Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Thursday, July 25, 2024

व्यंग्य: बिकास ही बिकास

 पॉलिटिकल पार्टीज़ खासकर विपक्ष को ये आदत सी लग गई है कि गाहे-बगाहे चिल्लपों मचाते रहो। बात-बात में बल्कि यूं कहिए हर बात में शोर मचाना है। अब कहते फिर रहे हैं कि सरकार ने बजट में सारे के सारे पैसे आंध्र प्रदेश और बिहार पर लुटा दिये हैं। बाकी राज्य मुंह ताकते रह गए। सारे प्रोजेक्ट इन्हीं दो राज्यों को दिये जा रहे हैं। सारी सुविधा, सारी सड़क सारे पुल इन्हीं दो राज्यों को दिये जा रहे हैं वो बात दीगर है कि बिहार में पुल धड़ाधड़ एक के बाद एक गिर रहे हैं। यह भी एक कारण हो सकता है इस बार इतने पैसे दे दो कि सबके कमीशन काट कर इतने तो बचे रहें कि एक ठीक-ठाक सा पुल बन जाये, जो दो-चार बरस तो चले। ये क्या कि अभी उदघाटन भी नहीं हुआ और पुल चल बसे। असल में जो टेंडर पुल-पुश से लिया जाये वो पुल जरा से पुश से चल बसे तो किम आश्चर्यम ?

 

               देखिये ये संसार नश्वर है। क्या मैं, क्या तुम, हम सब नाशवान हैं। जीवन क्षण भंगुर है। उस हिसाब से तो पुल महीनों चल गए। अब उनका इतना ही जीवन था। प्रभु की लीला। अब आप ही बताओ ऐसे में पुल की क्या बिसात है। नश्वर मनुष्य द्वारा बनाई गई वस्तु अमर कैसे हो सकती है वह भी तो नश्वर होनी है । अतः ये पुल, ये सड़क, ये परीक्षा के प्रश्न पत्र, ये परीक्षाओं के रिजल्ट, सब नश्वर है। नाशवान है।

              

 

               अब आइये देखते हैं कि आंध्रप्रदेश और बिहार को जो सुविधा दी गई हैं या प्रोजेक्ट गए हैं उनका उपभोग भी तो सभी आम भारतीय ही करेंगे। बिहार वाले या आंध्र वाले क्या इन प्रोजेक्ट को अपने साथ ले जाएँगे। ये दौलत ये संपत्ति सब यहीं रह जानी है। फर्ज़ करो आप मुंबई वाले कभी आंध्र प्रदेश जाएँ या भगवान न करे आपको बिहार जाना पड़े ( इसलिए कि बिहार तो बिहार वाले खुद जा कर राज़ी नहीं, वो सभी अपनी अपनी पोस्टिंग मुंबई दिल्ली में चाहते हैं न कि नालंदा, पटना में) तो वहाँ की सब सुविधाओं का लाभ आप पर-प्रांतीय ही तो उठायङ्गे। अतः यह बहुत ही नावाजिब और नामाकूल धारणा है कि केवल दो राज्यों को सब सुविधाएं दे दी गई हैं। अरे बवालो ! हाथी के पाँव में सबका पाँव। इतनी सी बात नहीं समझते। केंद्र मजबूत बना रहे, अगली बार आपके राज्य, आपके शहर, आपके गाँव की बारी भी आ जाएगी। सिर सलामत रहे टोपी हज़ार। अब अपने मुंह अपनी तारीफ क्या करें मगर.... हें...हें...हें अब तक तो आप जान ही गए होगे कि गले का पट्टा (गमछा) हो या टोपी दोनों को पहनाने में हमारा कोई सानी नहीं।

 

              बिकास ही बिकास एक बार मिल तो लें । 


                  

Friday, July 19, 2024

व्यंग्य: अखिल भारतीय जुगाड़ एजेंसी (ए.जे.ए./आ जा )

 

