Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Monday, November 25, 2024

व्यंग्य: शादी में ठंडी रोटी पर मारपीट

 

                                                       



      

        हमारे देश में शादी शांति से नहीं होती। शादी होती है खूब विवाद से, शोर शराबे से, आतिशबाज़ी, मारपीट और गोलीबारी से। मैंने एक शादी में जब मरियल दूल्हे को अपने वजन के बराबर तलवार को थामे देखा तो पूछ ही लिया वह बोला “हमारे में ये होता है” बस बात खत्म ! शादी में खूब आतिशबाज़ी, चुहल बाज़ी और रूठा-रूठी भी होती है। इसमें कहते हैं फूफा लोग का बहुत योगदान रहता है। अक्सर शादियों में लड़के वाले अपनी ही ठसक में रहते हैं। हर बाराती अपने आपको वी.आई. पी. ही समझता है। मैं एक शादी में सिर्फ इसलिए गया कि छोटे कस्बे की शादी, पंगत में बैठ कर खाने और ढोल-ताशे की बचपन की यादें सँजोये था। मगर वहाँ जाकर पता लगा शादी शहर के बहुत बड़े बैंक्वेट हॉल में है, बूफ़े लगा है और डी.जे. पर अंग्रेजी गाने बज रहे थे।


      इसी श्रंखला में खबर है कि एक शादी में रोटी ठंडी होने पर तू तू-मैं मैं हो गई। बात इतनी बिगड़ गयी कि मार-पीट होने लगी। कहते हैं अनेक रोटी देने वाले और खाने वाले दोनों घायल हो गए। ये शादी में बहुत होता है। लोग जैसे तैयार होकर ही जाते हैं कि  किस बात पर बिगड़ना है। कहाँ ड्रामा करना है। कभी लेन देन को लेकर, कभी खाने को लेकर या फिर बस बिन बात के ही। 


         लड़की वाले बेचारे घबराये से ही रहते हैं। न जाने कहीं कोई कमी न रह जाये। जबकि लड़के वाले क्रूर ऑडीटर की तरह पैनी निगाह से गलती पकड़ने निरीक्षण सा करते होते हैं। अब ये केस ही देख लो !  रोटी ठंडी थी तो नम्रता से कह देते। रोटी बांटने वाला भी उसका कोई उपाय निकालता। किसी को बोलता। हाँ यहाँ ये बात और है कि क्या वे टाइम से खा रहे थे कई बार लोगबाग अपनी अन्य मौज-मस्ती में इतने बिज़ी होते हैं कि खाने को आखिर में पहुँचते हैं और फिर ठंडी रोटी का रोना रोते रोते फ़ौजदारी पर ही उतर आते हैं। शादी में आइसक्रीम की भी बहुत मच मच रहती है। सबसे ज्यादा भीड़ वाला वो ही काउंटर होता है। वेस्टेज का तो पूछो ही मत। आजकल फार्म हाउस की शादियों में अलग किस्म का टूरिज़म होता है। एक काउंटर यहाँ है तो दूसरा काउंटर इतनी दूर होता है कि आप दो बार सोचने पर मजबूर होते हैं कि जाया जाये या नहीं। लोगों को गोल्फ कार्ट जैसी कोई चीज़ रखनी चाहिए। क्यू की अलग मारामारी। कोई काउंटर बिना क्यू नहीं मिलेगा। और बीच बीच में बच्चे या लेडिस लोग घुस कर दाल, सब्जी अथवा रोटी के चक्कर में क्यू अलग तोड़ते हैं। मैं कहना चाह रहा हूँ कि लड़ाई की असीम संभावनाएं और अवसर होते हैं। कुछ ही कंट्रोल कर पाते हैं। बाकी बम की तरह फट जाते हैं जैसे ठंडी रोटी पर। 


        जहां तंदूर अथवा ताज़ा गरम-गरम रोटी का इंतज़ाम होता है वहाँ अलग भीड़भाड़ वाला समां होता है। ये रोटियाँ उस तरह की नहीं होतीं  जिन्हें आप स्टोर करके रख सकें कारण कि ये ठंडी होकर बिल्कुल रबर के टायर की तरह खिंचने लगती हैं, चबाने में नहीं आतीं हैं। इसका घरातियों को विशेष ख्याल रखना चाहिए। नीचे जो 'फ्लेमबे' जलता है वो जल भी रहा है या शुरू में जल कर कब का बुझ गया है देखना होता है। 


      आजकल शादियों में एक अलग एनक्लोज़र में वी.आई. पी. किस्म के लोगों को बैठाने का रिवाज है उनकी सर्विस वहीं हो जाती है। अतः वे इस ठंडी रोटी के विवाद में भाग लेने से वंचित रहते हैं। दरअसल ऐसे लोग तो प्रतीकात्मक ही खा पाते हैं कारण कि भोजन से पहले और बाद में दवाई-गोली ही इतनी खानी होती हैं कि पेट में जगह कहाँ ? खा लिया जितना खाना था। अब तो सब डॉ. और डायटीशियन खा रहे  हैं ।

व्यंग्य: संविधान दिवस पर यूनिवर्सिटी में ठुमके

 

                                                         


 

       एक खबर है कि भारत के एक सूबे में संविधान दिवस पर कार्यक्रम में छात्राओं ने ठुमके लगाए। आलोचकों को आपत्ति ये है कि इस दिन छात्र-छात्राओं को संविधान बनाने की कहानी सुनानी चाहिए थी। अब इन आलोचकों से पूछो भई ! ये आजकल के टाइम में कहानी सुनने-सुनाने में किस की रुचि होगी। सबसे बढ़िया मैथड है ऑडियो-विजुअल। इन आलोचकों को इस बात का भी आघात लगा है कि छात्राओं के साथ शिक्षक/शिक्षिकाएँ भी ठुमके लगा रही थीं। अब इसमें क्या बात हो गई ? नहीं लगाओ तो कहते हैं  "...'इनवाॅल्व' नहीं होते। आपको डूब जाना चाहिए।..."  डूबो तो कहते हैं आपको नहीं डूबना चाहिए था। 


      देखिये संविधान 26 नवंबर 1949 को बन कर तैयार हो गया था और 26 जनवरी 1950 से लागू हो गया। बस ये दो लफ्जों की कहानी है। इसमें कोई क्या कहानी बना लेगा ? क्या कहानी सुना लेगा ?  डांस भी सपना चौधरी का था। वही वाला 'तेरी आंख्यां का यो काजल...' इस गाने पर कोई  पत्थर दिल ही होगा जिसका ठुमके लगाने का दिल नहीं करेगा। बच्चे सुकोमल होते हैं। शिक्षक/शिक्षिकाओं ने सही किया। देखिये इस डांस के बल पर भी वे बहुत कुछ सीख सकते हैं जैसे कि संविधान दिवस कब मनाया जाता है वही जब 'तेरी आंख्यां का यो काजल' गीत बाज्या था। जिस पर पचास साला मैडम भी कतई दिल खोल कर नाचीं थीं यानि कि 26 नवंबर को।


