Ravi ki duniya

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Thursday, September 18, 2025

व्यंग्य : कुत्ता साब हमारा ज्ञापन स्वीकार करें

                                                                


                                             

 

भारत अनेक विविधिताओं वाला देश है। रंग-रंगीला। एक सूबे में जब किसान लोग अपना आंदोलन लेकर कलेक्टर साब के दफ्तर पहुंचे तो कलेक्टर साब ऑफिस में थे ही नहीं। अब भई कलेक्टर के पास और बहुत काम होते हैं। वो कहाँ इस इंतज़ार में बैठा रहेगा या बैठी रहेगी कि किसान भाई आंदोलन करते अपना ज्ञापन लेकर आते होंगे। बहरहाल! जब आंदोलनकारी किसानों ने कलेक्टर को नदारद पाया तो वे बिफर गये। कलेक्टर की ये मजाल कि ‘जानते-बूझते’ गायब हो जाये। महज़ इसलिए कि वे विपक्ष के नेतृत्व में आए हैं। किसानों ने आव देखा न ताव और वहाँ प्रांगण में घूम रहे एक कुत्ते के गले में अपना ज्ञापन बांध दिया। और उसके साथ फोटो सेशन भी करा लिया।

 

किसानों में इस बात को लेकर रोष था और वे कह रहे थे कि कलेक्टर को पता था हम आने वाले हैं। यह सुन वह पतली गली से ‘फील्ड’ में निकल गए। यह भी खूब रही। जब फील्ड वाले उनसे मिलने आयें तो वे यूं ही खिसक लेते हैं। अब हम क्या करें। इससे लोगों को आइडिया आया। क्यों न ऑफिस और बंगले में कुत्ता, बिल्ली, लंगूर, हिरण, गिलहरी पाल लिए जाएँ। उनमें विभागो का बंटवारा किया जा सकता है यथा कोई महिला मोर्चा आयेगा तो उनका ज्ञापन गिलहरी रिसीव करेगी। कोई स्पोर्ट्समैन का दल आया तो एतद् द्वारा सूचिता किया जाता है कि आज से हिरण को यह पाॅवर डेलीगेट की जाती है वह ज्ञापन रिसीव करेगा। इसी तरह अन्य जीव-जंतुओं को यह पाॅवर डेलीगेट की जा सकती है। एतद् द्वारा कुत्ता, बिल्ली, नील गाय, मोर इसके लिए प्राधिकृत किए जाते हैं कि वे कलेक्टर के लिए आए ज्ञापनों को रिसीव करेंगे। एक अभिनेता सांसद ने बाकायदा एक पत्र जारी किया कि उनकी अनुपस्थिति मे झण्डा सिंह उनकी तरफ से एक्ट करेंगे। अब झण्डा सिंह की तो बल्ले बल्ले हो गयी। अभिनेता को कहाँ टाइम था कि वह फिल्म में एक्टिंग करे या निर्वाचन क्षेत्र में। झण्डा सिंह यह ऑथिरिटी लैटर पा अपने को असल सांसद ही समझने लग पड़ा। उसने इस खत को तमाम सोशल मीडिया में पोस्ट कर दिया। वो गाना है न

 

                                      तेरा खत लेकर सनम

                                     पाँव कहीं रखते हैं हम

                                     कहीं पड़ते हैं कदम

 

 

 

जब बहुत बावेला मचा तो सांसद अभिनेता ने वह पत्र विदड्रा कर लिया। हालांकि वह फिल्मी दुनिया में ही रहते हैं। अतः बेचारे वोटर झण्डा सिंह से भी गए। वो कहावत है न:

 

                                   ना मामा से काना मामा अच्छा’

 

अब काने मामा से भी गए। अगले चुनाव की अगले चुनाव में देखी जाएगी।

 

