बेरोज़गारी की ‘हाइट’ क्या हो सकती है। राजस्थान से खबर
है कि बेरोजगार युवा बकरियाँ चरा रहे हैं। लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं। अलबत्ता
इसे आप दूसरी नज़र से देखें। इससे बकरियों की कितनी एजुकेटिड परवरिश हो रही है। सोचिए
! जगह-जगह बकरियाँ कितनी ज़हीन और मैनर्स वाली होंगी। लोगों में खासकर युवा वर्ग
में असंतोष इस बात का है कि रोजगार उनकी एजुकेशन के अनुरूप नहीं मिल रहा है। ये
बकरियाँ चराने का काम तो वो बिना पढे-लिखे भी कर सकते थे।
यही परेशानी का सबब है कि लोग एजुकेशन की
वैल्यू नहीं जान रहे हैं, जान रहे हैं तो
समझ नहीं रहे हैं। उनको नहीं पता मैनेजमेंट संस्थान में लोग-बाग इस विषय पर एम.बी.ए.
कर रहे हैं। ये महज़ बी.ए. करके इस काम को करने से दुखी हैं। ये तो शुकर है कि उनके
गाँव में बकरियाँ हैं जिससे उनको कुछ काम तो मिला, सोचिए जहां युवाओं ने बी.ए. कर लिया है और उनके गाँव में बकरियाँ भी नहीं
हैं। इससे युवाओं के अपने चारे बोले तो अपने खाने के वांदे हो गए हैं।
इस सूरते हाल को देखते हुए क्यों न बी.ए. में ये विषय लगाए जाएँ
यथा बी.ए. इन बकरी चराना, एम.ए. इन मवेशी दुहना। आगे और
गहराई में जाने के लिए एम.फिल. और पी.एच.डी. के कोर्स चालू किए जाएँगे। इससे आप
देखिये एनवॉयरमेंट को कितना बल मिलेगा। कितनी साफ-सुथरी हो जाएगी। अगर आपका वातावरण
शुद्ध है, तो आप शुद्ध हैं। इसका आपकी सोच पर आपके संस्कारों पर बहुत पॉज़िटिव असर पड़ता
है। बकरियाँ चराना, गाय-भैंस को सानी देना इतना आसान भी नहीं है। यह एक स्किल है। जिसे बाकी स्किलों की
तरह सीखना पड़ता है। जो लोग मवेशी पालते हैं उन्हें उनकी भाषा आती है। वे जानते हैं कि कब कौन सी गाय बीमार है और उसे
क्या बीमारी है। वो इन्सानों की तरह भागे-भागे डॉक्टर के पास नहीं चले जाते। मेरा
पालतू कुत्ता भी ज्यादा खा ले या उसका पेट खराब हो तो वह घास खाने लगता है। हम समझ
जाते हैं और उसके खाने का ख्याल करने लगते हैं।
आप बी.ए. करके ऑफिस में भी कोई बकरी
चराने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम नहीं करते। बल्कि वहाँ तो आप कुत्ता-घसीटी करते
हैं। वहाँ आप सिवाय कागज काले करने, फाइल पर केस ‘डिले’ करने, रिश्वत खाने और “बाबू, बड़े बाबू, साहब” कहलाने के अलावा करना क्या
है। ये वाईट-कॉलर नौकरियों ने हाथ से काम करने वालों को कमतर कर दिया है। जबकि उनका
काम समाज में सबसे ऊपर था। ये जो दफ्तर में काम करने की छटपटाहट है इसके पीछे क्या
कारण हो सकता है? हमारी एजुकेशन पॉलिसी ? दफ्तर वालों को आदर की दृष्टि से देखने की हमारी आदत।
या फिर बस सारा खेल दान-दहेज का है। बहरहाल ! यह बकरी चराना इतना हेय क्यूँ हो गया
? यह हेय हुआ क्योंकि वह शख्स बी.ए.
करते हुए तमाम वक़्त दफ्तर में काम करने,
पेंट कमीज टाई पहनने के सपने लेता रहा और ये क्या ? मूषक...मूषक पुनः की तर्ज़ पर आप तो वही बानियान-पाजामे पर जा टिके। गाय-भैंस-बकरी
चराना रिस्पेक्टेबल काम है उसे सम्मान से दृष्टि से देखा जाना चाहिए। बेरोजगारी से
बकरी भली। बकरी चुराने से बकरी चराना भला। जहां तक बेरोजगारी खत्म करने का यक्ष
सवाल है, इस टॉपिक से तो अभी न जाने कितने
चुनाव और जीतने बाकी हैं इस मुल्क में।
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