Ravi ki duniya

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Wednesday, March 27, 2024

व्यंग्य: अतिथि तुम मत आना

 


           ये अतिथि लोग ने आदि काल से बहुत रौड़ा डाला हुआ है। बोले तो भानगड़ केली आहे। ये अतिथि परंपरा कब से शुरू हुई? इससे ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ये किसने शुरू की और क्यों की ? हमारे दादा जी के टाइम तक कहा जाता था कि दरवाजे पर दुश्मन भी आए तो उसका सत्कार करना है। तब से यह स्टेटमेंट बदलते-बदलते यहाँ तक आन पहुंचा है कि दरवाजे पर (जो) आ जाये समझो दुश्मन है। कहाँ से आ गया बैरी ? जरा आँख लगी थी। थोड़ा लेटे थे पीठ सीधी करने, ये हैं कि दन्न से आ टपके। अब इन लाट साब (यदि पुरुष है) या इन महारानी (यदि भद्र महिला है) के लिए चाय-नाश्ते का इंतज़ाम करो। भगवान भला करे मोबाइल बनाने वालों का। बड़ा सुभीता हो गया है घर में रहते हुए भी आप कह सकते हैं "हम लोग कश्मीर गए हुए हैं" या "हम तो साउथ के टूर पर निकले हैं कुछ ठीक नहीं कब तक वापसी हो"।

 

             हमारे माता-पिता के टाइम तक आते-आते यद्यपि अतिथि को देवता तो नहीं मानते थे पर दुश्मन भी नहीं मानते थे। वे एक 'नेसेसरी ईवल' की तरह थे कारण कि हमें भी आना-जाना पड़ सकता था। हमारी माताजी रात-बिरात उनके लिये भोजन बनातीं थीं। कोई-कोई अतिथि (महिला-रिश्तेदार) रसोई में मदद भी करा देतीं थीं। तब ये भी होता था कि नहीं तो अतिथि अपने घर-गाँव जाकर चार जगह लगाई-बुझाई करेगा या बड़ाई करेगा।

 

        रसोई जब से 'किचन' कही जाने लगी और गृहणी खड़े-खड़े खाना बनाने लगीं वे चाहतीं हैं कि ये अतिथि भी खड़े-खड़े ही चला जाये। अपुन को किचन में किच-किच नहीं मांगता। जब से स्विगी और ज़ोमैटो के सौजन्य से हमारी किचन, पेंट्री बनी हैं और घर-घर में माॅड्युलर किचन आईं हैं तब से लगता है ये अतिथि भी माॅड्युलर हो जाएं। दिखें नहीं।

 

       रिश्तेदार भी कम नहीं। जरा नहीं सुधरे। जब आते हैं अपनी पैनी नज़र से हर चीज और गतिविधि को जज करते हैं। और तो और ये पूछने से भी बाज नहीं आते कि फलां चीज कहाँ से और कितने की खरीदी ? फिर आपको बताते हैं कैसे उनके शहर में या अमुक ब्रांड की वस्तु इससे बेहतर और सस्ती है।

 

       एक सीरियल था या फिल्म थी (आजकल भेद ही मिट गया है कौन सीरियल है कौन फिल्म है) अतिथि तुम कब जाओगे। हम उससे कहीं आगे आ गए हैं। हमारा नारा है अतिथि इधर आने का नहीं। यह अतिथि लोग का डार्क पीरियड चल रेला है। अतिथि परम्परा के विलुप्त हो जाने की पूरी पूरी संभावना है। 'अतिथि देवो भव:' या 'पधारो म्हारे देश' जैसी टैग लाइन पर मत जाना ये घर की बात नहीं हो रही है बल्कि टूरिस्ट एजेंसी वाले होम स्टे के लिये ग्राहक तलाश रहे हैं। जहां आपको खाने-पीने, नहाने-सोने सब के पैसे जी.एस.टी. समेत देने होते हैं। पहले एक दर्जन केले में रिश्तेदार एक हफ्ता रह जाते थे। कूल! बहुत हुआ तो जाते-जाते घर के छोटेतम बच्चे को रुपल्ली दो रुपल्ली पकड़ा जाते थे। ये उलाहना भी दे जाते थे कि आप तो झांसी / रतलाम (जहां से भी वे आते थे) आते ही नहीं। उनसे पूछो भैया ! हम क्यूँ आयें रतलाम ? हम तुम्हारे जैसे नहीं। हमें क्या तकलीफ है जो इस गर्मी में रतलाम की सोचें। अब तो  घर पर 'काॅल-ऑन' करने को भी पहले फोन पर अपाॅइंटमेंट ली जाती है। यहाँ तक कि फोन करने वाले पूछने लग पड़े हैं 'इज इट राइट टाइम टू टाॅक ???

 

      यही है अतिथि लोग का ज़ीरो टाॅलरेंस। अतिथि - विहीन समाज का स्वर्ण काल बोले तो अमृत काल आ गया है।

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