ये जीव जन्तु संविदा पर रखे जाएँगे। रेगुलर नहीं। एक सेट ऑफिस में दूसरा सेट आधिकारिक आवास बोले तो कैंप ऑफिस मे रहा करेगा। अब कुछ तोते और कौव्वों को ट्रेन किया जा रहा है कि वे फोन अटेण्ड कर सकें और कुछ स्टैंडर्ड जवाब दे सकें। जैसे "साब बाथरूम में हैं। साब मीटिंग में हैं। साब बाहर गए हैं। साब फील्ड में हैं।" जानकार लोग बताते हैं इसके बहुत लाभ होंगे और दूरगामी परिणाम मिलेंगे। आदमी के साथ डर ही लगा रहता है। कौन क्या बात बनाने लग जाये, पैसे खा ले, जीव जंतुओं के साथ ये अच्छा है कि उनको कैश में कोई दिलचस्पी नहीं। दाना-दुनका, केवल केला, एक कटोरी दूध, हरी मिर्च, हरी घास, हड्डी बस उतना भर काफी है। वो भी जब भूख लगी हो। आदमी के विपरीत उनमें कोई संग्रह की प्रवृति नहीं होती। वही उनकी ईमानदारी का राज़ है।

                               

                               पेड़ प्यारा, पेड़ का पत्ता प्यारा

                              कलेक्टर तू प्यारा तेरा कुत्ता प्यारा

Tuesday, September 16, 2025

व्यंग्य: डर मुक्त व्यापार सेंटर

 


 

एक सूबे के नेता जी ने ऐलान  किया है कि वह सूबे को 'डर मुक्त व्यापार सेंटर' बनाना चाहते हैं। यह खबर सुन दोनों वर्गों में खुशी की लहर दौड़ गयी। दोनों बोले तो डरने वाले और डराने वाले। सच है घोषणाएँ ऐसी ही होनी चाहिए जिससे सभी 'स्टेक-होल्डर्स' की बल्ले-बल्ले हो जाये। अब आप पूछेंगे कि ऐसा कैसे मुमकिन है ? दरअसल डरने वाले सोच रहे हैं कि अब डरने की क्या ज़रूरत है और डराने वाले सोच रहे हैं कि अब टाइम आ गया है अपने बिजनिस मॉडल को 'रीडिफ़ाइन' किया जाये। आजकल के 'मैनेजमेंट जारगन' में इसे 'पैराडाइम शिफ्ट' अथवा 'डिफरेंट बॉल गेम' कहते हैं। आसान शब्दों में अब उनको पता रहेगा कि कौन कौन पार्टी डर रही है। इससे अपने 'रिसोर्सस चैनलाइज' करने में आसानी रहेगी। 'वेस्टफुल एक्सपेंडीचर' नहीं होगा। दिल्ली में डी.एम.आर. सी. (दिल्ली मेट्रो) है हम खोलेंगे डी.एम.वी.सी., नहीं समझे ? डर मुक्त व्यापार सेंटर

 

 

अब सरकार में डरने वालों की सूची बनाई जाएगी। इससे साफ हो जाएगा कि कौन-कौन मोटी आसामी है। वही सूची फिर डरानेवालों को लीक कर दी जाएगी। आजकल लीक का आलम तो आपको पता ही है। बस हुए न दोनों पार्टी गद् गद्। अब आप को ही तो जांच करनी है। उसी पार्टी पर डाल दो कि आपने, हो न हो, किसी न किसी को बताया होगा। या आपने अपनी बैलेन्स शीट पब्लिक कर दी होगी। इसमें हमारा और हमारे सूबे का क्या ? गलती आप करें और जिम्मेवारी हम पर थोप दें। आप नाहक ही सूबे को बदनाम न करें। माइंड इट !

 

 

इधर आप देखेंगे कि न जाने कितने स्टार्ट अप्स खुल जाएँगे कोई आपको डरने वालों की सूची और वीक पॉइंट्स बताएगा, 'टर्न की'  बेसिस पर कंसल्टेंसी देंगे दूसरी ओर होंगे वे स्टार्ट अप्स जो आपको बचाने का उपक्रम करेंगे। वे आपको बताएँगे कैसे उन्होने अमुक व्यापारी को ऐन मौके पर बचा लिया। ये एक तरह की 'प्रोटेक्शन-फी' है जो वो लेंगे और उनके बाउंसर टाइप लोग आपको, आपके परिवार को और आपके ऑफिस/आवास को घेरे रहेंगे। यह उसी तरह होगा जैसे ट्रक ड्राइवर ने एक सिपाही को पैसे दे दिये हैं तो दूसरा सिपाही आपको तंग नहीं करता।

