पहले मैंने सोचा हिन्दी का लेख है तो इंगलिश शीर्षक क्यों? फिर लगा कि स्कूल में भी तो इसी टाइटल से निबंध लिखते थे कारण
कि हिन्दी में तो ऐसे किसी निबंध का अभ्यास कराया नहीं गया। वहाँ तो चलता था ‘कर्म किए जा फल की चिंता मत कर’ या फिर ‘रूखी-सूखी खाय के ठंडा पानी पी’ वो भी घड़े का, फ्रिज/कूलर का नहीं। ये एम्बीशन
हिन्दी वालों के साथ चलता नहीं है। जहां “संतोष
धन” के आगे बकिया धन धूरि समान बताए गए हैं।
देखिये हम सब
की एम्बिशन वक़्त बेवक्त अदलती बदलती रहती है। अब मुझे ही देख लो कभी आइसक्रीम वाला
बनाना चाहता था तो कभी इंजन-ड्राईवर, कभी जासूस तो कभी एक्टर। कभी लेखक तो कभी एम.पी.।
एम.पी. बनने के लिए दरकार है कि मेरी इलाके में धाक हो, चार लोग मुझे भली-भांति जानते हों। वैसा वाला जानते हों जिसमें उन्हे खुद ही पता हो
कि मेरा बाप कौन है ? मैं कौन हूँ ? शरम से या डर से जिधर से निकाल जाऊँ उधर से लोग “भैया
जी नमस्ते !, भैया जी प्रणाम, भैया जी पैरी
पैना पूरे रूट पर चलता रहे। विधायक बनूँ तो ऐसा कि पक्ष हो या विपक्ष दोनों के हाई कमान टिकिट लिए पीछू-पीछू
फिरें। नित नई उपाधियाँ मिलती रहें, ‘युवा-नेता’, ‘युवा-हृदय सम्राट’, ‘युवकों की आशा’ आदि आदि। अगर एम.पी. बनूँ तो कैसा
बनूँ ? इस पर मैंने बहुत विचारा। सब देख-भाल कर, स्टडी कर के मैं इस नतीजे पर
पहुंचा हूँ कि यदि एम.पी. बनूँ तो रमेश जी जैसा। संसद के अंदर-बाहर दोनों जगह अपनी
फुल फुल बकैती चले। किसी को भी गरियाऊँ मेरे मर्ज़ी। हाई- कमान का वरद हस्त मेरे
ऊपर सदैव बना रहे। ‘श्री लक्ष्मीजी सदैव सहाय’ टाइप। मैं गरियाते-गरियाते नित
नई जिम्मेवारी नए-नए ऊंचे-ऊंचे पद से नवाजा जाऊँ। तुम इंकवारी बिठाओ मैं कहूँ “अभी फुरसत नहीं”।
मेरा कोई कुछ भी बिगाड़ न पाये। रातों-रात मेरी पूछ बढ़ जाए। हाई कमान की परीक्षा
में मेरी ‘डिसटिंकसन’ आए। आउट ऑफ टर्न प्रमोशन
पाता जाऊँ। एक स्टेज ऐसी आ जाये जहां ‘सिर्फ नाम ही काफी हो’ और अच्छे-अच्छे दानिश्वर लोग मेरे ताप से रोने लग पड़ जाएँ। रमेश नाम है
मेरा ....
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