अब वक़्त आ गया है कि तुरंत अखिल भारतीय जुगाड़ एजेंसी (शाॅर्ट में आ जा) का गठन किया जाये। यह अखिल भारतीय लेवल का संगठन होगा। जहां पूरे देश में कहीं पेपर हो, लीक कराने की जिम्मेवारी रहेगी। हर छोटी-बड़ी परीक्षा वह चाहे शिक्षा से संबन्धित हो या रोजगार से। एजेंसी की सफलता का पैमाना यही रहेगा कि वर्ष भर में कुल कितनी परीक्षाएँ घोषित हुईं और उनमें से कितनी परीक्षाओं के पेपर लीक कराए गए। यह अपनी स्थापना के प्रथम वर्ष से ही नवरत्न कंपनी बन जाएगी। एजेंसी को यहीं नहीं रुकना है बल्कि देश का नाम पूरे विश्व मे रोशन हो हम इस मामले में विश्व गुरु बनें उसके लिए ज़रूरी है कि यह एजेंसी ग्लोबल बने। संसार मे जहां परीक्षा वहाँ 'आ जा'। हमारी टैग लाइन होगी "जहां परीक्षा वहां आ जा"।  बाॅलीवुड ने हमारी फुल पब्लिसिटी करनी है। हर दूसरे गीत में हमारा जिक्र है। 'आजा...आजा मैॅ हूं प्यार तेरा' हो या 'आजा अब तो आजा' से लेकर 'आजा रे अब मेरा दिल पुकारे' तक। पूरे जोश से यह उपक्रम चलेगा। मुनाफा ही मुनाफा बरसेगा। शेयर के भाव आकाश छुएंगे।

 

      देखिये अब टेकनॉलॉजी इतनी एडवांस हो चली है कि ये चिट, ये फर्रे अब काम नहीं आते। अब तो आप पूरी की पूरी किताब रख लें तो भी 720 में से 720 नहीं ला पाएंगे। भारत की पावन भूमि पर अब तक साल में  इक्का-दुक्का केस ही ऐसे आते थे जिसमें बच्चे 720 में से 720 अंक पाये। देखिये आप ‘परीक्षा-योद्धा’ हैं बोले तो ‘एक़्जाम-वॉरियर’। अब योद्धा का तो काम, बल्कि धर्म है, वह लड़े, दांव-पेंच इस्तेमाल करे। आपका गोल क्या है ? परीक्षा हॉल है ! परीक्षा हॉल आपका कुरुक्षेत्र है। परीक्षा में पास होना है, महज़ पास ही नहीं होना है बल्कि पुरानी हिन्दी फिल्मों के हीरो की तरह पूरे ज़िले में, सूबे में अव्वल आना है।  ‘एव्रीथिंग इज फेयर इन लव एंड वार’। अतः सभी तरह की युक्ति और तिकड़म लगानी होती है। आप अगर अभी से हार जाओगे तो आगे अच्छे और कामयाब डॉक्टर, प्रशासक कैसे बनोगे। बे-फालतू के टेस्ट कैसे कराओगे ? फी फाइल फी कैसे लोगे। इस एजेंसी को एकदम ‘ग्रास रूट’ से काम करना है। मसलन  ‘स्लीपर्स’ देश के सभी भर्ती बोर्ड और पब्लिक सर्विस में घुसाने हैं। पोस्ट मायने नहीं रखती। अपना एक बंदा वहाँ होना चाहिए, जो अंदर की खबर दे सके। पेपर कौन सेट कर रहा है ? जो सेट कर रहा है वो कहाँ रहता है ? उसकी लाइक - डिसलाइक क्या हैं ? उसकी स्ट्रेंथ क्या हैं ? वीकनेस क्या हैं ?  बीवी बच्चों के क्या शौक हैं ? ये सब डाटा अपनी डाटा-बेंक मे हार्ड डिस्क मे सुरक्षित रखना है।

 

             शहर में आबादी से दूर कुछ होटल में परमानेंट बुकिंग रखनी है। पेपर कहीं भी बन रहा हो आपकी ये मौलिक ड्यूटी है कि उसको लीक कराया जाये। ‘लीक-मेव जयते’। यूं देखा जाये तो ये काम ऐसा मुश्किल भी नहीं। क्या बाबू, क्या बड़े अफसर सभी तैयार बैठे हैं लीक करने को। अगर दाम सही मिल जाये। वो ए.एम.सी. के माफिक  ए.एल.सी. को भी तैयार हैं बोले तो एनुअल लीक कॉन्ट्रेक्ट। उसके बाद नौकरी से वी.आर.एस. ही ले लेंगे।  ये जा वो जा। किसी दूसरे देश मे जा रहेंगे। ये देश यूं भी अब शरीफों के रहने लायक नहीं रह गया है। कोई चैन से, ईमानदारी से दो रोटी नहीं कमा खा सकता। एनट्रेप्युनरशिप की तो क़दर ही नहीं है।