      बच्चे जो नाच-गाने से सीख सकते हैं वह कितनी भी क्लास में कहानी सुना लो नहीं सीख पाते हैं। यह बात प्रूव हो चुकी है। अब इधर-उधर अखबार में छप जाने से और ऑबजेक्शन लेने से और भी ये दिन यादगार बन गया है। क्या स्टूडेंट, क्या शिक्षक सभी को ये दिन याद रहेगा। और उसी के साथ सपना चौधरी जी भी। अब ठुमके लगाने पर कोई क्या आपत्ति कर सकता है ? बिना ठुमके नृत्य हो ही नहीं सकता। संविधान में भी मौलिक अधिकारों में ये वर्णन है कि नागरिकों को सांस्कृतिक अधिकार है। वे संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए कदम उठा सकते हैं। अब कदम खुदबखुद डांस पर थिरकने लग जाएँ तो क्या करे कोई ? आखिर सपना चौधरी कोई ग़ैर संवैधानिक डांस तो करेंगी नहीं। लोगों को तो बात का बत्तंगड़ बनाना है। उससे होने वाली 'लर्निंग' की तरफ ध्यान ही नहीं जाता। आवरण को देख चिल्ल पौं मचा रहे हैं उसके निहितार्थ संदेश को कतई नहीं देख रहे। ऐसे ही लोग ना तो संविधान को समझते हैं न सपना चौधरी जी को ना उनके डांस को। ठुमके के तो जन्मजात खिलाफ ही होते हैं ऐसे लोग। एकदम ड्राई ड्राई। इनसे क्या ही तो उम्मीद करे कोई ? आप 26 जनवरी पर दुनियाँ भर के लोक नृत्य, दिन-दहाड़े इंडिया गेट पर, पूरे देश के सामने राजपथ बोले तो कर्तव्य पथ पर कर सकते हैं तो यह आपका मौलिक कर्तव्य है कि आप स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, गली-चौराहों शादी ब्याहों, जन्मदिन सब पर डांस करें। डांस एक वर्जिश भी है। डांस एक 'फिटनेस मंत्रा' भी है। दुनियाँ भर के डांस शो चल रहे हैं। लोग संसार में सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अंतर्गत अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। इनाम-इकराम तो भारत सरकार ही देती है। खुद सपना चौधरी ना जाने कितने देशों  में अपनी कला का प्रदर्शन कर वाह वाही लूट चुकी हैं। सम्पन्न तो वह हैं ही। कहानी लिखने वालों की दुर्दशा आपने-हमने- सबने देखी है। प्रेम चंद कैसी विपन्न अवस्था में रहे। यूं कहने को उन्होने तीन सौ से ऊपर कहानियाँ लिखीं। एक के बाद एक 'मानसरोवर' की झड़ी लगा दी मगर खुद धन की छींटों के लिए भी तरस गए।   


      मेरा शिक्षा जगत के विद्वानों से आग्रह है कि आपका फोकस लर्निंग पर होना चाहिए उसके तरीके सेकंडरी है। कहानियां डालना अब आउट ऑफ फैशन हो गया है। सब समझ जाते हैं कि अगला कहानियाँ डाल रहा है। कहानियाँ डालना एक निगेटिव कंसेप्ट है। जबकि नृत्य, नाटिका, स्किट, से सदा के लिए मॉरल मिलता है। अतः संविधान की शिक्षा के लिए शिक्षक जगत से मेरा निवेदन है कि उसे आसान बनाएँ। हँसते-खेलते उसको पढ़ाएँ। संविधान आधारित नृत्य- नाटिकाएं डवलप करें। बच्चे जल्दी समझेंगे और देर तक भूलेंगे नहीं। जिस-जिस ने भी उस दिन ठुमके लगाएँ हैं ना तो वो ठुमकों को भूल सकते हैं ना संविधान को।

Saturday, November 23, 2024

व्यंग्य: ड्राई फ्रूट खाने वाला घोड़ा

                                                       



 

       सोनपुर नामक जगह पर बिहार में सालाना पशु मेला लगता है। इसमें देश के कोने-कोने से लोग जुटते हैं, दोनों, बेचने वाले भी और खरीदने वाले भी। एक से एक हृष्ट-पुष्ट पशु आपको इस मेले में देखने को मिलेंगे। एक नेता जी ने कुछ अर्सा पहले कहा था “....गधे खा रहे च्यवनप्राश”। पर ये केस तो उससे आगे की स्टेज का है जहां घोडा ड्राई फ्रूट खाता है। पता चला है कि इस घोड़े को इसके मालिक ने दो साल पहले लुधियाना के मेले से पाँच लाख में खरीदा था। तब इसका नाम सुल्तान था। पर इसकी रफ्तार देख कर मालिक ने अब इसका पूरा नाम 'राजधानी एक्स्प्रेस सुल्तान' रखा है। कहते हैं मेले में इसने सबका मन मोह लिया। सुल्तान अब तक 32 मेडल जीत चुका है।

 

      भाईसाब ! घोड़ा क्या है पूरा चैम्पियन है। बस यही आत्मविश्वास आदमियों में चाहिए। एक हमारा पैट-डॉग है। दिन भर खाना-सोना और कोई काम ही नहीं। वह भौंकता भी रस्म अदायगी के तौर पर नपे-तुले अंदाज़ में है। एक तरह से प्रतीकात्मक। बस ये टोकन भर है ताकि उसकी हमारे घर में पूछ होती रहे। और तो और वह थोड़ी-थोड़ी देर में हमें देखता रहता है एप्रूवल के तौर पर 'ठीक कर रहा हूँ न मैं ?' वह आरामपसंद नहीं है। प्लेन सिम्पल आलसी है जी! नखरे देखने लायक हैं उसके।

 

