Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Friday, October 13, 2023

दुनियाँ रंग-रंगीली

 


 

         रेलवे में आने से पहले मैं टूरिज़्म क्षेत्र से जुड़ा हुआ था। तब बहुत खुशी हुई जब पता चला कि रेलवे भी टूरिज़म के क्षेत्र में एक कार्पोरेशन खोलने जा रही है। मैंने इधर-उधर पता लगाया और एक सज्जन जो इस काम को उच्च स्तर पर देख रहे थे उनसे मिला वे बहुत खुश हुए और बहुत आशावादी साउंड कर रहे थे। मोटा-मोटा अखबार से पता चल रहा था कि रेलवे स्टेशनों के ऊपर इतनी जगह हैं वहाँ होटल खोले  जाएँगे। केटरिंग तो रेलवे पहले से कर ही रही है, बस लोकल टूरिज़्म देखना है। और स्टेशन के ऊपर होटल के कमरे बनाने हैं। आखिर रिटायरिंग रूम और गेस्ट हाउस तो रेलवे प्रचुर मात्रा में पहले से ही सुचारू चला रही है।

           जब बहुत दिनों तक  कोई आहट नहीं हुई तो पता चला कि जो सज्जन इस प्रोजेक्ट को देख रहे थे (जिनसे मैं मिला था) वो अपनी एक्सटैन्शन का कार्यक्रम चला रहे थे वो मिली नहीं। सो प्रोजेक्ट जहां था वहीं ठप्प होकर रह गया। मंत्री महोदय ने, सुनने में आया कि यह कह कर प्रेजेंटेशन में ही अपनी अस्वीकृति दे दी  “पहले रेल तो ठीक से चला लो”।

 

              कुछ समय बाद फिर सुगबुगाहट होनी शुरू हुई। एक उच्च अधिकारी से चर्चा हुई वह आँख खोल देने वाली थी। पता चला कि इसमें रेलवे कुछ नहीं करेगी सब काम ठेके पर दे दिया जाएगा।  आप तो बस थानेदार बन कर पैसे उगाही करते रहिए। उस चक्कर में जगह-जगह रेलवे स्टेशन पर फेन्सी रेस्टोरेन्ट खुल गए। रेलवे से हर बड़े स्टेशन पर कोहनी मरोड़ कर मौके की जगह कबाड़ ली गईं। भगवान जाने कौन आबंटन कर रहा था हमें तो पता तब चलता जब किसी रेस्टोरेन्ट के उदघाटन में हमें बुलाया जाता। होटल-वोटल तो क्या खुलने थे। हाँ मगर नई दिल्ली स्टेशन अजमेरी गेट साइड पर एक होटल खुला तो उम्मीद जगी। फिर यकायक पता चला कि वो ठेके पर दे दिया गया और अब रेलवे का उस से कुछ लेना देना नहीं। फिर बारी आई मण्डल और ज़ोन पर चलने वाले रिटायरिंग रूम और गेस्ट हाउस की उन सबको प्राइवेट को दे दिया गया। अब काउंटर पर कोई विनम्र, गंभीर, कायदे की ड्रेस पहने, रेलवे कर्मचारी नहीं बल्कि एक अर्ध-शिक्षित बेरोजगार छोकरा (डेली वेज वाला), पान मसाला खाते हुए आप से मुखातिब होता।

जब इतने से बात नहीं बनी तो टिकिटिंग भी अपने हाथ में ले ली और सॉफ्टवेयर लगा कर बुकिंग हम करेंगे।

 

           अब खुद कुछ करना धरना नहीं है बस नाल खानी है। प्लेटफॉर्म पर स्टाल कबाड़ लिए कि हम आबंटित करेंगे। अब वहाँ भी मल्टी नेशनल और हाई एंड ब्रांड ही दिखते हैं। वो पहले जैसे ठेले पर, खोमचे पर चीजें बेचने वाले नहीं हैं।  जहां हैं भी वो अपने पेरेंट कंपनी की वस्तुएँ घूम-घूम कर बेच रहे हैं। खाने की क्वालिटी और लिनन की बात ना ही करें तो बेहतर है।

 

     एक बार यात्रा में भोजन इतना खराब था कि मैंने कंपलेंट-बुक मांगी तो वो डेली-वेज टाइप लड़का बोला “आपने पहले क्यों नहीं बताया कि आप रेलवे से हैं, मैं ताज़ा बना देता”। गोया कि यह खराब भोजन मेरी अपनी गलती है। इस सारे प्रकरण का पटाक्षेप भी कम रोचक ना था, इंचार्ज़ अधिकारी ने मुझ से सहानुभूति रखते हुए तुरंत एक्शन लेनी की बात कही और लिखित में शिकायत मांगी। मैंने तुरंत भेज दी।

 

         शिकायत का निवारण तो खैर क्या होना था मगर बाद में पता चला कि मेरी शिकायत दिखा-दिखा ठेकेदार को डरा-धमका कर उन्होने महीनों खूब अपनी सेवा कराई। बस यही है सारांश इस सारी केटरिंग और टूरिज़्म बैताल पच्चीसी की कथा का।     

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