डॉ. भीमराव
अंबेडकर, अपने लाखों
अनुयायियों के लिए ‘बाबा साहब’, सामाजिक-राजनीतिक क्षितिज पर एक ऐसे समय में
आए थे, जब सामान्यतः समाज
और देश को और विशेष रूप से दलितों को उनकी सबसे अधिक आवश्यकता थी। यह वह समय था जब
एक नया राष्ट्र अपनी भ्रूण अवस्था में था। दलितों के साथ दैनिक जीवन मेँ रूटीन में
होने वाले अत्याचार और भेदभाव से उत्पन्न दुखों का निवारण एक ऐसा क्षेत्र था जिसके
लिए उन्होंने संघर्ष करने का मार्ग चुना। वजह हमारी तलाश से दूर नहीं, वे खुद तमाम मुश्किलों
को झेलते हुए बड़े हुए थे । वे मूक साक्षी बने नहीं रह सकते थे, वे उन सभी अपमानों से खुद गुजरे थे जिन पर उन्हें कदम-कदम पर
बेइज़्ज़त होना पड़ा था और वह तब भी जारी रहा जब उन्होने शिक्षा के सर्वोच मापदंडो को अपनी अथक मेहनत से प्राप्त किया था। उनके और उस युग
के लगभग सभी नेताओं के बीच मुख्य अंतर यही था, स्वतंत्रता संग्राम के ज़्यादातर नेता संपन्न कुलक वर्ग से आते
थे। अगर उस ज़माने का कोई एक ऐसा नेता था जिसे 'सेल्फ मेड' कहा जा सकता था तो वह वे बाबासाब ही थे। जब दलितों के
उत्थान की बात आई तो उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा और उग्र जुनून के साथ अपना
रास्ता चुन लिया। उनके लिए राजनैतिक शक्ति असहाय जनता
के उत्थान में मदद करने का एक साधन मात्र थी, जिसका वे प्रतिनिधित्व करते थे, जबकि दूसरों के लिए शक्ति
एक ‘फाइनल ट्रॉफी’ की तरह थी और
दलित आंदोलन केवल उस शक्ति को हथियाने का एक सुविधाजनक बहाना या रास्ता था। अफसोस
यह खेल कमोबेश सभी राजनैतिक दलों मे आज भी जारी है
कोई आश्चर्य नहीं
कि 1956 मेँ उनके निधन के बाद दलित आंदोलन को गहरा झटका लगा। उनसे कमान संभालने
वाला कोई अखिल भारतीय स्तर का बड़ा नेता राजनैतिक पटल पर था ही नहीं। हमारे पास
कौन बचा था ? जो थे वे सीमित ऊर्जा, संकुचित विज़न और निस:प्रभावी और
क्षेत्रीय थे। यह ‘वैक्यूम’ अचानक नहीं बना था। वास्तव में, बाबासाब की स्थापित
रिपब्लिकन पार्टी दूसरी संसद में सर्वाधिक दस सदस्यों को भेज पाने मेँ समर्थ/ सफल रही थी।
बुर्जुआ वर्ग के पास सभी साधन थे जिससे वे लंबी दूरी के लक्ष्य रख सकते थे। वे 'सहानुभूति रखने' का ड्रामा बड़े ही लाव-लश्कर
के साथ खेल सकते थे। वे आवश्यक साधन और धैर्य दोनों से लैस थे। दोनों मिलकर दलित
आंदोलन की रीढ़ तोड़ सकते थे। साठ के दशक में दलित नेताओं को समझ आ गया कि सत्ता बहुत जरूरी है यदि आंदोलन को कहीं ठोस जगह
पहुंचाना है। अतः सत्ता के साथ बेरोकटोक गल-बहियाँ और मेल-जोल देखा गया। यद्यपि तब के देश के शीर्ष नेतृत्व ने दलित
आंदोलन और दलित नताओं खासकर जो सुर में सुर
नही मिलाते थे उनका आकार और कद दोनों में कमी
की। बंगाल में जोगिंदरनाथ मंडल थे तो बिहार में बाबू जगजीवन राम जिन्हे कांग्रेस सत्तर के दशक के
अंत में उनके सी. एफ. डी. (कांग्रेस फॉर
डेमोक्रेसी) बनाने के लिए अलग होने तक शो केस में प्रदर्शित करती रही। यद्यपि वे
एक कुशाग्र प्रशासक और विलक्षण प्रतिभावान नेता थे। हमारे पास दक्षिण में पेरियार
के बाद राय बहादुर एन. शिवराज थे, जो अपने अनुयायियों के बीच 'डैडी' के नाम से लोकप्रिय थे