       एक यह सुल्तान है। ड्राई फ्रूट खाता है तो क्या, फुल-फुल उसका हक़ अदा कर रहा है। तेज़ दौड़ता है, बोले तो राजधानी एक्स्प्रेस तभी न नाम रखा है। पता नहीं मालिक ने 'वंदे भारत' नाम क्यों नहीं रखा ? दूसरे, वह अपने वर्ग में ब्यूटी कन्टैस्ट जीतने का काॅन्फ़िडेंस रखता है। बोले तो 'प्रूवन एबिलिटी' वाला है। 32 मेडल जीत चुका है इससे ज्यादा प्रूफ क्या चाहिए। बात ये है कि हमारे देश में मिड-डे मील में किस प्रकार का भोजन मिलता है हम सबको पता है। इतना घपला है जिसकी कोई थाह नहीं। मिड-डे मील का छोड़ भी दें तो आम हिन्दुस्तानी को क्या खाने को मिलता है? जो मिल रहा है वो सब मिलावटी है, नकली है। अब हमें यह मांग करनी चाहिए भुला दो आदमी क्या खाता है, आप तो हमें जो घोड़ा खाता है उसी तरह का कुछ दे दें तो हम तर जाएँगे। भारतीय कितने कुपोषण का शिकार हैं। अब सवाल ये है कि इस सुल्तान को बोले तो राजधानी एक्सप्रेस सुल्तान को खरीदेगा कौन ? जो खरीदेगा सोचो वो खुद क्या खाता होगा ? क्यों कि जब उसने अपने इस घोड़े को ड्राई फ्रूट खिलाने हैं। अब ड्राई फ्रूट कोई वो पाँच बादाम या सात काजू तो खाता नहीं होगा, सुल्तान है तो सुल्तान की तरह ही उसके भोजन का खर्चा होगा। दूसरे शब्दों में उसकी औसत बैलेन्स डाइट डेफ़िनिटली इंसान की औसत बैलेन्स डाइट से कहीं अधिक होगी। मुझे घोड़े से कोई शिकायत नहीं। मैं तो ये सोच रहा हूँ कि यदि यह घोड़ा ऐसे मालिकान के पास होता जो ड्राई फ्रूट एफोर्ड नहीं कर सकते थे तो वो क्या खाता। आई मीन! उसकी डाइट क्या होती। यूं सुना है घोड़े को चने आदि खिलाया जाता है। कहीं कहीं सुनने में आया है कि घोड़ा ड्रिंक भी करता है। आदमी ने घोड़े को लेकर बहुत सारे मुहावरे और कहावतें भी बनाई हैं। मसलन घोड़े की पिछाड़ी नहीं होना चाहिए, बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम, गिरते हैं घुड़सवार ही मैदान-ए-जंग में आदि आदि। पशु-पक्षियों के अधिकारों की रक्षा का दावा करने वाली संस्थाएं ऐसे मेले में नहीं जातीं हैं। उनका पहला निशाना ऐसी वारदातें होतीं हैं जिनमें उनका सम्मान हो, घोड़े से ज्यादा वो खबर में रहें, घोड़ा महज़ सेकंडरी रहे। बोले तो हाई प्रोफाइल केस। आखिर ऐसे मेलों में पशु क्या पालने के लाये जाते हैं ? अब घोड़े की सवारी बंद है। घोड़ों को तांगे में नहीं जोत सकते। उनको 'जॉय राइड' के लिए बच्चों के लिए भी इस्तेमाल नहीं कर सकते। यूं घोड़ों को 'ब्रीड' करने का काम हुआ या फिर रेस के लिए घोड़ों को तैयार करना/पालना एक बहुत सम्पन्न बिजनिस है। वो वक़्त दूर नहीं जब ये पशु अधिकार रक्षा समिति वाले घर-घर  इन्कम टैक्स की तरह  जाकर छापे मारा करेंगे। आपने कोई घोड़ा, कोई तोता कोई चिड़िया, कुत्ता-बिल्ली तो नहीं पाला हुआ ? अगर इनमें से कोई भी है तो आप पर जुर्माना लगाया जाएगा। हो सकता है सज़ा भी मिले। फिर खाते रहना ड्राई फ्रूट।

 

           वैसे सोचने वाली बात ये है कि बेचारे वो मदारी, वो सर्कस वाले वो सँपेरे, वो भालू वाले न जाने कहाँ लुप्त हो गए। लुप्त क्या जब उनके पशु जिन्हें वो अपने बच्चे जैसा रखते थे जब वो ही ज़ब्त कर लिए तो ये बेचारे क्या करें ? अब क्या बंदर? क्या भालू ? क्या मदारी ?  ड्राई फ्रूट तो दूर, दो जून की रोटी को तरस गए हैं।

Friday, November 22, 2024

व्यंग्य: हेलमेट बिना कार चलाने पर चालान


                                                       


 


          पुलिस में आप क्यों भर्ती होते हैं? बचपन का एक सपना होता है ! पुलिस बोले तो पाॅवर! पाॅवर बोले तो पैसा। अब पुलिस में अगर किसी को 'लाइट पनिशमेंट' देना हो बोले तो खुड्डे लाइन लगाना हो तो लाइन हाजिर कर दिया जाता है। ऐसा ही एक क्षेत्र है ट्रैफिक पुलिस। उनका एक ही सहारा है। एक ही चलन है वो है चालान। 


             अब चालान यूं ही तो नहीं हो जाता। आपको बताना पड़ता है कि रेड लाइट जम्प की है या खिड़कियों की शीशे ज्यादा काले हैं। सीट बेल्ट नहीं पहनी। स्पीड लिमिट का पालन नहीं किया। गो कि ले दे कर ऐसे ही आधा दर्जन उल्लंघन है जिसके इर्दगिर्द सारा ट्रैफिक सिस्टम घूमता है। अतः उसी अनुसार ट्रैफिक पुलिस के पास भी यही आधा दर्जन क्षेत्र हैं जहां से उन्होने अपने चाय-पानी का प्रबंध करना है। दूसरे शब्दों में रोज कुआं खोदना है रोज पानी पीना है। भई सड़क पर खड़े हुए बिना आप उल्लंघंकर्ता को पकड़ नहीं पाएंगे। अगर कैमरे ने ही पकड़ना है तो चालान भी कैमरे ने ही ले लेना है यानि 'ऑन-लाइन' होगा। आपका आमना-सामना फ्रेंडली पुलिसमैन से तो हो ही नहीं पाएगा। जब वो नहीं हो पाएगा तो कैसे आप अपने चालान को माफ करा पाएंगे ? कैसे तो ट्रैफिक पुलिसमैन चाय-पानी पिएगा। अपना नहीं तो उस बेचारे ग़रीब का तो ख्याल करो जो सर्दी-गर्मी, बारिश-तूफान की परवाह किए बिना आपकी सहायता को पेड़ की आड़ में कहीं छुपा है या रेड लाइट से टर्न लेते ही तीन-चार की गिरोहबंदी करके खड़े हैं। किसलिए ? सिर्फ इसलिए कि वे आपके किसी काम आ सकें। एक आप हैं जो उन्हीं से नजर बचाते फिरते हो। ये क्या बात हुई? सरकार आपके लिए परिवार नियोजन की एक से बढ़ कर एक योजनाएँ लायी मगर आप उन्हीं योजनाओं से नज़र बचाते घूमते रहे। ये जाने बिना कि असल में ये सब सरकार आपकी भलाई के लिए ही कर रही थी। उसी तरह ये ट्रैफिक पुलिस आपकी सेवा में आपके लिए ही है। स्कूटर- बाइक चला रहे लोग अव्वल  तो हेलमेट पहनते नहीं, पहनते हैं तो उसे सर पर धर भर लेते हैं। उसका फीता नहीं बांधते। अब बताओ ऐसे हेलमेट का क्या लाभ ? जैसे पुलिस पर एहसान कर रहे हों।  अलबता आप पुलिस के चालान से बच जाते हैं। धीरे-धीरे यह फार्मूला भी बासी हो गया। यानि लोग खुदबखुद फीता भी बांधने  लगे। यह तो हद हो गई अब ट्रैफिक पुलिस क्या करे ? कैसे तो आपकी सहायता करे और कैसे अपना अस्तित्व जस्टीफ़ाई करे। उन्होने हार नहीं मानी।


       लेटेस्ट खबर यह है कि ट्रैफिक पुलिस अब कार चालकों को भी रोकने लग गई हैं। उनसे पूछने लग पड़ी है उनका हेलमेट  कहां हैं ? अब कार ड्राइवर का परेशान होना लाजिमी है। वह सोच रहा है ये कब में हो गया? अब इन बेखबर ड्राइवरों को कौन बताएगा ? अखबार वो पढ़ते नहीं। टी.वी. न्यूज वो देखते नहीं। फिर वो सोचता है हो सकता है उस को पता नहीं चला हो ये भी कोई नया कानून आ गया होगा कि अब कार चालकों को भी हेलमेट पहनना पड़ेगा। आखिर फ़ार्मूला रेस में ड्राइवर हेलमेट पहनता ही है। 


      उसे यह खुशी का एहसास भी हो सकता है कि गोया अब सरकार उसे भी फार्मूला रेस का ड्राइवर से कम नहीं समझती है। ये क्रेडिट की बात है। वह खुशी-खुशी चालान के नाम पर ट्रैफिक वाले को पैसे देने को तत्पर हो जाता होगा।और खुद जा पहुंचता होगा अपने लिए फार्मूला वन जैसा फैन्सी सुर्ख लाल हेलमेट खरीदने।