 

यह डी. एम. वी. सी. अपने डिपो जगह जगह डी.एम.आर.सी. की तर्ज़ पर खोलेगा। उसे विज्ञापित करेगा कि हमारी सूबे में इतनी ब्रांच हैं। कुछ झूठा-सच्चा भी लिख मारिए। जैसे 130 देशों में हमारी 'प्रेजेंस' है अफ्रीका हो या एशिया या यूरोप सब हम पर भरोसा करते हैं। अब डरने वाले तो ऐसा कोई विज्ञापन देगें नहीं। देखिये बड़ा जबर्दस्त बिजनिस मॉडल है। बस इंतज़ार है तो उद्यमियों का। हमारे सूबे में आइये हम आपको 'ईज़ ऑफ डूइंग बिजनिस' की गारंटी देते हैं। बस अपनी डी.पी.आर. ( डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट) सबमिट करिए। आपके लिए सिंगल विंडो का प्रबंध है। एक डरने वालों के लिए दूसरी डराने वालों के लिए। उठिए संपन्नता आपका इंतज़ार कर रही है। फिर कहते हो हमें नौकरी नहीं है। हमें रोजगार चाहिए।

व्यंग्य : टॉमी उर्फ मोती हाजिर हो !


                                                          


               नेताजी  ने घोषणा की है कि उनके सूबे में कुत्तों के कुत्तियाना बिहेव और रवैये के कारण आम जनता को बहुत परेशानी हो रही है। सूबे में लोगों के साथ कुत्ते तमीज़ से पेश आयें। ये उनकी जिम्मेवारी ही नहीं प्राथमिकता है। अतः सभी खास-ओ-आम कुत्ते को ताकीद की जाती है कि आज से कड़े कुत्ता कानून लागू किए जाएँगे। ताज़ीरात-ए-कुत्ता के तहत कोई भी कुत्ता अगर कुत्तागिरि करता पाया गया तो उसे इस कुत्तेपने की सज़ा मिलेगी, बरोबर मिलेगी।  हमारे सूबे में कोई कुत्ता किसी की 'मैन टीजिंग' करता पाया गया तो उसकी खैर नहीं।

 

अब यह मुनादी सुन कर कुत्तों में असंतोष व्याप्त होना लाजिमी था। उन्होने तुरत-फुरत इमरजेंसी मीटिंग बुलाई जिसमें कुत्तान लोगों के बड़े बड़े लीडरान आये। इस नए ‘थ्रेट’ से कैसे निपटा जाये इस पर बहुत सारी भों भों की गयी।  कानूनी पेचीदगियों से कुत्ता बिरादरी ज्यादा वाकिफ न थी हालांकि उनकी बिरादरी के बड़े बड़े कुत्ते वकील हुए हैं। आज भी शायद ही कोई ऐसा कोर्ट हो जिसमें उनकी बिरादरी का कुत्ता नामी वकील न हो। लेकिन फिर भी सावधानी जरूरी है। यह सोच कर सभा आयोजित की गयी।

 

अब सोचिए काटा किसे ? आदमी को, आदमी का वकील कौन आदमी, कोर्ट में जज कौन ? आदमी। गोया कि वकील आप, जूरी आप, मुंसिफ़ आप, हमें पता था हमारी खता निकलेगी। हम अपनी भों भों किसे सुनाएँ ? आदमी का बरताव नहीं दिखता। पूरी रात ड्यूटी देकर हम सुस्ता रहे होते हैं। ये आदमी है कि हमें जरूर छेड़ता है, कंकड़ मारेगा, पास आकर लात घुमायेगा। हमारे साथ छेड़छाड़ करेगा। टैडी बेयर टाइप शेर हमारे पास रख कर हमें डराता है। सच्ची ! कई बार तो हार्ट अटैक जैसी हालत हो जाती है और वो खिलखिला कर रील बना रहा होता है। हमारे लिए भी कोई कोर्ट है या नहीं ? उसके इस मिसबिहेव की शिकायत किससे करें ?