 

               प्रेस में अपनी पहुँच होनी चाहिए बिलकुल खोजी पत्रकार के माफिक, पूरा डाटा अपने पास दर्ज़ रहने को मांगता। उस को समय-समय पर अपडेट भी करना है। कोशिश अपना ही एक प्रेस खोलने की हो।  सभी भर्ती बोर्ड्स को कहें  आप फ्री में ही छाप देंगे। इसके लिये मिलने वाले फंड्स को वे आपस में बांट लें। वांदा नहीं। उम्मीदवारों के मोबाइल नंबर निकलवा लें। दफ्तर में एजेंसी वाले एम.टी.एस. या संविदा लिपिक इसके लिए तैयार हो जाएँगे। कम दर पर काम हो जाएगा।

           अब कस्टमर, बोले तो उम्मीदवार से कम्युनिकेशन आसान हो जाएगा। पैसों को लेकर मच-मच नहीं करनी है।  ई.एम.आई. बेंक लोन जैसी सुविधाएं भी ‘हेंडी’ रखें। एस.सी./एस.टी./ओ.बी.सी. आदि के लिए फीस में कन्सेशन देना है। अपुन को बिलकुल गौरमिंट की तरह काम करना है। गौरमिंट नहीं तो समझो कॉर्पोरेट की तरह तो होना ही है।

Thursday, July 18, 2024

व्यंग्य: रिज़ॉर्ट पॉलिटिक्स

 


                  ये हमारी पॉलिटिक्स, रिज़ॉर्ट पॉलिटिक्स तक एक रात में नहीं पहुंची है। एक रात में नहीं बल्कि रात-दर-रात के रतजगे का परिणाम है। कभी गन-बोट डिप्लोमेसी सुनी थी, डिनर पॉलिटिक्स, कैश फॉर वोट, चाय पर चर्चा अनेकानेक सोपान पार करते रिज़ॉर्ट पॉलिटिक्स तक आन पहुंचे हैं।

            अब तो चुनाव हो, मध्यविधि चुनाव हो, उप चुनाव हो या फिर अविश्वास प्रस्ताव आनन-फानन में रिज़ॉर्ट वाले अपने अपने रिज़ॉर्ट सजा लेते हैं। मालिकान अलग पी. आर. कराते फिरते हैं। सर ! आप पिछले चुनाव में दूसरे-दूसरे रिज़ॉर्ट में अपने सारे विधायकों के साथ ठहरे थे, इस बार मेरे रिज़ॉर्ट को कृतार्थ करें। मैंने आपके कहे अनुसार मोबाइल फोन जामर लगवा लिए हैं। दवा-दारू का पर्याप्त स्टॉक जमा कर लिया है। बाहर-गाँव से आर्टिस्ट बोले तो चुनाव का मौसम है तो पोल-डांसर भी बुलवा भेजे हैं। सर ! इस बार आप अपना पोल मेरे रिज़ॉर्ट में ही गाड़ें।

 