व्यंग्य: छिपकली का मंदिर

                                                         


 



           हमारे भारत महान में वसुधैव कुटुम्बकम के अनूठे दृश्य दिखाई देते हैं। पूरे विश्व में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलेगा। आप तो नाम लो ! हमारे यहाँ मेंढक का मंदिर है, चूहों का मंदिर है, साँप का मंदिर है, भेड़िये का मंदिर है, नंदी बैल का है तो गाय को भी पूजा जाता है। एक सूबे में तो मैंने वीज़ा मंदिर भी देखा है। आपका अगर वीज़ा न लग रहा हो तो वहाँ जाकर अरदास मांगें और मनचाहे देश का वीज़ा पाएँ। 


            हमारे देश में जितना प्रकृति प्रेम का ज़िक्र और दिखावा है उतना कहीं देखने में नहीं आता है। साथ ही जितनी प्रकृति की अवहेलना है वैसी भी कहीं नहीं। यूं हम नदियों को माता मानते हैं। देख लीजिये क्या हाल किया है हमने सभी नदियों का। हम पेड़ों की पूजा करते हैं। दीप जलाते हैं। पेड़ों के चक्कर लगाते हैं। जैसे ही अवसर मिलता है उसे काट देते हैं और चूल्हे में जला देते हैं अथवा अपने घर के लिए या कारोबार के लिए फर्नीचर बनवा लेते हैं।

 

          यह हमारे अंदर का एक विरोधाभास है जो हम सबके मिजाज में है। माता-पिता के रोज़ सुबह पैर छूते हैं और पहले अवसर पर उन्हें घर से बाहर कर देते हैं। अब घर से बाहर करने  की बात पुरानी हो गई है अब तो उनको रास्ते से हटा देने के कुचक्र रचे जाते हैं। जीवन साथी के लिए सुपारी दी जाने लगी है। सरकार तो अपने कर्मचारियों को 30 साल की सर्विस के बाद ‘एक्स’ कर देती है  आजकल हम लोग अपने ‘बाबू’ अपनी ‘बेबी’ को 30 दिन में ही ‘एक्स’ कर देते हैं। यह एक्स..वाई... ज़ेड हमें कहाँ ले जाकर छोड़ेगा? 


             पूजा में एक काल सर्प दोष बताया जाता है। उसके उपाय स्वरूप आपको चांदी के साँप को पूजा में उपयोग करते हुए दान किया जाता है। सुना है इस छिपकली के मंदिर में सोने की छिपकली है। लोग उसे स्पर्श कर प्रणाम करते हैं और अपनी मनौती मांगते हैं। वही छिपकली घर में दिख जाये तो हँगामा मचा देते हैं। सब उसके पीछे पड़ जाते हैं। घर से बाहर निकाल कर ही दम लेते हैं। 


           इसी तरह चूहे का जो मंदिर है वहां चूहे निर्बाध रूप से विचरण करते हैं। वही चूहा अगर घर में घुस आए तो तुरंत चूहेदानी लगा दी जाती है। यूं लोग बिल्ली को भी पवित्र मानते हैं और उसे दूध-मलाई खिलाते हैं। इसमें साँप का उदाहरण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। आप नाग पंचमी पर देखें कैसे साँप की ढूंढाई होती है। पीता नहीं है फिर भी जगह-जगह आपको कटोरा भर दूध रखा हुआ मिल जाएगा। ऐसे में कोई साँप दिख जाये तो बल्ले बल्ले! ऐसा लोग समझते हैं कि अब सब काम सफल हो जाएँगे। वही साँप अगर पड़ोस में भी निकल आए तो हम सहम जाते हैं और अपने दरवाजे-खिड़कियों की जांच करने लगते हैं। 


           हम कितने भोले-भाले थे मोर पंख नोटबुक में रख कर निश्चिंत हो जाते थे कि हम पढ़ें ना पढ़ें विद्यारानी अपना काम करेंगी और हमारी जर्जर नैया पार उतारेंगी। मुझे ज्ञात नहीं, क्या हमारे समाज में कहीं बिच्छू, रीछ, साँप की मौसी, नेवले और गिरगिट की पूजा भी की जाती है क्या ? करनी चाहिए उनके साथ ही ये भेदभाव क्यों? आखिर पौराणिक कथाओं में जाम्बवंत के योगदान का वर्णन है। बंदर तो हनुमानजी का साक्षात रूप है ही। 


            लब्बोलुआब ये है कि बच के रहना रे बाबा...बच के रहना रे ! हम आपको तिखाल में बैठा कर मार देते हैं। हम आपका दिन मनाने लगें, जयंती मनाने लगें तो आपको सावधान होने की ज़रूरत है। यदि आपकी पूजा हो रही है और आपको आत्याधिक आदर-सम्मान मिलने लगे तो आपको घबराना चाहिए क्यों कि हम आपको ‘डिरेल’ करने वाले हैं। नाग-पंचमी तो एक ही दिन आती है बाकी 364 दिन तो हमारे हैं। हम पढ़ते आए हैं कि गरुड़ ने सीता जी का पता श्री राम को दिया था। उस हिसाब से गरुड़ हमारा आदरणीय होना चाहिए मगर देखिये हमने उसे अपने कारनामों से विलुप्त प्रायः कर दिया है। अतः यह बात आप गांठ बांध लीजिये हम दिखावा ज्यादा करते है और मन ही मन प्लान कर रहे होते हैं कि इससे क्या फायदा मिल सकता है? क्या लाभ लिया जा सकता है? इसकी खाल बेचें ? या इसकी मूंछ या इसके पंजे ? 


             छिपकली दीदी आप यह सोच कर खुश मत होना कि आपका मंदिर है या अपको सोने में ढाल कर मंदिर में स्थापित कर दिया गया है। गौतम बुद्ध मूर्ति पूजा के खिलाफ थे लोगों ने उनके जाने के बाद उनकी ही मूर्ति ढाल दी और हर धातु, हर लकड़ी, हर मिट्टी में ढाल दी। अभी वक़्त है छिपकली दीदी आप तो अपनी पूंछ छोड़, समय रहते निकल लो पतली दरार से। इससे पहले कि गुठखा बनाने वाले किसी सौदागर की नज़र आप पर पड़े।

Thursday, November 21, 2024

 

                          


                 रूस खोलेगा सेक्स मंत्रालय

 

      अब ये यूक्रेन की युद्ध विभीषिका है या 'एज इट इज' रूस में जन्म दर इतनी घट गयी है कि रूस सैक्स मंत्रालय खोलने की योजना पर गंभीरता से विचार कर रहा है। इसके अंतर्गत जो शुरुआत के रुझान आ रहे हैं उसके अनुसार रात दस बजे से दो बजे तक इंटरनेट बंद कर दिया जाएगा और तो और पाॅवर सप्लाई भी बंद रखी जाएगी। बच्चू कब तक बचोगे। इस दिशा में और भी जो कदम ज़रूरी होंगे उठाए जाएँगे। पर देखिए हम किस मुकाम पर आन पहुंचे हैं।

 

