Ravi ki duniya

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Tuesday, November 19, 2024

व्यंग्य: कीड़ा या जीरा

 

                     


 

            जब ट्रेन में यात्री को सांभर में कीड़े मिले तो उसने तुरंत केटरिंग स्टाफ को बुलाया और शिकायत करनी चाही तो केटरिंग स्टाफ ने उस यात्री को समझाया “ये कीड़े नहीं बल्कि जीरा है”। अब यात्री परेशान कि यह है क्या ? उसने स्कूल में पढ़ी पूरी बाॅटनी-ज़ूलाॅजी रिवाइज कर डाली। उसका मन नहीं माना। उसने कहा ये तो साफ-साफ कीड़े की टांगें हैं और आप हैं कि इन्हें जीरा बताने पर तुले हैं। तब स्टाफ ने समझाया “ये चाइनीज़ जीरा है ये लगता ऐसे ही है जैसे कि कीड़े की टांगें हों”।

 

              यात्री नहीं माना उसने वीडियो बनाना शुरू कर दिया इस पर स्टाफ ने ऐतराज़ जताया और यात्री को डांटा “रेल में, रेल परिसर में वीडियो बनाना कानूनी जुर्म है” तब तक वह वीडियो बना कर इधर-उधर सोशल मीडिया पर भेजना शुरू कर दिया। तिस पर केटरिंग स्टाफ ने उस यात्री को नई प्लेट देनी चाही पर यात्री ने मना कर दिया।  इस पर केटरिंग स्टाफ ने उन्हें कुछ पैसे भी देने चाहे मगर यात्री ने लेने से इन्कार कर दिया और ये बात भी लिख मारी।

 

            देखिये ! ये लंबी लंबी यात्राओं में ऐसे छोटे-छोटे कीड़े निकलते रहते हैं सेनोरिटा ! इससे दिल छोटा नहीं करते। अब ये किसका कसूर है कि जीरा, जो है सो, कीड़े की टांगों सा दिखता है। ऐ सनम ! जिसने तुझे चाँद सी सूरत दी है उसी मालिक ने मुझे भी तो मुहब्बत दी है। मैं तो कहता हूँ कि केटरिंग वालों को मेन्यू के साथ ही यह लिख देना चाहिए कि हमारा जीरा कीड़े की टांगों सा दिख सकता है। उसका नोटिस न लें, घबराएँ नहीं। इसी प्रकार अन्य खाद्य सामग्री के बारे में लिखा जा सकता है ये कानखजूरा नहीं बल्कि बड़ी इलायची खुल गई है। यह छिपकली नहीं हमारी नई डिश है जिसमें मंचुरियन इस तरह मिक्स किया गया है कि वो छिपकली सा दिखे। ये गरम मसाला है न कि मछली के अंडे, ये कॉकरोच नहीं बल्कि एक नए चाइनीज़ मसाले का बनाया हुआ ‘एड ऑन’ है। जैसे अपने देसी खाने में तेज पत्ता डालते हैं। आप इसको भी तेज पत्ते की तरह निकाल कर फेंक सकते हैं। हरकत नहीं। हमारी डिश का आनंद लें।

 

               यूं किसी जमाने में ट्रेन का खाना बहुत लज़ीज़ होता था, किसी-किसी ट्रेन का खाना तो इतना लोकप्रिय होता था कि भोजन ही मशहूर हो जाता था। जैसे किसी-किसी राजधानी का भोजन, किसी-किसी शताब्दी का भोजन, ताज एक्स्प्रेस का खाना। यहाँ तक कि किसी भी प्लेटफॉर्म से रेहड़ी की पूड़ी-भाजी, कचौड़ी-समोसा आदि भी स्वादिष्ट हो गए थे। फिर इस फील्ड में बड़े बड़े नाम उतर आए और उस लॉबी ने शुरू किया --- हाइजीन का भूत। हेल्दी फूड का जिन्न। सारे के सारे ठेले वाले न जाने कहाँ गुम हो गए। मोनोपली आ गई। “जैसा है ! ये ही है।“ “खाना है तो खाओ दूसरा बनाएंगे नहीं ! नखरे किसी के उठाएंगे नहीं”। आप हद से हद क्या करेंगे ?  शिकायत पुस्तिका में लिखेंगे ? आपको क्या पता ये शिकायत पुस्तिका असली है या डुप्लीकेट ? बोले तो केटरर की है। अब वो केटरर ने इतनी ‘नज़र और इनायत’ के बाद ये ठेका हासिल किया है वो इसलिए नहीं कि उसकी ‘माई एम्बीशन इन लाइफ’ आपको भोजन खिलाने की थी या उसके बचपन का कोई सपना था कि वह आपको स्वादिष्ट शुद्ध भोजन खिलाये। वह अपने लिए चार पैसे कमाने को आया है। उसके शब्दकोश में प्रॉफ़िट कोई ‘ड़र्टी वर्ड’ नहीं बल्कि ‘साॅट-आफ्टर’ चीज़ है और जितना अधिक प्रॉफ़िट उतना बेहतर।

 

        मुझे यात्रियों से शिकायत है वे क्यों नहीं पहले की तरह घर से ही भोजन करके चलते या फिर अपना टिफिन बॉक्स लेकर चलते। सुराही तो अब भी मिलती है। शीतल शुद्ध जल पीने को सुलभ था। और तो और आप प्लेटफॉर्म की साग-पूड़ी भी निर्भीक हो कर खा सकते थे। ग़लती आपकी है आप बाहर खाने के चक्कर में और बड़े-बड़े ब्रांड के चक्कर में आ गए हैं। अतः जो आप डिजर्व करते हैं वो आपको मिल रहा है। शिकायत कैसी ? भाई ये कीड़ा ही है जिसे आपको जीरा बता कर खिलाया जा रहा है।

 

                                कीड़ा तो झांकी है-पूरा ज़ू बाकी है!

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