                  एक विधायक पर एक विधायक फ्री वाली स्कीम भी लगा दी है। सभी तरह के ब्रेक फास्ट हैं, क्या सत्तू, क्या लिट्टी चोखा क्या दोसा, पोहे, क्या मिसल-पाव। सभी तो है। आपने जैसा कहा था सभी कमरे सिंगल सीटर रखे हैं। खिड़कियों पर डार्क फिल्म के अलावा मोटे पर्दे लगा दिये हैं। सभी कॉन्फरेंस रूम आपके लिए ब्लॉक कर दिये हैं। कॉन्फरेंस रूम क्या पूरा का पूरा रिज़ॉर्ट आपके लिए ही सील कर रखा है। सारी फिल्में नई पुरानी ब्लैक एंड वाईट क्या सभी रंग की फिल्मों का नवीनतम स्टॉक है। आपने जैसा बताया था पार्टी गेम भी नए नए हैं। आपकी पार्टी-आपके गेम। बाउंसर चप्पे-चप्पे पर तैनात हैं। चिड़िया भी पर नहीं मार सकती। सिवाय उन चिड़ियाओं को छोड़ कर जिन्हें आप पास देंगे। सर ! हमने इन-हाउस डॉ. भी रख छोड़ा है। पल-पल सबका बी. पी., शुगर नापने के लिए। एक ठो जिम भी है। डांस फ्लोर है जहां वो आपकी ट्यून पर डांस कर सकते हैं। सर ! अब तो हमने सबके वास्ते टी. शर्ट, ट्रेक-सूट, हमने स्टॉक कर के रखे हैं। सभी तरह के स्पोर्ट्स की भरपूर व्यवस्था है। क्या डाइटीशियन, क्या डांस/म्यूजिक टीचर, सभी तो हैं। आप तो बोलो इंडियन, रशियन, फ्रेंच, मसाज बाई थाई मसाजर्स। ए टू ज़ेड सेटिस्फ़ेक्शन गारंटीड । एक बार सेवा का अवसर अवश्य दें।

 

 

      सर ! बाई वन-गेट वन फ्री स्कीम चल रही है।  आप अपने आमदारों को लेकर हमारे रिज़ॉर्ट में आते हैं तो अगली बार जब विधायक असंतुष्ट होंगे या आप को कभी भी इमरजेंसी में सबको पार्क करना हो तो हमने जो पॉइंट्स आपको दिये हैं उन्हें आप कभी भी कैश करा सकते हैं।

 

              न जाने कब में डेमोक्रेसी, डेमोक्रेज़ी होते होते ईमोजी हो गई।  जो है सो, गोरमिंट बाई दी रिज़ॉर्ट, ऑफ दी रिज़ॉर्ट एंड फॉर दी रिज़ॉर्ट। हमारा रिज़ॉर्ट का तो सर ! नाम ही हमने हॉट रखा है। बोले तो हॉटिल ऑफ टर्नकोट्स। कम वन कम ऑल।

 

Monday, July 15, 2024

व्यंग्य : 10% बनाम 0.5%


                          

 

 

                 अभी अभी एक अखबार में समाचार पढ़ा “आम भारतीय से अंबानी की शादी का खर्च कम है” लो जी मैं वैसे ही परेशान हो रहा था कि भारत जैसे गरीब देश में इतने ताम-झाम की क्या ज़रूरत है। यह तो सरासर दौलत का भौंडा प्रदर्शन है। लेकिन यह समाचार पढ़ कर अपनी मूर्खता पर हंसी आई। और दिल को शांति मिली। मैं बेकार ही ये बात दिल पर ले रहा था। अखबार ने आगे लिखा है कि एक आम भारतीय अपने यहाँ शादी में अपनी आय का 10% खर्च करता है जबकि गरीब अंबानीज़ ने तो महज़ 0.5% खर्च किया है। इसका मतलब है कि एक आम भारतीय उनसे कहीं ज्यादा कहीं ज्यादा अमीर है। मुझे आप पहली बार एहसास हुआ कि मैं अंबानीज़ से कहीं ज्यादा अमीर हूँ कारण कि मैंने अपनी शादी में पूरे के पूरे 10% खर्चा किया था। ये 10% खर्चा करने वास्ते भले मुझे ब्याज पर पैसा लेना पड़ा मगर मैंने 10% की लाज रख ली। 10% को मैंने 9 क्या साढ़े नौ भी नहीं होने दिया।

 

                 ये कुछ मानसिक संताप वाले लोग व्यर्थ ही देश की गरीबी का रोना दिन रात रोते रहते हैं। अरे ये देखो सादगी की मिसाल महज़ 0.5% में पूरी की पूरी शादी निपटा दी वो भी शानदार तरीके से। मैं 10% में भी केवल कुछ रिश्तेदार किस्म के लड़कों को नचा पाया  था अगले ने 0.5% में संसार के बड्डे बड्डे नचकइयों  को अपने अँगने में नचवा लिया।

 

               जहां अंबानीज़ की शादी में लोग देख रहे थे कि दुनियाँ का कौन सेलेब्रिटी आया है।  मैं अपनी शादी में ढूंढ रहा था कि कौन रिश्तेदार नहीं आया, मुझे चिंता हो रही थी उनके यहाँ जो शगुन दे कर आया था अब उसका क्या ? अब कैसे वो शगुन वापिस लौटेगा ?  