       चीन का पता नहीं पर हमारे यहाँ तो बच्चों को भगवान की देन माना जाता है। एक वक़्त था कि जितने अधिक से अधिक बच्चे हों वह व्यक्ति उतना ही भाग्यशाली माना जाता था। वो सशक्तिकरण का प्रतीक होता था। फिर ऐसी निर्धनता छाई कि एक या दो बच्चे का आव्हान होने लगा। और अब होते-होते ये बात यहाँ तक आन पहुंची है कि अव्वल तो शादी ही नहीं करनी है और करनी है तो बच्चे नहीं करने हैं और बच्चा करना  है तो बस एक ही काफी है। लड़का हो या लड़की।

 

     अब रूस शायद दुनियाँ में एक जागृति लाये। एक बात और, हम भारत में जो इतने सारे हो गए हैं उनके रोजगार और खाने के वान्दे हैं। आगे भी हुए ही जा रहे हैं। रोज़-रोज़ खूब शादियाँ हो रही हैं। शहर -शहर शहनाई बज रही हैं इन्हीं घरों से साल से पहले किलकारियाँ सुनने को मिलेंगी। हमारे यहाँ तो स्कूल में एडमिशन की किल्लत है। मकान की किल्लत है, पानी की किल्लत है। हम अभावों में जी रहे हैं। इसका क्या ? हमारे यहाँ तो पहले एक परिवार नियोजन विभाग/मंत्रालय था फिर उसे कल्याण मंत्रालय नाम दे दिया। अब पता नहीं वो किसका कल्याण करते हैं। रूस ऐसा क्यों नहीं करता कि हमारे देश से लोगों को ले जाये। पले पलाये एडल्ट बोलो एडल्ट, टीनेज बोलो टीनेज सब तरह के मिल जाएँगे। हमारे यहाँ डाॅक्टर की और इंजीनीयर बनने की बड़ी खुजली होती है वो आप दाखिला करा ही देना। आप तो इनकी फीस-वीस माफ करके इन्हें प्रोत्साहन राशि दे दीजिये। ये सब शादी को भी राज़ी हो जाएँगे। हमारे भारत के दूल्हे हों या दुल्हन बहुत डिमांड में रहते हैं। हम भगवान से डरने वाले लोग हैं। आपके देश में ठंड वैसे ही पड़ती है। हिंदुस्तानियों को तो आपको कुछ कहने की भी ज़रूरत नहीं है। वो तो काम पर लग जाएंगे। नौकरी में उनके प्रोमोशन से लिंक कर देना और बच्चों की एजुकेशन आदि देख लेना। बस अपुन को और कुछ नहीं मांगता है। आपके यहाँ तो सुना है ना दूध में मिलावट है ना मक्खन में। ना सब्जी में इंजेक्शन लगाने पड़ते हैं ना ही चाय पत्ती या नकली शराब बनती है। वोदका ज़िंदाबाद।

 

     आपके सैक्स मंत्रालय के लिए यह काम है कि वे इस दिशा में सोचें। आपने अपने वालों को खूब इन्सेंटिव देकर देख लिया। नतीजा वही 'नियत' 'नियत' रहा है । आप हमारे हिंदुस्तानियों को नहीं जानते हम अपने पूर्वजों का बहुत सम्मान करते हैं अतः हरदम 'दा' 'दा' ही मुंह से निकलना है और इतने में ही आपकी पॉलिसी सफल हो जानी है।

                 

                      तब तक के लिए दस्विदानिया !!

व्यंग्य: दुल्हन ग्रेजुएट, दूल्हा दसवीं फेल

 

                                                           



          यह प्रकरण खबर में आया है। जब बारात पहुंची तो दुल्हन ने शादी से साफ-साफ मना कर दिया। कारण – दुल्हन का कहना है कि वह ग्रेजुएट है जबकि दूल्हे महाराज मात्र दसवीं फेल हैं। दुल्हन यहीं नहीं रुकी बल्कि उसने यह भी उजागर किया है कि दूल्हा मंदबुद्धि है। अब प्रश्न यह है कि ये बात खुली तो खुली कैसे ? फिर जब खुल ही गई थी तो दुल्हन बारात आने तक रुकी क्यों रही। तभी संदेशा क्यों नहीं भिजवा दिया कि यहाँ तशरीफ लाने की ज़रूरत नहीं। 


          एक बात है दुल्हन को यह कैसे पता चला कि दूल्हा मंदबुद्धि है। कोई आई.क्यू. टेस्ट लिया गया है क्या ? या फिर बातचीत के आधार पर ही यह पता चल गया कि वह मंदबुद्धि है। बुद्धि का जहां तक सवाल है यह एक तुलनात्मक इंडेक्स है। ‘क’ ‘ख’ से तीव्र बुद्धि हो सकता है या फिर ‘ख’ ‘क’ की अपेक्षा मंद बुद्धि है। यूं देखा जाये तो हम सभी अपनी अपनी पत्नी के सामने मंदबुद्धि तो हैं हीं। ये शादी पक्की किसने की ? क्या कोई बात इस पूरे प्रकरण में छिपाई गई है ? यह बात पता कब चली ? 


    एक बात और जो समझ में नहीं आती वह है कि यह क्यों ज़रूरी है कि दुल्हन जो है सो पति से कम या बराबर की पढ़ी लिखी हो। दूल्हा जो है सो पत्नी से अधिक या बराबर का पढ़ा लिखा हो। हमारे पुरुष प्रधान समाज में यह धारणा बना दी गई है और मजबूत कर दी गई है कि दुल्हन को कम पढ़ा लिखा होना है या हद से हद बराबर का होना है। उसी तरह से पति देव को दुल्हन से अधिक पढ़ा-लिखा होना चाहिए। अब सवाल यह है कि क्या ये ही सब कंडीशन्स सब समाज में होती हैं क्या ? चलो अपने-अपने प्रमाण पत्र दिखाओ ?  डिग्री दिखाओ ? और वो भी असली वाली। फिर उन्हें किसी दसवीं पास पुलिस वाले से वैरीफाई कराया जाये।  फिर ये बात भी आ सकती है कि ये तो थर्ड डिवीजन है जबकि मैं हाई सेकंड डिवीजन हूँ। तब क्या होगा ? यह बराबरी का कांसेप्ट क्या है ? हमने तो पढ़ा था ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होय। यूं लगता है कि ये सब कहने की बात थी। पढ़ा लिखा होना ज़रूरी है और वो भी पत्नी से ज्यादा या बराबर। यहाँ कमाने की, आय की तो बात अभी आई ही नहीं। शारीरिक बल अथवा ज़मीन जायदाद, कैरियर की कोई बात ही नहीं हुई। यहाँ तो दसवीं पर ही बात अटक गई। अटक गई बोलो पलट गई बोलो। लौट गई बोलो या कहो लौटा दी। अब दुल्हन की हिम्मत की चर्चा होगी जगह जगह। और लोग बाग इसे महिला सशक्तिकरण से जोड़ देंगे। एक बात बताइये क्या आपने सुना है कि दुल्हन अगर नौकरी लगी हुई है तो कभी ऐसा हुआ कि उसने बेरोजगार लड़के से शादी करी हो। लगता है शादी के लिए दसवीं करना बहुत ज़रूरी है । इसीलिए यह बोर्ड की परीक्षा कहलाती है। यहाँ तक कि इस पर एक दसवीं नामक फिल्म भी बनाई गई है जिसमें नायक जेल में रह कर दसवीं करता है। अतः: मेरा दूल्हे मियां से आग्रह है कि वह मन लगा कर पढ़ाई करे और दसवीं पास करे, बारहवीं करे ग्रेजुएट बने पोस्ट ग्रेजुएट बने। शादी बाद में भी हो सकती है। इस बात को दिल से नहीं लगाना है। जो बात दिल पर लगानी वह है कि आगे पढ़ाई करनी है। खूब तरक्की करनी है आप इसे ऐसे भी ले सकते हो कि उस दुल्हन की किस्मत में आप थे ही नहीं। वरना ऐसे पति किस्मतवालियों को ही मिल पाता है जो बीवी से कमतर हो और कमतर ही रहे। पत्नी का कितना सशक्तिकरण होता वह यह नुक्ता चूक गई। खैर भूल चूक लेनी देनी। आप तो 'बैक टू स्कूल' योजना बनाएँ और मन लगा कर पढ़ाई करें। दुल्हन को दूल्हे बहुत हैं तो ये जानें आपको भी दुल्हन बहुत मिल जाएंगी। मगर ईमानदारी बड़ी चीज है। उसका दामन नहीं छोड़ना है। आप दसवीं फिल्म देखें और प्रेरणा लें। एक बात और यदि आप मंदबुद्धि वाकई हैं जैसा कि आरोप है तो लग कर इलाज़ कराएं। 