 

कोर्ट में खूब मनोरंजक सीन हुआ करेंगे। टॉमी उर्फ मोती हाजिर हो। आप पूंछ हिला कर जज का अभिवादन करते हैं।  वह बिना कुछ सोचे समझे बस आदमी की साइड सुन फैसला दे देता है। वो भी सीधे उम्र क़ैद। न कोई तारीख, न कोई जमानत, न कोई परोल। बस एक फैसला और आप उम्र भर को अंदर। कुत्ता काटना न हुआ लव मैरिज हो गयी। यह कुत्ता न्याय संहिता के सरासर खिलाफ है। बोले तो 'बैड इन लॉ'। भई ! कोई चीज़ रिफाॅरमेट्री भी होती है। हमारा पक्ष सुने बिना आप कैसे हर केस 'एक्स-पारटेकर सकते हैं। अब क्या हम जा जा कर अपनी बस्ती के निकटतम कोर्ट में 'केवियट' ही डालते फिरें। या बी.ए.एल.एल.बी. करते फिरें। हमारी उम्र ही कितनी होती है आधी उम्र तो बी.ए.एल.एल. बी. करने में ही गुजर जानी है। प्रेक्टिस कब करेंगेसज़ा के कुछ माप दंड निर्धारित करें। ये नहीं कि मक्खी मारने को रोड रोलर चला दें। आदमी को भी समझायें। हम सदियों से उसके साथ है, उसके साथी हैं उसके काम ही आते हैं। न कोई खाना, न कोई बिस्कुट-दूध, न कोई नॉन वेज बस सज़ा पर सज़ा, सज़ा पर सज़ा। इतना सुनना था कि जज महोदय ने हथौड़ा ज़ोर ज़ोर से मारना शुरू कर दिया "ऑर्डर ऑर्डर"। टाॅमी भों भों करता ही रह गया। वह भों भों आज भी जारी है। इंसाफ इतना आसान कहाँ ऐ दोस्त ! पीढ़ियाँ खप जाती हैं।

  

Monday, September 15, 2025

व्यंग्य : बैंक की मिट्टी

 

                                                       



चीन से खबर आई है। वहाँ एक स्कीम बहुत पॉपुलर हो रही है। इसके अंतर्गत बैंक की मिट्टी आपको ‘ऑन-लाइन’ बेची जाती है। लोगों का ऐसा मानना है कि बैंक की मिट्टी घर के किसी मुक़द्दस कोने में रखने से घर में बरकत  ही बरकत रहेगी और घर पैसे के मामले में बैंक जैसा बन जाएगा। हमेशा जहां देखो वहाँ करेंसी नोट ही नोट बिखरे होंगे। यह मिट्टी 888 युयान की अर्थात लगभग 120 डॉलर प्रति थैली के हिसाब से बिक रही है। और खरीदार धड़ाधड़ खरीद रहे हैं। हमारे देश में ऐसे गीत जरूर हैं

 

                      "गंगा तेरा पानी अमृत"

 

पर ये अलग लैवल की बात है।

 

                ऐ बैंक ! तेरी मिट्टी सोना... मेरे बैंक की मिट्टी सोना उगले...

 

हमारे यहां अलबत्ता ये कहावतें हैं  'मैं मिट्टी को हाथ लगाता वह भी सोना हो जाती थी'। इसी का अमल है ये - आप घर में बैंक की मिट्टी लाओ और मालामाल हो जाओ।

 

 ऐसा नहीं है कि ये बैंक की मिट्टी खुदबखुद सोने में तब्दील हो जाएगी। आशय यह है कि आपके घर में दौलत बरसेगी। जिस सौदे में हाथ डालेंगे मुनाफा ही मुनाफा होगा और आप कुछ ही समय में इतने अमीर हो जाएँगे कि आपका घर ही बैंक के माफिक बन जाएगा। सोचो ! आपके घर में बैंक जितने नोट हो जाएँ तो ? और उसके मालिक ? आप ! कोई ऐरा गैरा बैंक नहीं। सब मिट्टी का कमाल है। बाइबिल में भी उल्लेख आता है।

 

                 डस्ट दाऊ केम..डस्ट दाऊ आर..डस्ट दाऊ शैल रिटर्न

 