 

Saturday, July 13, 2024

व्यंग्य : मैं ग्राहक....तू दुकानदार तू मेरा, मैं तेरा पालनहार

 


                  

 

                    बाज़ार में कुछ दुकानें मेरी पैट हैं जहां से मैं नियमित ख़रीदारी करता हूँ।  तीज-त्योहार पर और शादी समारोहों की सारी की सारी ख़रीदारी भी मैं उन्हीं दो-तीन दुकानों से करता हूँ। इसके बदले मैं जब भी बाज़ार से निकलता हूँ वो दुकानदार मुझे सलाम करते हैं। असल में मेरा संयुक्त परिवार बहुत बड़ा है अतः हर चीज़ की खपत भी अच्छी ख़ासी है। कपड़ा हो या किराना। दुकानदार भी कोई नई चीज़ उनकी दुकान पर आ जाये तो मुझे खबर भिजवा देते हैं। कई बार तो सेंपल बतौर एक आध पीस भिजवा भी देते हैं उसे क्या बोलते हैं कंप्लीमेंटरी। उनकी दुकान पर मैं जाता हूँ तो फट से मौसम अनुसार कॉफी, कोल्ड ड्रिंक, लस्सी और नाश्ते का इंतज़ाम करने को बोलते हैं। ये सब आता भी है। मैं जानता हूँ इन सबका पैसा मेरी जेब से ही जाना है। फिर भी मुझे ये सम्मान अच्छा लगता है। बाकी ग्राहक तो मुड़ मुड़ के मुझे देखते ही हैं मेरे अपने परिवार के लोगों की नज़रों में भी मेरी हनक बढ़ती है यद्यपि उनमें जो समझदार हैं वो जानते हैं कि कोई भी वस्तु उस दुकान से इतनी मात्रा में खरीदी जाएगी कि दुकानदार अपना सारा मुनाफा हमारी डील से ही निकाल लेगा। इतनी मात्रा में ख़रीदारी होती ही रहती है। नियमित के अलावा अन्य कोई नई वस्तु के दुकान में आने पर दुकानदार उसके गुण बखान करता है वो जानता है कि जितनी हम खरीदेंगे उतना कोई नहीं क्यों कि हमारे घर की जनसंख्या ही इतनी है।

 

       अतः वह हमारे आगे बिछा ही रहता है। उसे यह डर भी रहता है कि कहीं मैं उसकी दुकान छोड़ दूसरी दुकानों में न चला जाऊँ। वह दुकान मे सबको बढ़ा-चढ़ा कर मेरे पद में दो और प्रोमोशन जोड़ कर बताता है मसलन मैं असिस्टेंट हूँ तो वह कहेगा सीनियर ऑफिसर साब हैं। जब मैं वाकई सीनियर ऑफिसर हो गया तब वह मुझे कमिश्नर ही बताने लग पड़ा था।  सबके मूल में है मार्केटिंग उसे अपनी दुकान की वस्तुएँ मुझे बेचनी हैं, बेचती रहनीं हैं और मैं दूसरी दुकान पर लेने न चला जाऊँ इसके लिए वो मुझे ठंडा / गरम / नाश्ता / पदवी / उपाधि सब सहर्ष ही देता है। मेरी खामखाँ ऊल-जुलूल तारीफ करते भी नहीं थकता। वह मोटा दुकानदार है और मैं मोटा ग्राहक। सिंपल !!   

 

 

मरने के बाद

 


 

                  कैप्टेन डॉ अंशुमान सिंह की दुखद मृत्यु के बाद पता चलता है कि कैप्टेन के पिता दुखी है कारण कि उनकी बहू (कैप्टेन की पत्नी) ने सभी ड्यूज लिए हैं और उनका कहना है कि न केवल उन्हें कुछ नहीं मिला बल्कि समारोह और कीर्ति चक्र से भी उन्हें अलग रखा गया। प्रसंगवश कीर्ति चक्र के साथ साथ 9,000/- मासिक राशि भी होती है।  5 महीने से विवाहित पत्नी का कहना है कि वे चाहते थे कि वह अपने देवर से विवाह कर ले ताकि सभी रुपया-पैसा घर के घर में रहे ।

