ता जी के बच्चे भी किसी से कम नहीं। चाहे उसमें इस लाइन का एप्टीच्यूड है या नहीं उससे क्या?

           भले अपनी ज़मीन खेत गिरवीं रखने पड़े या महाजन से औने पौने  रेट पर कर्ज़ा लेना पड़े। बस कोटा के सुसाइड्स का यही लब्बोलुआब है। बाकी सब सेंसलैस डिफेंस के असफल प्रयास हैं। हम अपनी संतान को इस रेस में पीछे नहीं रहने देंगे। इंजीनियर बना कर ही मानेंगे। एक मोठा पैकेज लेने का ही है उसे।

 

हमारी बेवक़ूफियों का आप अंदाज़ भी नहीं लगा सकते:

1.   सीलिंग पंखा हटा दो उसकी जगह टेबल फैन लगाओ। बच्चू अब लटक के दिखा

2.  पंखे की रॉड इतनी कमजोर बनाओ कि जरा से बोझ से ही टूट जाए और नीचे आ जाए।

3.  पंखे में रॉड की जगह स्प्रिंग लगाओ सो पूरा पंखा ही नीचे आ जायेगा।

 

             जितने भी कोचिंग केंद्र हैं उनकी भी मजबूरी है उनको अपना सेंटर चलाना है अतः भले हर हफ्ते दो टेस्ट लेने पड़े भले बच्चे दिन रात एक कर दें मगर सब कम है। दाखिले की पर्सेंटेज 100 पहुँच चुकी है। और मज़े की बात है कि यूनिवर्सिटी में कई कोर्स में दाखिला 100% पर फुल/बंद हो जाता है। तो ऐसी मार-काट वाली स्थिति में जो न हो थोड़ा है।

जानकार लोग बताते हैं कि कोटा के सुसाइड्स को मोटा-मोटा दो श्रेणी में रख सकते हैं:

 

क.  ग़रीब / निम्न मध्यम वर्ग के लोग अपनी मकान/ज़मीन अपना खेत रहन रख कर हाई रेट पर कोचिंग की मोटी फीस भरते हैं। यह बात बच्चे को पता होती है उस पर अपनी पढ़ाई के अलावा इस बात का भी बहुत दबाव होता है खासकर जब वह वांक्षित अंक वीकली टेस्ट में नहीं ला पाता। यह दबाव बढ़ता ही जाता है। और किस घड़ी ब्रेकिंग पॉइंट पर पहुँच जाता है पता भी नहीं लगता। यहाँ बच्चे की मदद को कोई नहीं। बच्चा डिप्रेसन में चला जाता है।

 

ख. जगह-जगह के स्कूल में/बोर्ड में अंक प्रणाली अलग अलग होती हैं। बच्चा अपनी बैकग्राउंड से कोटा का सामंजस्य नहीं बना पता है। जिस प्रकार की मेहनत वहाँ कराई जाती है वह बहुत निर्दयी किस्म की होती है। टेस्ट पर टेस्ट। कदम कदम पर आपकी परख हो रही होती है। अब पता नहीं आपके बच्चे की रुचि है भी या नहीं। उसकी उतनी क्षमता है भी या नहीं बस औरों की देखा देखी हम अपने बच्चे को झोंक आते हैं। फीस के पैसे देकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। आप देखते ही हैं न केवल कोचिंग सेंटर में बल्कि कॉलेज जाकर भी सुसाइड का दर सतत बना रहता है। अतः हमने अपने बच्चों को नया दौर फिल्म का घोडा बना दिया है।

 

             वक़्त आ गया है कि आप सोचें आखिर इंजीनीयरिंग ही एकमात्र क्षेत्र नहीं है और भी विषय हैं जिनमें चमकने की उतनी ही या अधिक संभावनाएं हैं। आखिर मात्र पैसा कमाना ही तो जीवन का मुख्य या एकमात्र उद्देश्य नहीं। सफलता को मनाना हमें आता है मगर अपने बच्चे को असफलता से सामंजस्य बिठाना भी सिखाएँ। उसे मशीन न बनने दें। उसे न बताएं कि पड़ोसी का बच्चा या फिर आपकी  रिश्तेदारी में फलां का लड़का या लड़की ने झण्डा लगा दिया है अब उसकी बारी है।

 

          आप अपने बच्चे के दोस्त नहीं बन सकते न बनें पर उसके दुश्मन तो न बनें  

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