अब रिटर्न तो जब होगा तब होगा, तब तक इस 'डस्ट' के मार्फत आप अमीर तो बन जाएँ। आपकी अलमारी लबालब भर तो जाये। हाँ एक बात और ऐसा नहीं है कि आपको किसी भी बैंक की मिट्टी पकड़ा दी जाये। आप यदि कहेंगे कि मुझे तो फलां बैंक की मिट्टी ही लगेगी या माफिक पड़ती है। यह एजेंसी आपको उसी बैंक की मिट्टी मुहैया करा देगी। है न नायाब स्कीम। अब आप अपनी मनपसंद बैंक की मिट्टी ऑर्डर कर सकते हैं। हो सकता है कल को आप चाहें कि अमुक ब्रांच की ही मिट्टी दरकार है। किसी भी आंडू पांडु ब्रांच की नहीं। सही भी है इतनी महंगी मिट्टी आप खरीद रहे हैं तो सबसे अमीर ब्रांच की ली जाये न कि किसी 'एक्सटेंशन ब्रांच' की। मैंने ऐसी ब्रांच देखी हैं जो गरीबों के लिए खुद ग़रीब ब्रांच होतीं हैं। उनसे किसी काम की कहो वो कहेंगे नहीं हमारी ब्रांच तो एक्सटेशन भर है इसके लिए तो आपको हमारी फलां मेन (बड़ी) ब्रांच में जाना होगा। अपुन को अमीर होने को इतना सब घुमावदार रूट नहीं चाहिए। भई ! हमें तो अमीर ब्रांच की ही मिट्टी चाहिए। कोई लफड़ा नहीं मांगता।

                                           


वैसे सोचने वाली बात ये है कि क्यों न लॉकर रूम की मिट्टी ली जाये। मेरे विचार से सबसे ज्यादा उपजाऊ और ‘पेइंग' मिट्टी तो लॉकर रूम की ही होनी चाहिए। इतनी जरा सी जगह में दुनिया भर की दौलत होती है। अतः वहाँ की मिट्टी ही चाहिए पैसे भले ज्यादा लगें। हमारे देश में पहले घर-घर में गंगा जल रखने का रिवाज था कारण कि वक़्त ज़रूरत काम आता था। चाहे कसम  उठानी हो, किसी व्यक्ति/स्थान को पवित्र करना हो अथवा मरते वक़्त पिलाने को। और हाँ ! हमें अमीर बनते वक़्त ये नहीं सुनना है कि लंच टाइम चल रहा है या आज डीलिंग क्लर्क छुट्टी पर है। कल आना या फिर ये कि सर्वर डाउन है।

व्यंग्य : न से नेपाल, नेहरू, नेताजी

 

 

       नेता जी ने कहा है कि एक बार नेपाल इंडिया में मिलना चाहता था। किन्तु परंतु नेहरू जी ने मना कर दिया अथवा रुचि नहीं दिखाई। नतीजा – देख लो ! आज नेपाल की क्या हालत हो गयी। मैं इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ। हमने तो यही पढ़ा है कि नेपाल ही एकमात्र देश है जो कभी किसी के अधीन नहीं रहा। वहाँ किसी अन्य देश ने कभी कॉलोनी नहीं बनाई। भूटान की तरह वहाँ की भौगोलिक हालात ऐसे नहीं कि ये फायदे का सौदा साबित हो सके। कॉलोनियां तो उन्हीं मुल्कों में बनती हैं जहां कुछ माल-मत्ता मिलने की प्रत्याशा हो।

 

पचासियों साल बाद हम यह कह कर संतोष पा सकते हैं। खासकर तब जब उस वक़्त प्रतिद्वंदी पार्टी का राज रहा हो। जैसे कहते हैं न ये होता, तो वो हो जाता। तब ये कर देते तो, वो हो जाता। यह एक काल्पनिक ‘सीनेरियो’ है। एक शेखचिल्लियाना अवधारणा है। यह किसी भी देश के लिए, किसी भी घटना के लिए कहा जा सकता है। विशेष कर तब जब यह बात पचास साल बाद, सौ साल बाद की जाये। यथा अगर 1937 में नेहरू जी ने बर्मा अलग नहीं किया होता तो आज वो म्यनमार नहीं बनता। बर्मा ही रहता। न सुश्री शू ची नज़रबंद होतीं और पिया लोग आज भी रंगून जाकर प्रेयसी को टेलीफ़ून करते। (आप अगर ये कहोगे कि 1937 में नेहरू प्रधानमंत्री नहीं थे, तो उसका जवाब है कि नेहरू जी की चलती तो थी। वे अंग्रेजों के करीब थे। अंग्रेज़-अंग्रेजिन उनकी सुनते थे )