                                     शादी पर बुलाना मत भूलना !

Wednesday, November 20, 2024

व्यंग्य: इंस्पेक्टर का डिप्टी कलेक्टर को आई लव यू

 

                                  


 

    

     हमारा समाज सदैव से प्यार, मुहब्बत, इश्क़, लव के खिलाफ रहा है। हम ऊपर ऊपर से कितने ही मॉडर्न बातें करने लग जाएँ, कितने ही लिबरल दिखने लग जाएँ, अंदर से हम बहुत ही रूढ़िवादी हैं और इन सब ‘फालतू’ चीजों के सख्त खिलाफ हैं। ये बेवकूफ़ों के काम हैं। मज़े की बात ये है कि ये कितना ही फालतू का काम हो आप कितने ही इसके खिलाफ हों यह सदियों से चला आ रहा है और सदियों तक चलने वाला है, कम नहीं हुआ बढ़ा ही है। वो क्या कहते हैं मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। दूर जाने की ज़रूरत नहीं अपने कुटुम्ब-कुनबे में ही मौजूद है।

 

        इसी श्रंखला में नवीनतम केस है एक इंस्पेक्टर ने डिप्टी कलेक्टर को 'आई लव यू' क्या कह दिया हंगामा ही मच गया। बोले तो हंगामा है क्यूँ बरपा...  इंस्पेक्टर ने अपनी फीलिंग आपको बता दी। आप को हक़ है आप उसके आई लव यू का जवाब दें न दें। कैसे दें। पर उसको यूं सार्वजनिक कर देना और तो और साइबर थाने में उसकी रिपोर्ट करना तो कुछ ज्यादा ही हो गया। आप उसके निवेदन को ठुकरा सकते थे। आप लिख सकते थे आई डोंट लव यू। आप उसे ब्लॉक कर सकते थे। आप उसे ऑफिस में चाय पर बुला कर समझा सकते थे। पर आपने भी उस ग़रीब को ना जाने क्यूँ एक अपराधी जैसा बना दिया और इधर उधर उसकी रिपोर्ट कर दी । बदनामी अलग।

 

     मुझे इसमें दो पहलू नज़र आते हैं पहला ये कि बेचारे इंस्पेक्टर ने यह बात अपने रिटायरमेंट वाले दिन कही। इससे लगता है कि आपके लिए उम्र की कोई सीमा रही होगी  उसने तो राज बब्बर को गाते सुना था "न उम्र की सीमा हो ..." और उसने देखा अनीता राज़ ने कुछ भी राज़ न रखा। लेकिन लगता है आपको उसकी उम्र अखर गई। उसकी नज़र से देखें। अब तक तो वो ऑफिस के, पुलिस के डिसिप्लिन से बंधा था। ऑफिस उस पर एक्शन ले लेता। वह सस्पेंड हो सकता था। नौकरी जा सकती थी। अतः उसने पहले अपनी पेंशन पक्की करी। भविष्य निधि आदि वसूल पाई फिर आर्थिक सुरक्षा चाक चौबन्द कर के सोच-समझ कर अपने प्रेम का इज़हार किया। उसे ऐसा क्या पता था कि आपको ये बात इतनी नागवार गुज़रेगी। आप उसके प्रेम निवेदन को स्नेह पूर्ण ढंग से अस्वीकार कर सकती थीं पर ये क्या उसकी धर-पकड़ करा दी। उसके दिल की बातों का  जवाब आपने दिमाग से दिया, अपने ओहदे का इस्तेमाल किया।

 

    दूसरी बात ये है कि फर्ज़ करो वह रिटायर होने वाली  इंस्पेक्टर आप होतीं और वह प्रेम दीवाना डिप्टी कलेक्टर होता तो भी आपका रिएक्शन यही होता ? तो भी आप साइबर सेल में जातीं ? समझो यदि आप उसे 'आई लव यू' कहतीं तो मुझे पक्का यकीन है  वह किसी साइबर सेल में नहीं जाता। या तो वह स्वीकार करता या फिर सविनय आपको ऊंच-नीच समझाता। आप तो सीधे-सीधे अपना ओहदा बीच में ले आए। प्यार में ये ओहदे-वोहदे कहाँ चलते हैं जी। ये तो दिल की बातें हैं। एक प्रेमी को प्रेम से समझाना था न कि कानून के डंडे से। प्रेम एक कोमल ललित भावना है उसे उसी तरह डील करना था न कि इस तरह से। आप तो उसके ऊपर एंटी-रोमियो स्क्वैड ही छोड़ दिये।

 

    अगले का तो प्रेम से विश्वास ही उठ जाएगा। उसकी दुनियां को देखने की नज़र ही बदल जाएगी। आपने उसकी पर्सनलिटी को नुकसान पहुंचाया है। क्या किसी के काॅम्पलीमेंट का जवाब इस तरह दिया जाता है। कोई आपको कहे "आज आप बहुत सुंदर लग रही हैं" या "ये साड़ी आप पर बहुत फब रही है" आप फ्लाइंग स्कवैड ही बुला लेंगी। उसने एक फर्स्ट क्लास बात कही, उसका जवाब थर्ड डिग्री में नहीं देना चाहिए। लोगों को कॉम्प्लिमेंट देने से पहले अब बहुत सोचना पड़ेगा। आप दिल के दरमियान दिमाग को ले आए। बात आई गई हो सकती थी। आपने तो उसे सबक सिखाने की ही ठान ली। अब बेचारे की ज़मीन-जायदाद न कुर्क कर लेना दिल तो आपने उसका पहले ही कुर्क कर लिया।

 

                          वी डोंट लव यू

व्यंग्य: दरोगा डांस

 

                           


 

 

             डांस की अनेकानेक फॉर्म्स होती हैं। एग्ज़ाम के दिनों में बहुत रटा करते थे कौन डांस किस राज्य का है। अब देखते हैं कि असली डांस तो ये वाले हैं जो तब सिलेबस में थे ही नहीं। मसलन नागिन डांस, लौंडा डांस आदि। इसी श्रंखला में लेटेस्ट है दरोगा डांस। ज़ाहिर है जैसे लौंडा डांस लड़के-लपाड़ी करते हैं उसी तरह दरोगा डांस दरोगा साब करते हैं। यूं रेंक कोई ‘हार्ड एंड फास्ट’ नहीं है।  प्लस माइनस एक आध रेंक कर लीजिये।  मगर मोटा मोटी ये डांस करना पुलिस ने ही है। यूं पुलिस बड़े से बड़े आरोपी से डांस करा सकती है। ये दुर्लभ क्षण होते हैं जब पुलिस खुद नृत्य मुद्रा में आ जाये। यह डर का पर्याय भी हो सकता है याद करिए तांडव डांस।

