डांस की अनेकानेक फॉर्म्स होती हैं।
एग्ज़ाम के दिनों में बहुत रटा करते थे कौन डांस किस राज्य का है। अब देखते हैं कि
असली डांस तो ये वाले हैं जो तब सिलेबस में थे ही नहीं। मसलन नागिन डांस, लौंडा डांस आदि। इसी
श्रंखला में लेटेस्ट है दरोगा डांस। ज़ाहिर है जैसे लौंडा डांस लड़के-लपाड़ी करते हैं
उसी तरह दरोगा डांस दरोगा साब करते हैं। यूं रेंक कोई ‘हार्ड एंड फास्ट’ नहीं
है। प्लस माइनस एक आध रेंक कर लीजिये। मगर मोटा मोटी ये डांस करना पुलिस ने ही है।
यूं पुलिस बड़े से बड़े आरोपी से डांस करा सकती है। ये दुर्लभ क्षण होते हैं जब
पुलिस खुद नृत्य मुद्रा में आ जाये। यह डर का पर्याय भी हो सकता है याद करिए तांडव
डांस।
हाल ही में एक सूबे में इस तरह के
डांस देखने में आए हैं। देखिये वो एक कहावत है न कि “...नींद न जाने टूटी खाट
प्रीत न जाने जात-कुजात“। तो बस जब नाच की झुरझुरी छा जाये तो क्या वर्दी, क्या बिन वर्दी। जब घुग्घी छाई हो तो इतना टाइम नहीं होता कि आप वर्दी उतार कर
स्टेज पर उतरें। झुरझुरी इतना टाइम देती ही नहीं। देखते-देखते दरोगा जी जा चढ़े
स्टेज पर। स्टेज पर पहले से नृत्यरत नृत्यांगना खुद हैरान हो गई। उसने सोचा होगा आज गए काम से। लेकिन दरोगा जी ने जो रफ्तार
पकड़ी है, डांसर को उनसे ताल मिलना कठिन पड़ गया।
हमारे देश में प्रतिभा की कोई कमी
नहीं है। यह तो फैमिली प्रेशर रहा होगा कैरियर बनाने का जो बेचारे को पुलिस में
भर्ती होना पड़ा। अब सभी तो ‘डांस इंडिया डांस’ या ‘इंडिया टेलेंट’ जैसे अन्य
टी.वी. शो में जा नहीं सकते। यदि ये बतौर हॉबी है तो आप कुछ भी कहो है तो तारीफ के
लायक काम। देखिये ! जब इंसान इस तरह की किसी ललित कला से संबन्धित हो तो उसका हृदय
बहुत कोमल होता जाता है। वह जरूर सहृदय दरोगा जी होंगे। मेरा कयास है। ये हरेक आदमी के बस का नहीं कि
स्टेज पर चढ़ कमर मटकाने लग जाये। ना ही ये पहली बार होगा कि उनके पाँव थिरकने लगे।
मैं तो कहूँगा यह बहुत बड़ा ‘स्ट्रैस-बस्टर’ है। सभी थानों-चौकी में डांस एक
अनिवार्य अंग होना चाहिए। यह वर्जिश भी है और टेंशन दूर करने का एक अचूक उपाय भी।
हमें उसे बढ़ावा देना चाहिए न कि इसका उपहास। लोग अपने सी.वी. में लिखा करेंगे मैं
फलां-फलां डांस में पारंगत हूँ। इससे ख्याल आया हमें किसी भी पर्टिकुलर डांस की
अपेक्षा नहीं करनी है। फ्री स्टाइल डांस का भी स्वागत है।
हमने पुलिस, डॉ वकील, सैनिक की ये वाली
सॉफ्ट साइड देखी ही नहीं है। इनकी वार्षिक प्रतियोगिता होनी चाहिए। फिर देखिये
कैसे-कैसे किस किस कॉर्नर से प्रतिभाएँ निकल कर आएंगी। आप खिलाड़ी ढूँढने गाँव-खेड़े
जाते हैं उसी तरह आप थाने-थाने, चौकी-चौकी जाकर प्रतिभाएं चिन्हित करें। इससे उनके व्यक्तित्व की सॉफ्ट साइड
को प्रोत्साहन मिलेगा। जिसका प्रभाव उनकी कार्यशैली पर पड़ेगा। कल्पना करिए दरोगा
जी आपके साथ ग़ज़ल गा रहे हैं इतनी मात्रा में और इतनी बार गा रहे हैं कि आप वाह वाह
करते थक जाते हैं और सब कुछ क़बूल कर लेते हैं। अथवा हवलदार आपके साथ डांस कर रहा
है और आपको भी डांस कराता है। थाने में तो बहुत पुलिस वाले होते हैं वे रिले डांस
करेंगे आप अकेले। कब तक ताल से ताल मिला पाएंगे और अपना जुर्म स्वीकार कर लेंगे।
कितना अहिंसक, मनोरंजक और सांकृतिक
इंटेरोगेशन हुआ करेगा। फिर देर किस बात की है त त...था था…धिड़तम...धिड़तम...मेरा
नाम है चमेली....मुन्नी बदनाम हुई...!!
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