 

                     मुझे एक 35 साल पहले का केस याद हो आया। रेलवे में इस प्रकार ड्यूटी पर मृत्यु होने पर सभी फंड्स आदि के अतिरिक्त नौकारी का भी प्रावधान है। यह नौकरी सामान्यतः कर्मचारी की विधवा अथवा आश्रित बच्चों  को दी जाती है पर अपवादस्वरूप यह (नौकरी) देवर को भी दी जा सकती है। पर इसके लिए विधवा की लिखित सहमति आवश्यक है। आखिर सभी का उद्देश्य एक ही है कि परिवार पुनर्स्थापित हो सके, उनका जीवन पुनः पटरी पर आ सके। विधवा के पुनः शादी कर लेने पर नौकरी वापिस नहीं ले ली जाती क्यों कि उद्देश्य पुनर्वास ही है। परिवार की परिभाषा में पति-पत्नी और संतान ही आती है। पेरेंट्स नहीं। हाँ रेल कर्मी की विधवा माँ भी परिवार का हिस्सा मानी जाती है। नोट करें विधवा माँ। अर्थात जब तक पिता जीवित है माँ पिता की आश्रित है न कि रेल कर्मी संतान की।  

              एक दुर्घटना में एक रेल कर्मी की मौत के कुछ दिनों के बाद मृतक का पिता ऑफिस में आया और उसने बताया कि यह नौकरी देवर को दी जाये कारण कि उनकी खानदान में महिलाएं नौकरी नहीं करतीं हैं। और इसके लिए आवश्यक सहमति वह मृतक की पत्नी से लाकर दे देगा। मुझे उसके हाव-भाव से कुछ शक हुआ। तिस पर वह एडवोकेट का कोट पहने आया था और  बातों का उस्ताद मालूम दे रहा था। मैंने अपने एक होशियार इंस्पेक्टर को इसकी तहक़ीक़ात को लगाया। वो चार दिन में ही विधवा का आवेदन पत्र ले कर आया जिसमें लिखा था कि वह चाहती है कि ये नौकरी उसे मिले न कि उसके देवर को।

                     पता ये चला (जैसा विधवा ने बताया) मैं तो शोक में दुखी बैठी थी। मेरे ससुर साब आए बोले फंड्स आदि के पैसे के लिए और ऑफिस की जरूरी औपचारिकताए पूरी करने, प्रार्थना पत्र जमा करने हैं और यह कह कर उन्होने 4-5 सफ़ेद कागज आर मुझ से साइन ले लिए थे। मुझे तो यह भी नहीं पता कि कोई नौकरी भी मिलती है और यदि नौकरी मिलती है तो मैं खुद लेना चाहूंगी।  मैं हाई स्कूल पास हूँ। और इस तरह से नौकरी मृतक की पत्नी को दी गई। इस केस में देवर पहले से ही शादीशुदा था, जो नहीं बताया गया था अर्थात बहू के पुनर्वास का भी कोई मतलब/संभावना नहीं थी।

                कैप्टेन के केस में यह डुअल जियोपार्डी है। एक तो इमोशनल दूसरी वित्तीय। कोई पैसा आदि तो ना ही मिला बहू भी क्यों कि 5 महीने पुरानी ही शादी थी अतः कोई इमोशनल बॉन्ड बन या डवलप नहीं होने पाया था। तिस पर लव-मैरिज थी। पेरेंट्स कीर्ति चक्र सेरेमनी में आते तो उन्हें गर्व होता खुशी होती। पर 5 महीने का विवाहित जीवन कैसा तो भी रहा होगा जो इतनी सारी कटुता इतने कम समय में दोनों पार्टीज़ में भर गई थी। सो न तो पैसा ही मिला, न सम्मान और बेटे से भी गए।

             नियम यही है शादी से पहले सभी विरासत पेरेंट्स की और शादी के बाद पत्नी की। अब यह दोनों पत्नी और सास-ससुर के बीच की सामाजिक समस्या है । 

                   

व्यंग्य: प्रोटोकॉल नेतानी से मिलने का

 


 