 

            हाल ही में एक सूबे में इस तरह के डांस देखने में आए हैं। देखिये वो एक कहावत है न कि “...नींद न जाने टूटी खाट प्रीत न जाने जात-कुजात“। तो बस जब नाच की झुरझुरी छा जाये तो क्या वर्दी,  क्या बिन वर्दी। जब घुग्घी छाई हो तो इतना टाइम नहीं होता कि आप वर्दी उतार कर स्टेज पर उतरें। झुरझुरी इतना टाइम देती ही नहीं। देखते-देखते दरोगा जी जा चढ़े स्टेज पर। स्टेज पर पहले से नृत्यरत नृत्यांगना खुद हैरान हो गई। उसने सोचा होगा  आज गए काम से। लेकिन दरोगा जी ने जो रफ्तार पकड़ी है, डांसर को उनसे ताल मिलना कठिन पड़ गया।

 

              हमारे देश में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। यह तो फैमिली प्रेशर रहा होगा कैरियर बनाने का जो बेचारे को पुलिस में भर्ती होना पड़ा। अब सभी तो ‘डांस इंडिया डांस’ या ‘इंडिया टेलेंट’ जैसे अन्य टी.वी. शो में जा नहीं सकते। यदि ये बतौर हॉबी है तो आप कुछ भी कहो है तो तारीफ के लायक काम। देखिये ! जब इंसान इस तरह की किसी ललित कला से संबन्धित हो तो उसका हृदय बहुत कोमल होता जाता है। वह जरूर सहृदय दरोगा जी होंगे।  मेरा कयास है। ये हरेक आदमी के बस का नहीं कि स्टेज पर चढ़ कमर मटकाने लग जाये। ना ही ये पहली बार होगा कि उनके पाँव थिरकने लगे। मैं तो कहूँगा यह बहुत बड़ा ‘स्ट्रैस-बस्टर’ है। सभी थानों-चौकी में डांस एक अनिवार्य अंग होना चाहिए। यह वर्जिश भी है और टेंशन दूर करने का एक अचूक उपाय भी। हमें उसे बढ़ावा देना चाहिए न कि इसका उपहास। लोग अपने सी.वी. में लिखा करेंगे मैं फलां-फलां डांस में पारंगत हूँ। इससे ख्याल आया हमें किसी भी पर्टिकुलर डांस की अपेक्षा नहीं करनी है। फ्री स्टाइल डांस का भी स्वागत है।

 

              हमने पुलिस, डॉ वकील, सैनिक की ये वाली सॉफ्ट साइड देखी ही नहीं है। इनकी वार्षिक प्रतियोगिता होनी चाहिए। फिर देखिये कैसे-कैसे किस किस कॉर्नर से प्रतिभाएँ निकल कर आएंगी। आप खिलाड़ी ढूँढने गाँव-खेड़े जाते हैं उसी तरह आप थाने-थाने, चौकी-चौकी जाकर प्रतिभाएं चिन्हित करें। इससे उनके व्यक्तित्व की सॉफ्ट साइड को प्रोत्साहन मिलेगा। जिसका प्रभाव उनकी कार्यशैली पर पड़ेगा। कल्पना करिए दरोगा जी आपके साथ ग़ज़ल गा रहे हैं इतनी मात्रा में और इतनी बार गा रहे हैं कि आप वाह वाह करते थक जाते हैं और सब कुछ क़बूल कर लेते हैं। अथवा हवलदार आपके साथ डांस कर रहा है और आपको भी डांस कराता है। थाने में तो बहुत पुलिस वाले होते हैं वे रिले डांस करेंगे आप अकेले। कब तक ताल से ताल मिला पाएंगे और अपना जुर्म स्वीकार कर लेंगे।

                                   कितना अहिंसक, मनोरंजक और सांकृतिक इंटेरोगेशन हुआ करेगा। फिर देर किस बात की है त त...था था…धिड़तम...धिड़तम...मेरा नाम है चमेली....मुन्नी बदनाम हुई...!!

व्यंग्य: दूसरी पत्नी ने तीसरी संग पकड़ा

 

                                                     


 


          कैसा कलियुग आ गया है। इंसान को कैसे भी, कहीं भी चैन नहीं। कुँवारा रहे तो दुनियाँ जीने नहीं देती। “शादी कब कर रहे हो ?”  पूछ-पूछ कर आपको त्रस्त कर देती है। आप इस सबसे बचने के लिए शादी कर लिए, सोचा शांति मिलेगी। मगर ये क्या ? आपकी ज़िंदगी में तो तूफान ही आ गया। अब आप पढ़े-लिखे हैं, आपने पढ़ा है कि कंपीटीशन से सेवा सुधरती है। अतः आपने इसका पालन किया और दूसरी शादी भी कर डाली। दूसरी को पता चल गया था कि आप कहें कुछ भी, आपका असली मक़सद क्या है। उसने आपकी नीयत में  खोट भाँप लिया। इधर आपके अंदर का जेम्स बॉन्ड बाहर आने को कुलांचे मारने लगा। आपने सोचा यार जहां दो हैं वहाँ तीन सही। हो सकता है आप कोई रिकॉर्ड बनाने निकले हों। या आप ‘आप पार्टी’ के फैन हों सो ‘ऑड और ईवन’ के चक्कर में आ गए हों। बहरहाल आपने दो पर फुलस्टॉप नहीं लगाया बल्कि कौमा लगाया।

 

         बीवियों के पास एक छठी इंद्री होती है। बोले तो गट-फीलिंग तो वाइफ नंबर टू को पता चल गया कि कुछ तो खिचड़ी पक रेली है। आपके रंग-ढंग ने ज़रूर उसके शक को पुख्ता किया होगा। आदमी अपना इश्क़ छुपा नहीं पाता। बिलकुल उसी तरह जैसे युवती अपना इश्क़ जता नहीं पाती। आपने महल फिल्म का आनंद बख्शी साब का गीत नहीं सुना “मैं तो  ये प्यार छुपा लूँगी...तुम कैसे दिल को संभालोगे...दिल क्या तुम तो दीवारों पर मेरी तस्वीर लगा लोगे”

 

