Ravi ki duniya

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Friday, March 1, 2024

व्यंग्य: रतन ले लो भारत रतन

 


      एक वक़्त था जब पद्मश्री को भी बहुत ही मान सम्मान से देखा जाता था। सामान्यतः यह तभी मिलता था जब यह भली-भांति स्थापित हो जाता था कि अमुक व्यक्ति ने किसी नोबल-कॉज़ के लिए अपनी ज़िंदगी खपा दी है। बुढ़ापे में आकर पर्याप्त रूप से सीनियर होने पर ही समाज और देश को दी गईं अपनी सेवाओं को देखते हुए पद्मश्री दी जाती थी। इस को कभी भी संदेह या विनोद से नहीं देखा जाता था। हल्की टिप्पणी करना तो दूर की बात है।

 

      फिर एक दौर ऐसा आया कि लोग-बाग ढूँढे जाने लगे। ट्रंक में से झाड़-पोंछ कर निकाले जाते। दूसरे शब्दों में ये मरणोपरांत दिये जाने लगे। धीरे धीरे लोगों को यकीन हो चला कि जब तलक ज़िंदा हैं तब तक तो ये मिलना नहीं हैं।

 

    फिर वो युग भी आया जब कहा जाने लगा कि देखो हमने एक धूल में पड़े हीरे को ढूंढ निकाला है। जो पिछली सरकारों की लापरवाही से धूल खा रहे थे। हमने उन्हें राष्ट्रीय पहचान दी। अथवा हमने पिछड़े वर्ग के प्रकांड विद्वान को उसका ड्यू दिलाया है।

 

    फिर काम के आदमियों को ये दिया जाने लगा। वो जो काम में माहिर हों। जुगाड़ू हों। वोट दिला सकें। वोटर्स को प्रभावित कर सकें। जो कभी काम आए थे या फिर वो जो काम आ सकें, बोले तो वोट दिला सके। ग्रेट तो उन्होने हो ही जाना है। हमारे राष्ट्रीय पुरस्कार के बाद कभी ऐसा हुआ है कि बंदा ग्रेट न हुआ हो।

 

          इस श्रंखला में कई लिस्टें निकल गईं हैं मेरी तरफ अभी तक ध्यान गया ही नहीं है। ताज भोपाली साब ने ऐसी ही सिचुएशन पर लिखा है:

 

बज़्म के बाहर भी एक दुनिया है

मेरे हुज़ूर बड़ा जुर्म है ये बेखबरी

 

      पहले लोग नाम ही इस तरह के रख लेते थे कलेक्टर सिंह, तहसीलदार सिंह। मैंने अपना नाम सोचा है भारत रतन या पद्म भूषण।

                ये नाम चेंज करने का क्या प्रोसीजर है?

 

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