                   नेतानी ने सबको ताकीद की है कि खबरदार मेरे सामने कोई लोकल मुद्दा लाये तो। मेरे पास सिर्फ और सिर्फ वो ही मुद्दे लाए जाएँ जो एक मुझ जैसी सांसदा के स्तर के हों। भई पॉलिसी इशू लाएँ। ये क्या कि घर का दरवाजा बंद नहीं हो रहा तो आप मुंह उठाए मेरे दरवाजे पर चले आए। ये क्या सांसद का काम है कि आपकी फसल, आपके दरवाजे को ठीक कराता फिरे। कुछ तो अक़ल से काम करो। क्या आप यू. एन. ओ. में अपनी गली की नाली साफ कराने जाएँगे ? नहीं न ! बस तो ऐसे ही केवल देश, बोले तो राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय मुद्दे ही मेरे विचार को लाए जाएँ

 

                खबरदार ! जो मेरे दफ्तर में कोई छोटा मुद्दा लेकर आया तो। आप तो ये बताओ कि आपके विचार से अब चीन को क्या करना चाहिए ? आप बताइये कि अमरीका में राष्ट्रपति किसको बनना चाहिए और क्यूँ। आप बताएं रूस और यूक्रेन के युद्ध में अब विश्वगुरु भारत को नया क्या करना है।

 

                 आप मुझे बताइये कि मुद्रा स्फीति की दर का क्या करना है। भारत को 5 ट्रिलियन की इकॉनमी जल्दी से जल्दी बनाने में आपका क्या योगदान है। वो प्रसिद्ध कहावत है न “ये मत पूछो कि देश आपके लिए क्या कर सकता है, ये पूछो आप देश के लिए क्या कर सकते हो।“ ये दरवाजे, खिड़की, फसल, बाढ़-सूखा से ऊपर उठो। देखो आदमी कहाँ से कहाँ पहुँच गया है एक आप हैं जो अब भी अपना-अपना रोना लिए बैठे हैं।  हाय ! मेरी नौकरी, हाए ! हम बेरोजगार हैं। हाय ! महंगाई। तुम्हें अपने रोने-पीटने से फुर्सत मिले तो देश के बारे में भी सोचना। कितना काम अभी बाकी है। मुझे दम मारने की फुर्सत नहीं और एक आप हैं जिसके दुखड़े ही खत्म नहीं होते। क्या मैंने आपसे अपने इलैक्शन में ऐसा कोई वादा किया था कि मैं आपके दरवाजे ठीक कराउंगी। आप लोकल मुद्दे जो कि मात्र राज्य स्तर के हैं या ज़िले स्तर के हैं या फिर मात्र गाँव-खेड़े के लेवल के हैं आप उन्हें मेरे पास लेकर फटकना भी नहीं। और हाँ सभी मुद्दे 14 फॉन्ट साइज़ में मंगल फॉन्ट में टाइप करा कर 7 प्रतिलिपि में लाएँ। डबल स्पेस में ए-4 साइज़ के पेपर पर। मुझे इतना टाइम नहीं कि मैं आपके दुखड़े सुनूँ। बस आओ, अपनी अर्ज़ी दो और पीछे मुड़ कर देखे बिना नौ दो ग्यारह हो जाओ। क्या हो जाओ ? नौ दो ग्यारह। ये दफ्तर मैंने आपके ऊँघने के लिए नहीं खोला है। दफ्तर के नाम पर न जाएँ भले नाम संवाद है मगर यहाँ संवाद मैं करूंगी आप सिर्फ सुनेंगे। आई बात समझ में।  और एक आखिरी बात अगर कोई पर्यटक मेरे दफ्तर के आसपास भी दिख गया तो उसको मैंने जिंदगी भर के लिए किसी और जगह के पर्यटन लायक नहीं छोडना है। मेरे दफ्तर में सिर्फ मेरे चुनाव क्षेत्र के लोग आएंगे अनकिन कोई नहीं, तो कोई नहीं। पड़ोसी चुनाव क्षेत्र का हो या बाहर-गाँव का। 

 

                  हाँ अगर आप मेरे लेटेस्ट फिल्म की टिकट का काउंटर फॉइल दिखाएंगे तो आपको एंट्री मिलेगी फिर चाहे आपने वो फिल्म किसी भी शहर में देखी हो।