         और लो जी लो एक दिन उसने आपको पूरे मनोयोग से तैयार होते देख लिया। वो समझ गई  दाल में कुछ काला है। जिस दिन का था इंतज़ार वो दिन आ गया है। दिन आ गया है कि पतिदेव का पानी उतार दिया जाये बोले तो दूध का दूध पानी का पानी। उसने हिम्मत नहीं हारी। पीछा किया। पति महोदय दूसरे निकटवर्ती शहर जाकर खातिरजमा हो गए कि वे अपनी दूसरी बीवी के चुंबकीय क्षेत्र से दूर बहुत दूर आ गए हैं। तीसरी बीवी के सपने जिसे दिखा रहे थे, दूसरी पत्नी ने उन्हे वहीं उसके साथ जा दबोचा। और जो उनकी छीछालेथन की। भाई साब की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई। वो उसे देख कर हक्के-बक्के रह गए। जैसे कोई दु:स्वप्न देख रहे हों या फिर स्वप्न से जग गए हों। बच्चू सारी सरपंचई भूल गए। सरपंच महोदय के पास सभी कुछ तो था एक ठौ कार भी थी। फण्ड्स भी रहे होंगे। रौब-दाब होगा ही। फुल-फुल स्वैग रहा होगा। पर अब सरपंच के सर पर ही आन पड़ी। सरपंच तीसरी बार सेहरा पहनने को सर तैयार ही करते रह गए। उधर तीसरी के ख्वाब लेने वाले का दूसरी ने चौथा ही कर डाला। वो भी दिन दहाड़े सड़क पर सबके सामने। बेचारे भागते ही बने।

 

              इससे हमें क्या शिक्षा मिलती है ? इससे हमें शिक्षा मिलती  है कि सरपंच की बीवी कभी न बनना। सरपंच में जो पंच है उसका अर्थ वो पाँच निकाल सकता है। सरपंच का सर कब फिर जाये, कौन जाने ? दूसरे जब आप उसकी दूसरी बीवी बन रही हैं तो इस बात की क्या गारंटी है कि उसका सर तीसरी के लिए फिर ना फिर जाएगा। आपके सामने बॉलीवुड के तमाम उदाहरण मौजूद हैं। अतः रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पीव, देख दूसरी-तीसरी मत ललचाये जीव।

 

        मत भूलो कि एक है तो नेक है। एक है तो सेफ है।

Tuesday, November 19, 2024

व्यंग्य: कीड़ा या जीरा

 

                     


 

            जब ट्रेन में यात्री को सांभर में कीड़े मिले तो उसने तुरंत केटरिंग स्टाफ को बुलाया और शिकायत करनी चाही तो केटरिंग स्टाफ ने उस यात्री को समझाया “ये कीड़े नहीं बल्कि जीरा है”। अब यात्री परेशान कि यह है क्या ? उसने स्कूल में पढ़ी पूरी बाॅटनी-ज़ूलाॅजी रिवाइज कर डाली। उसका मन नहीं माना। उसने कहा ये तो साफ-साफ कीड़े की टांगें हैं और आप हैं कि इन्हें जीरा बताने पर तुले हैं। तब स्टाफ ने समझाया “ये चाइनीज़ जीरा है ये लगता ऐसे ही है जैसे कि कीड़े की टांगें हों”।

 

              यात्री नहीं माना उसने वीडियो बनाना शुरू कर दिया इस पर स्टाफ ने ऐतराज़ जताया और यात्री को डांटा “रेल में, रेल परिसर में वीडियो बनाना कानूनी जुर्म है” तब तक वह वीडियो बना कर इधर-उधर सोशल मीडिया पर भेजना शुरू कर दिया। तिस पर केटरिंग स्टाफ ने उस यात्री को नई प्लेट देनी चाही पर यात्री ने मना कर दिया।  इस पर केटरिंग स्टाफ ने उन्हें कुछ पैसे भी देने चाहे मगर यात्री ने लेने से इन्कार कर दिया और ये बात भी लिख मारी।

 

            देखिये ! ये लंबी लंबी यात्राओं में ऐसे छोटे-छोटे कीड़े निकलते रहते हैं सेनोरिटा ! इससे दिल छोटा नहीं करते। अब ये किसका कसूर है कि जीरा, जो है सो, कीड़े की टांगों सा दिखता है। ऐ सनम ! जिसने तुझे चाँद सी सूरत दी है उसी मालिक ने मुझे भी तो मुहब्बत दी है। मैं तो कहता हूँ कि केटरिंग वालों को मेन्यू के साथ ही यह लिख देना चाहिए कि हमारा जीरा कीड़े की टांगों सा दिख सकता है। उसका नोटिस न लें, घबराएँ नहीं। इसी प्रकार अन्य खाद्य सामग्री के बारे में लिखा जा सकता है ये कानखजूरा नहीं बल्कि बड़ी इलायची खुल गई है। यह छिपकली नहीं हमारी नई डिश है जिसमें मंचुरियन इस तरह मिक्स किया गया है कि वो छिपकली सा दिखे। ये गरम मसाला है न कि मछली के अंडे, ये कॉकरोच नहीं बल्कि एक नए चाइनीज़ मसाले का बनाया हुआ ‘एड ऑन’ है। जैसे अपने देसी खाने में तेज पत्ता डालते हैं। आप इसको भी तेज पत्ते की तरह निकाल कर फेंक सकते हैं। हरकत नहीं। हमारी डिश का आनंद लें।

 

               यूं किसी जमाने में ट्रेन का खाना बहुत लज़ीज़ होता था, किसी-किसी ट्रेन का खाना तो इतना लोकप्रिय होता था कि भोजन ही मशहूर हो जाता था। जैसे किसी-किसी राजधानी का भोजन, किसी-किसी शताब्दी का भोजन, ताज एक्स्प्रेस का खाना। यहाँ तक कि किसी भी प्लेटफॉर्म से रेहड़ी की पूड़ी-भाजी, कचौड़ी-समोसा आदि भी स्वादिष्ट हो गए थे। फिर इस फील्ड में बड़े बड़े नाम उतर आए और उस लॉबी ने शुरू किया --- हाइजीन का भूत। हेल्दी फूड का जिन्न। सारे के सारे ठेले वाले न जाने कहाँ गुम हो गए। मोनोपली आ गई। “जैसा है ! ये ही है।“ “खाना है तो खाओ दूसरा बनाएंगे नहीं ! नखरे किसी के उठाएंगे नहीं”। आप हद से हद क्या करेंगे ?  शिकायत पुस्तिका में लिखेंगे ? आपको क्या पता ये शिकायत पुस्तिका असली है या डुप्लीकेट ? बोले तो केटरर की है। अब वो केटरर ने इतनी ‘नज़र और इनायत’ के बाद ये ठेका हासिल किया है वो इसलिए नहीं कि उसकी ‘माई एम्बीशन इन लाइफ’ आपको भोजन खिलाने की थी या उसके बचपन का कोई सपना था कि वह आपको स्वादिष्ट शुद्ध भोजन खिलाये। वह अपने लिए चार पैसे कमाने को आया है। उसके शब्दकोश में प्रॉफ़िट कोई ‘ड़र्टी वर्ड’ नहीं बल्कि ‘साॅट-आफ्टर’ चीज़ है और जितना अधिक प्रॉफ़िट उतना बेहतर।

 

        मुझे यात्रियों से शिकायत है वे क्यों नहीं पहले की तरह घर से ही भोजन करके चलते या फिर अपना टिफिन बॉक्स लेकर चलते। सुराही तो अब भी मिलती है। शीतल शुद्ध जल पीने को सुलभ था। और तो और आप प्लेटफॉर्म की साग-पूड़ी भी निर्भीक हो कर खा सकते थे। ग़लती आपकी है आप बाहर खाने के चक्कर में और बड़े-बड़े ब्रांड के चक्कर में आ गए हैं। अतः जो आप डिजर्व करते हैं वो आपको मिल रहा है। शिकायत कैसी ? भाई ये कीड़ा ही है जिसे आपको जीरा बता कर खिलाया जा रहा है।

 

                                कीड़ा तो झांकी है-पूरा ज़ू बाकी है!