आपने 'एलिस इन वंडरलेंड' कहानी पढ़ी सुनी होगी।
मेरे भारत महान में हम लोग भी एक तरह से वंडरलेंड में ही रह रहे हैं। यहाँ कुछ भी
मुमक़िन है। अब इसी घटना को ले लो डॉ साब ने आव देखा ना ताव दायें पैर का ऑपरेशन
कर छोड़ा। बाद में उनको रियलाइज हुआ कि साला फ्रेक्चर तो बाएँ पैर में था जी। अब
क्या किया जा सकता है। बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहतीं हैं
सेनोरिटा। देखिये पैर पैर एक से। आप यह क्यूँ नहीं सोच रहे हैं कि उसी आदमी के
पाँव का ऑपरेशन किया है। आप क्या कर लेते अगर डॉ साब किसी और को पकड़ कर ऑपरेशन कर
देते ? इसको आप ऐसे भी ले सकते हैं कि यह आदमी फ्रेक्चर 'प्रोन' है अतः एडवान्स में ही कर छोड़ा है। इस प्रकार से एक पाँव को सिक्युर कर लिया
है। अब दूसरे पाँव जिसमें फ्रेक्चर है उसको देखते हैं। रेलवे में जब कोई दुघटना
होती है तो पहला काम होता है दूसरी लाइन को सुरक्षित/सिक्युर करना। सो उसी तर्ज़ पर
दूसरी टांग को सिक्युर कर लिया गया है। अब इत्मिनान से फ्रेक्चर पर कंसट्रेट किया
जा सकता है।
यह कैसे हो जाता है ? मत पूछिए। आप तो ये
पूछिये कि जो ठीक हो रहा है वो कैसे हो रहा है।
जिनके सही ऑपरेशन हो रहे हैं वो कैसे हो पा रहे हैं ? ईश्वर अगर कहीं है तो
डेफ़िनिटली हिंदुस्तान में है। हमारे मुल्क़ को चला रहा है। उसी की कृपा से पंगु
गिरि लांघ रहे हैं।
अब हम उस स्टेज से कहीं आगे आ गए हैं
जहां पर डॉ साहिबान तौलिया और कैंची पेट में ही छोड़ देते थे। लोग मज़ाक में कहते थे
जब दुबारा ऑपरेशन करना पड़े तो कैंची-तौलिया आदि ढूंढने में वक़्त ना गंवाया जाये।
पेट खोलो उसी में सब निकल आयेगा। सब कुछ कितना आसान कर दिया है। हमारे हिंदुस्तान
में जब पेशेंट मृत्यु को प्राप्त होता है तो यह उसकी किस्मत बताई जाती है। उसकी
मौत इसी तरह से लिखी कही जाती है। उसकी उम्र इतनी ही मानी जाती है। डाॅ. को कोई
दोष नहीं देता। इसके चलते हमारे डॉ अब मृत जिस्म को वेंटीलेटर पर कितने ही दिन तक
रख कर मीटर बढ़ाते रहते हैं।
डॉ. को हमारे यहा भगवान का दर्जा हासिल है।
अब भगवान भी भला कोई गलती करता है ? अगर कुछ उन्नीस बीस हो भी जाये तो प्रभु की ऐसी ही मर्ज़ी थी। इसी में कोई भलाई
छुपी होगी। जिन दो 'नोबल' क्षेत्रों का जी भर के व्यवसायीकरण हुआ है उनमें एक मेडिकल है दूसरा शिक्षा
है। दोनों अब मार्किट में फुल फुल आ गए हैं। रक्स जारी है आप पैसे लुटाइये रक्कासा
पर। अब प्रॉफ़िट कोई डर्टी वर्ड नहीं रह गया है। तुम बीमार हो तो मैं ठीक हूँ। अब
तो केस ऐसे ऐसे सुने जा रहे हैं कि एक साल से कम में ही फीस लेकर डॉ. की डिग्री
पकड़ा दी जाती है। लोग विदेश जाकर डिग्री ले आते हैं और बेधड़क प्रेक्टिस करते हैं।
पीछे उच्चतम न्यालयालय में केस आया है जिसमें बताया गया है कि हिंदुस्तान में आधे
वकीलों की डिग्री फर्जी है। जब कोर्ट ने कहा कि इन सब की जांच करो तो सरकारी जवाब
था हमारे पास इतनी मशीनरी नहीं है। फिर यह तय पाया गया कि सेम्पल जांच ही कर ली
जाये। अब जांच करने वाले भी उसी मशीनरी के पार्ट हैं मेरे मामा जी जिन्होंने
रात-रात भर जाग कर लाॅ की है उनकी जांच तीन बार हो चुकी है। कुछ समझे आप ? जेनुइन केस में ही जांच की जा रही है। कागज पूरा। सब चंगा है।
मुझे लगता है मेरे भारत महान में आज के
दौर में रोल मॉडल का बहुत टोटा है। किसे रोल मॉडल बताया जाये ? क्या समाज क्या
राजनैतिक परिदृश्य। सभी जगह से रोल मॉडल समाप्त प्राय: हैं। उनकी जगह ले रहे हैं
सफल व्यवसायी। सफल सिल्वर स्क्रीन के नकली
हीरो। अमीर होना जीवन का एकमात्र नहीं तो सर्वोच्च प्राथमिकता हो गया है। यदि अमीर
होना ही सर्वोच्च प्राथमिकता हो जाती है तो 'बाई हुक और बाई क्रुक' बस एक कदम ही दूर रह
जाता है।
यह रेस कहाँ जाकर रुकेगी पता नहीं। तब तक आप चुपचाप अपनी दाएं बाएँ टांग का
ऑपरेशन कराइये। ज्यादा शोर मचाएंगे तो जांच बैठा दी जाएगी। हमारे देश में इस बात
की जांच होनी चाहिए कि कितनी जाँचें चल रही हैं। जांच जिसकी रपट कभी नहीं आती या
जब आती है तब तक लोग भूल चुके होते हैं क्यों कि उस से कहीं अधिक संगीन कुछ और घट
जाता है या किया जाता है। यही कलयुग है आप इसके मारक प्रभाव से बच नहीं सकते। जब
तक रख सकते हैं अपने और अपने परिवार के दामन को बचाए रखिए यह भी कम उपलब्धि नहीं।
बेस्ट ऑफ लक
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