स्कूल
में हमें अलग अलग गैस के गुण पढ़ाये गए थे। गैस वह होती है जो हवा-हवा होती है। गंध
कैसी होती है? रंग कैसा होता है?
उसकी तासीर क्या होती है? ज्वलनशील होती है अथवा नहीं? इत्यादि इत्यादि। तभी का याद है कि हमारे वायुमण्डल में 78% नाइट्रोजन है
और मात्र 21% ऑक्सिजन होती है, जिस पर हम जीते हैं शान से...मरते
हैं शान से।
इसी श्रंखला में होती है एक लिक्विफाइड
पैट्रोलियम गैस (एल.पी.जी.) बोले तो कुकिंग गैस। कुकिंग गैस तक आने में हमें एक उम्र लगी है। एक रात
में नहीं पहुंचे हैं यहाँ तक। पहले चूल्हे जलाए जाते थे। लकड़ी खरीदी जाती थी। जलाई
जाती थी। लकड़ी, लकड़ी की टाल से खरीद कर लाई जाती थी। घर में
स्टोर की जातीं थीं और चूल्हे के अनुरूप छोटी-छोटी तोड़ी जाती
थीं। फिर आई अंगीठी, जिसमें कोयला और लकड़ी दोनों एक निश्चित
अनुपात में जलाए जाते थे। उसके बाद मॉडर्न लोग स्टोव ले आए। जिसमें कैरोसीन और हवा
भरनी पड़ती थी। स्टोव शोर खूब करता था।
कैरोसीन की बहुत मारामारी रहती
थी। डिब्बों में और बोतल में दुकान से लाना पड़ता था। यूं कैरोसीन को मिट्टी का तेल
कहा जाता था पर यह अच्छा खासा महंगा बिकता था और आसानी से मिलता भी नहीं था।
किल्लत रहती थी। बहुत जगह राशन में मिलता था। पाँच-दस पैसे बढ़ते ही बावेला मच जाता
था।
तब किसी किसी पर ही गैस होती थी। गैस
यूं ही नहीं मिल जाती थी। वेटिंग लिस्ट होती थी। वी.आई.पी. कोटा होता था। दो-एक बड़ी कंपनी ही गैस बनातीं थीं,
आबंटित करती थीं, सप्लाई करती थीं। गली-गली ठेले गैस के सिलिंडर लाते ले जाते देखे जा सकते थे। स्कूटर पर उसे ढँक
कर ले जाते थी क्यों कि इस प्रकार से ले जाना मना था। गैस लाने वाले को टिप देने
का रिवाज था। एक-दो रुपया काफी होता था। इसमें दो तीन तरह के स्कैम भी चलते थे:
1. सिलिंडर में वज़न से कम गैस होना। गैसकर्मी
एक-दो सिलिंडर से तीसरा नया सिलिंडर भर देता था। इसका पोर्टेबल जुगाड़ भी वह रखता
था। कहीं-कहीं लोग तंग आकर वज़न तोलने वाली मशीन घर में रखने लगे थे। मगर आखिर
कितने घर में ऐसी मशीन थीं।
2. यदि आपकी गैस खत्म हो जाये तो अरजेंट बेसिस पर
आपको सिलिंडर मिल जाता था। थोड़ा ‘ब्लैक’
में पैसा देना पड़ता था। इसका ‘एंटीडोट’
ये निकाला गया कि लोग दो सिलिंडर रखने लगे। मगर फिर वही बात कि कितने लोग ये ‘एफोर्ड’ कर सकते थे।
3. जिससे आप गैस लेते थे वह आपको चूल्हा भी बेचता
था। चूल्हा बेचने में ज्यादा प्रॉफ़िट था। यदि आप गैस वाले से चूल्हा खरीदने में ना
नुकुर करते थे तो गैस वाले भी सिलिंडर देने में हील-हवाला करते थे।
फिर आई पाइप वाली गैस। लेकिन वह आज भी
कहीं-कहीं ही है। बहुत कम इलाकों/शहरों में पाई जाती है।
चुनाव में गैस के सिलिंडर ने खूब भूमिका
निभाई है। एक दल कहता है हम 500/- का देते थे अब सरकार 1100/- का दे रही है। हमें
दोबारा सत्ता में लाओ हम फिर 500/- का कर देंगे। फिर बयान आया हम 350/- का कर
देंगे। ऐसा करते-करते एक ऐसी स्टेज आएगी, और मैं उस दिन
का ही इंतज़ार कर रहा हूँ जब एक पार्टी कहेगी हम फ्री में देंगे और दूसरी पार्टी
कहेगी कि हम सिलिंडर के साथ आपको 500/- ऊपर से देंगे। आखिर गैस भी तो ऊपर ही जाती
है न।
हवा हवा ऐ हवा तू खुशबू लुटा
दे....
नोट: मैं
एक शहर में ट्रांसफर पर गया तो अगली सुबह स्टाफ मेरा हाल-चाल पूछने आया. मैंने बताया “गैस की प्रॉबलम है!” एक स्टाफ ने तुरंत कहा “सर मेरे पास दो
सिलिंडर हैं” तब मैंने उन्हें समझाया “मैं अपने पेट की गैस की बात कर रहा हूँ”
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