 

यही बात 1948 में अलग हुए श्रीलंका के बारे में कही जा सकती है। न 1948 में नेहरू जी श्रीलंका को अलग कराते न श्रीलंका में ये हाल होता। देखा नहीं कैसे विद्रोही महल में घुस गए। सरकारी दफ्तरों में लोट लगाते फिरे और चीज़ें उठा कर ले गए। अगर श्री लंका हमारा हिस्सा होता तो न कोई विद्रोह होता न कोई आगज़नी और रेडियो सीलोन पर आज भी हम बिनाका गीतमाला सुन रहे होते।

 

नेहरू जी ने बहुत नुकसान कराया है। मालदीव अलग करा दिया और आज वह हमें आँख दिखाता है। मालदीव हमारा अंग होता तो सोचो कितना सीफूड खाने को मिलता। वो भी सस्ते दामों पर। वहाँ जाते तो हम भी स्कूबा डाइविंग करते, स्नोरकेल करते। 'सी-डाइव' करते। 'सी-बीच'  पर सीपीयां इकट्ठी करते।

 

इसी तरह 1971 में बंगला देश नेहरू जी ने अलग न किया होता तो सोचो हम कितनी सस्ती मछली खाते। जूट उद्योग को कितना बढ़ावा मिलता। आज वह हमारा अंग होता और हम उसे ईस्ट बंगाल कहते। ढाके की मलमल आज भी हम बापरते। नेहरू जी को ये कहाँ पसंद था। खुद अपने कपड़े तो पेरिस से धुलवा लिए और हमें ढाके की मलमल के लिये तरसाते रहे। और तो और वही बंगलादेश हमें आज आँख दिखाता है।

 

इसी प्रकार बलोचिस्तान, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, भूटान, चीन, रूस, जापान, अमरीका नेहरू जी अलग नहीं कराते तो आज हम वर्ल्ड पाॅवर होते हालांकि देर से सही विश्वगुरु तो हम हो ही गए।

 

Saturday, September 13, 2025

व्यंग्य: कनाडा की डॉक्टरनी और मस्त मरीज

 

                                                                   


 

 

एक खबर के मुताबिक कनाडा में एक महिला डॉक्टर अपने मरीजों को जो बेसुध बेहाल और बेहोश पड़े होते हैं उनके साथ वह डॉक्टरनी ‘अभद्र’ व्यवहार करती थी। दोनों पार्टी खुश शिकायत करेगा तो कौन ? मरीज तो पहले ही बेहोश, बेहाल हैं। वह तो सोचते होंगे कोई सन्निपात जैसी स्थिति में सपना देखा है। सपने सुहाने अस्पतालन के... मेरे  नयनों में डोले बहार बनके।  पीछे दिल्ली में एक कॉल गर्ल रेकेट सामने आया था जिसमें वर्कर अपने आप को थिरेपिस्ट बता रही थीं और मेडिकल कॉल पर आयीं हुईं थीं।

 

यह मात्र संयोग नहीं हैं अलबत्ता प्रयोग ज़रूर हैं। देखिये मेडिकल फील्ड ने कितनी तरक्की कर ली है। जल्द ही कनाडा से यह तरक्की फैलते फैलते पूरी दुनिया में छा जाएगी। यह मामूली बात नहीं है। पिछले दिनों एक टीचर को पुलिस ने पकड़ा था जिसने अपने स्टूडेंट को ही ‘सेवा’ मेन लगा रखा था। पकड़े जाने पर उसने बिंदास कह दिया की यह सब म्यूचल कन्सेंट से होता था अतः इसमें पुलिस अथवा लड़के के माँ-बाप का क्या लेना-देना। एक डॉक्टर ने मुझे बताया था कि एक साइक्लोजिकल डिसॉर्डर होता है जिसमें महिला तैयार त्यौर होकर रोजाना बिला नागा अस्पताल आ जातीं हैं। आउटिंग कि आउटिंग हो जाती है। और संगी साथियों से हॅलो हाय हो जाती है और सबसे बड़ा मनपसंद डॉक्टर को अपनी काल्पनिक पेट की समस्या अथवा कोई अन्य काल्पनिक समस्या का ज़िक्र करती हैं और फूल चेक अप का इनसिस्ट करतीं हैं। ए टू ज़ेड।