लेकिन अफसोस! वह भी लंबे समय तक न रहे। उनका
प्रभाव क्षेत्र दक्षिण तक सीमित था। उत्तर भारत में प्रोफेसर बी.पी. मौर्य एक भावुक वक्ता और
दलित हितों के प्रखर चैंपियन के रूप में उभरे। अफसोस की बात है कि तत्कालीन सत्ता के
साथ उनके घनिष्ठ मेल-जोल ने उन्हें सरकार में मंत्री पद तो दिला दिया पर यही उनके
राजनैतिक जीवन का दुखद अंत था और वे एक तरह से अज्ञातवास में चले गए और फिर प्रकट हुए भी तो बी.जे.पी के कारिंदे के तौर पर जहां उनके एक लेफ्टिनेंट
संघ प्रिय गौतम पहले ही अलग-थलग ‘यूज़ एंड थ्रो’ नीति के तहत गुमनामी में जी रहे थे।
तभी दलित पैंथर्स महाराष्ट्र की सरजमीं से एक बड़े धूमकेतु
की तरह उठ खड़ा हुआ था। गरीब असहाय जनता की ढेर सारी उम्मीदें और अपेक्षाएं लेकर।
आंदोलन को आगे ले जाने के लिए उनके पास बौद्धिक समर्थन के साथ-साथ एक मजबूत और
अनुशासित 'बॉडी' भी थी। परंतु यह बहुत समय
तक नाही टिक सका और देखते-देखते बिना कुछ करिश्मा या सार्थक किए फुस्स हो गया। कोई
भी दलित आन्दोलन जब तक सरकारी समर्थन की बैसाखियों पर टिका रहता है, तब तक सामान्य रूप से
गरीब जनता के लिए कुछ भी सार्थक दावा नहीं कर सकता। दलित नेतृत्व को देर-सबेर यह
महसूस करना होगा कि धारा के अनुकूल तैरने से उन्हें व्यक्तिगत पहचान तो मिल सकती
है, लेकिन नहीं मिल
सकता है तो वह है जनाधार, लोकप्रियता और ‘अपने लोगों' के लिए कुछ भी सार्थक कर पाने की आज़ादी।
दलित आंदोलन की सबसे बुरी गत महाराष्ट्र में हुई वह महाराष्ट्र जहां इसकी
जड़ें थीं। भक्ति आंदोलन के उदय और उसके बाद से दलित उत्थान का उद्गम स्थल होने का
दम भरने वाली भूमि में अचानक नेताओं की
कमी हो गई। अब तक उपेक्षित समाज में नवजागरण लाने के उदात्त कार्य के लिए
प्रतिबद्ध और अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की मंडली
दुनिया में सबसे अच्छा उदाहरण थी कि कैसे एक आंदोलन को विभिन्न रूपों में जनता के
लिए जनता को साथ लेकर आगे बढ़ाया जाता है, चाहे वह रंगमंच हो महाराष्ट्र की तमाशा शैली में नाटक, मंदिर में प्रवेश, तालाब से पानी लेना या अन्य बौद्धिक विचार विमर्श। महाराष्ट्र में, भैय्या साहब यशवंत राव अम्बेडकर, (बाबासाब के इकलौते सुपुत्र) इस अवसर का सदुपयोग करने और जनता को
नेतृत्व देने में विफल रहे। उनके पास कोई दीर्घकालीन अजेंडा नही था। कार्यक्रम नहीं
था। तब तक सत्ता पहले ही आंदोलन को दबोच चुकी थी। काबू कर चुकी थी। हमारे पास नासिक
के कर्मवीर दादासाहब बी. के. गायकवाड़ एकमात्र मशाल वाहक थे लेकिन उन्हें भी लोकसभा या
राज्यसभा में प्रवेश के लिए कांग्रेस के
समर्थन की आवश्यकता थी। अन्य सभी ‘दलित नेतागण’ राष्ट्रीय नेतृत्व की गिनती में ही नहीं थे, चाहे वह बी सी कांबले हों। बैरिस्टर बी.डी. खोब्रागड़े, अन्ना साहब पाटिल या
आर.एस. गवई। उनकी दूर दृष्टि यदि कोई थी भी तो बहुत सीमित थी और वे छोटी-मोटी उपलब्धि से खुश हो जाने वाले थे और अक्सर जो
मिल जाये उसी में खुशी पाते थे।
स्वतंत्रता आंदोलन के युग की यह पीढ़ी जो आज़ादी के महान
आंदोलन से प्रेरित थी और भारत की आज़ादी मे शामिल थी जब एक बार फीकी पडने लगी तो , हम उन ‘स्वयंभू’ नेताओं के साथ रह गए जो खुद ही 'नेतृत्व' की खोज कर रहे थे और कैसे