 

अब यह कनाडा की डॉक्टरनी  को क्या ही तो कमी रही होगी। या फिर वो कोई रिकॉर्ड बनाने निकली थी। एक खबर ये है कि उसकी प्रेक्टिस / क्लीनिक ठीक नहीं चल रहा था अतः उसे यह पी आर की युक्ति सूझी। अब आप ही बताओ इस युक्ति के आगे अच्छे अच्छे डॉक्टर और उनके क्लीनिक फेल हैं। मैं सोचता हूँ यह स्थिति यदि भारत में हो तो मरीज मौज में हो जाएँगे। बार बार वो उसी डॉक्टर से इलाज़ कराना चाहेंगे। और तो और ज़िद करेंगे कि आप हमें बेहोश न करें प्लीज़।

 

                      बा-होशोहवास मैं दीवाना आज वसीयत करता हूँ

                    ये दिल ये जां मिले तुमको मैं तुमसे तवक़्क़ो करता हूँ

 

    अब आप बेहोश बेहाल बेसुध ही कर दोगे तो हमारा क्या ? आप कुछ तो हमारे तीर-ए-नीमकश का भी पास रखें। आप चाहें तो हमसे पहले ही इंडेमिनिटी बॉन्ड साइन करा लें जी। पर प्लीज़ बेहोश न करें और अगर करना ही है तो अपनी आँखों के जाम से करें नहीं तो असली जाम से करें । अपने को कहाँ ज्यादा दरकार है। फकत दो पेग काफी होंगे। आखिर मरीज हैं वहाँ किसी को क्या पता चलना है कि कौन सी दवा-दारू चल रेली है।  प्रसंगवश बताना चाहूँगा कि जिन डॉक्टर की बात हो रही है वे भारतीय/भारतीय मूल की ही हैं।     

 

 

Friday, September 12, 2025

व्यंग्य : बाढ़ आई है ? भजन गाईये !


                                                           


जब आपको लगने लगता है कि नेता लोग ने हद कर दी तभी किसी न किसी नेता का कारनामा सामने आ जाता है। जिससे उनकी प्रतिभा और कौशल पर आपको यकीन आ जाता है कि अभी तो नेताजी के पास बहुत गोला बारूद कारतूस बाकी है। अब यही देख लीजिये जब एक नेतानी के निर्वाचन क्षेत्र में बाढ़ ने तबाही मचा दी तो उनको ख्याल आया कि उनका निर्वाचन क्षेत्र होने के नाते उन्हें भी जाना चाहिए। नहीं तो अगले चुनाव में ये बाढ़ग्रस्त वोटर कहीं उन्हें सूखाग्रस्त इलाके में न भिजवा दें। ताबड़तोड़ नेतानी जी जा पहुंची उन लोगों के मध्य जहां वोटर, बोले तो बाढ़ पीड़ित विस्थापित टेंटों और छोलदारी में रह रहे थे। आजकल उनको अग्रेज़ी में ‘शेल्टर होम’ कहते हैं। इज्ज़त वाला लगता है।

 

अब प्रश्न ये था कि वो अपनी ग्लिसरीन तो घर ही भूल गईं थीं। अब उनकी इस हालत पर वे आँसू बहातीं तो कैसे ? कुछ ठोस करने की न उनकी मंशा थी और न उन पर संसाधन थे। पता नहीं हाई कमांड अगली बार टिकट देती भी है या नहीं।  अभी कोई ठीक नहीं है। काफी कुछ इंतज़ाम ज़िले के अधिकारियों ने बामामूल कर ही दिये थे। फिर भी वो आपदाग्रस्त लोगों से ऐसे पूछ रही थीं जैसे सारी राहत सामग्री उन्हीं ने भिजवाई है। वो भी अपने घर से, अपने पैसे से। “... खाना ठीक है...? दोनों टाइम मिल रहा है ? यहाँ आपको कोई तकलीफ तो नहीं ? आप आराम से तो हैं ?.....” इससे अधिक हिन्दी उन्हें आती भी न थी। फिल्मों में तो ‘वॉयस ओवर आर्टिस्ट’ मिल जाते हैं यहाँ इस तरह की 'डबिंग' संभव नहीं थी। यह तो 'लाइव' ड्रामा था। कोई रीटेक नहीं।

 

कलेक्टर और उनका सारा अमला तारिका नेतानी को ऐसे सब राहत कार्यों की जानकारी दे रहा थे जैसे वो उन सबकी बॉस हैं और जरा सी भी कोताही बरतने पर उनका ट्रांसफर /सस्पेंशन पक्का है। दरअसल वो भी फोटो खिंचाने में व्यस्त थे और अपने आपको राजकपूर और धर्मेन्द्र से कम नहीं समझ रहे थे। हालांकि सिने तारिका नेतानी खुद साल में एक दो बार से ज्यादा  इधर का रुख नहीं करतीं। कौन इतनी धूल मिट्टी में धक्के खाये। ये अभागे, कोई अमीर  प्रोड्यूसर तो हैं नहीं जो इनके पास वैनिटी वैन हो। जरा देर में सारा मेकअप अचानक आई बाढ़ में कच्चे मकान की तरह ढह जाता है।

 

यह सब ‘डिरामा’ तो दस मिनट में ही ‘दि एंड’ की तरफ बढ़ चला था। तभी सिने तारिका को ख्याल आया और उन्होने भजन गाना शुरू कर दिया। उन्हें भजन गाता देख, कलेक्टर का भजन न गाना उनके खिलाफ भी जा सकता था। क्या पता लोग उसे सेकुलर गेंग का समझने लगें ।  यह सोच उसने भी तुरत फुरत सुर में सुर मिलाया और अगला भी चालू हो गया। अब जब कलेक्टर भजन गा रहा था तो उनके अधीनस्थ सरकारी अमले की इतनी हिम्मत कि वो नहीं गायें। वो भी खूब ज़ोर ज़ोर से गाने लगे। बल्कि आपस में प्रतियोगिता सी करने लगे कि कौन कितनी ज़ोर से गाता है। उनको भय  था कि कलेक्टर साब ने देख लिया कि अमुक कर्मचारी नहीं गा रहा है तो उसका ट्रांसफर पक्का है। हो सकता है अनुशासनात्मक कार्यवाही भी हो जाये। वो खूब मगन होकर गा रहे थे। अपने नाती-पोतों को बताएँगे कि कैसे उनके गाँव में जब सिने तारिका आई तो उसने उनके साथ ड्यूएट गाया था, भले भजन ही सही। जल्द ही वहाँ भक्ति का अनूठा वातावरण बन गया। लोग-बाग बाढ़ को भूल गए। और  तभी एक पहले से सिखाई पढ़ाई महिला का वक्तव्य आया कि तारिका नेतानी के साथ उनके भजन गाने से वो अपनी दुख तकलीफ भूल गए भले भजन गाते वक़्त ही सही।

 

यही राजनीति में उनका सबसे बड़ा योगदान है कि देखने वाला अपना दुख दर्द भूल जाये। भले उनके भजन गाते वक़्त या अपनी फिल्म का संवाद बोलने के दौरान। अलबत्ता यह नया सूत्र यकायक ही भावी नेताओं को मिल गया है। अब कभी भूकंप आए तो नृत्य कराएं। बाढ़ आए तो भजन। फसल कम हुई है या नष्ट हो गयी है ? तो  ग़ज़ल। महामारी फैले तो आर्केस्ट्रा, महंगाई बढ़ गयी है ? वान्दा नहीं ! मेला लगवाएँ। बस्ती मे आग लगी है ? चिंता नहीं सर्कस चालू कर दें।