भी सत्ता की ‘गुड बुक्स’ में आना और रहना चाहते थे मंत्रिपरिषद की एक अदद
सीट मिल जाये इतना सा अरमान था। हमारे पास बहुत सारे 'युवा' नेता थे जो स्थानीय
निकायों की सदस्यता/अध्यक्षता के रूप में बहुत अल्प की अभिलाषा रखते थे। उनके लिए
यह ‘स्वयं’ की सेवा, मान्यता और धन प्राप्ति का एक आसान माध्यम मात्र था।
कैरियर राजनयिकों की तरह,
हमारे पास कैरियर
राजनेताओं की एक छुटभैया नई नस्ल थी, किसी भी आंदोलन के लिए यह बुरी स्थिति है। ऐसे ही यह, दलित आंदोलन के लिए खराब साबित हुई। रामविलास पासवान, कभी सबसे अधिक मार्जिन के साथ लोकसभा चुनाव
जीतने के लिए गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में प्रवेश पाने वाले नेता थे , एक के बाद एक सरकार में मंत्री पद के लिए होड़ ने उनकी लीडरशिप क्षीण कर दी।
अब तक दलित नेता वास्तव में एक प्रकार से 'धर्मनिरपेक्ष' हो गए थे, उन्हें किसी भी समूह या
राजनीतिक दल के साथ रहने में न कोई झिझक थी, न शर्म और न पछतावा
ही था। उनकी प्राथमिकता स्पष्ट थी, लायिलिटी संदिग्ध थी और विचारधारा मृतप्राय: थी। दलित
आंदोलन अपने रसातल पर पहुँच चुका था।
प्रकृति को
वैक्यूम पसंद नहीं। धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से, स्वर्गीय श्री
कांशी राम, हालांकि थे पंजाब
से लेकिन महाराष्ट्र उनकी 'कर्मभूमि' थी और वहीं से निकले डीएस-4, बामसेफ और अंत में बसपा के माध्यम से अपने मिशन में लगन से व्यस्त
थे। बसपा की अपनी ताकत और कमज़ोरियाँ थीं लेकिन एक बात नेतृत्व शुरू से ही जानता था
यदि अपना नाम और जलवा कायम रखना है तो हमेशा धारा के विपरीत तैरना होगा। आंदोलन को अस्थायी और और किसी पद-लालसा की अदला-बदली
के रूप में थाली में नहीं सौंपा जा सकता था। जब भी गठबंधन का समय आता था, वह बसपा की शर्तों पर
होता। और जैसी कि कहावत है बसपा ने एक इतिहास बनाया। बसपा के समय दलित आन्दोलन अपने
चरम पर पहुँच चुका था।
बैंकों, रेलवे और अन्य पी. एस. यू. के एस. सी. / एस. टी. कर्मचारी संघों के युवा कंधों पर धीरे-धीरे लेकिन निश्चित
रूप से नेविगेट करने की एक बड़ी और ऐतिहासिक जिम्मेदारी है। हालांकि विनिवेश और
विलय के कारण हाल के दिनों में इसमें भारी गिरावट आई है। यह छोटे-छोटे समूह बिग-ब्रदर--बिग-ब्रदर खेल में छोटे-बड़े राजनेताओं के एक
निवाले/चारे के रूप में अधिक हो गए हैं।
दलित
नेतृत्व को यह बात समझनी होगी और अच्छी तरह गांठ बांधनी होगी कि आप जब-जब धारा के
साथ तैरते हैं तो आप महज़ पद लोलुपता के लिए
अपनी विश्वसनीयता खो देते हैं और उसके खोते ही अपनी ‘पहचान’ खो देते हैं। धारा के विरुद्ध तैरना होगा; अपने कार्ड्स को एक कुशल
मंजे हुए खिलाड़ी की तरह से खेलना होगा, तभी आप दलित पुनरुत्थान के इतिहास में अपनी कोई छाप छोड़ पाएंगे।
लेकिन इसके लिए आपको दृढ़ इच्छाशक्ति, मजबूत रणनीति और सबल दूर-दृष्टि की जरूरत है और
इसकी शुरुआत होती है बाबा साब के कालजयी नारे से 'शिक्षित बनो...संगठित बनो...आंदोलन करो’
लेखक भैया साब यशवंत राव अंबेडकर के साथ उनके निवास राजगृह दादर मे (1974)
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