जब से सुना है एक बड़े आदमी ने ऐसा कहा है।
मैं तो तड़के अंधेरे मुंह ही ऑफिस के लिये निकल जाता हूँ। देर रात गए घर लौटता हूँ।
जब मैं ऑफिस जाता हूँ तो चुपके से उसी तरह बीवी बच्चों को सोता छोड़ जाता हूँ जैसे
कभी गौतम बुद्ध अपनी पत्नी और बेटे राहुल को छोड़ जंगल को निकल गए थे। बड़ी अच्छी-
अच्छी त्यागनुमा फीलिंग आती है। देर रात
गए जब लौटता हूँ तब तक सब सो रहे होते हैं। मैं उस भले आदमी की नसीहत का अक्षरश:
पालन कर रहा हूँ।
पर इसमें अड़चन आ रही है इन चार-छ: दिनों में ही मुझे मेरे ऑफिस के चपरासी से
लेकर सहकर्मी और बॉस तक घूर-घूर कर देख रहे हैं। कुछ 'कलीग्स' तो पूछने भी लग पड़े
हैं "भाभी जी मायके गई हैं क्या ?" मेरे ना में गर्दन
हिलाने पर पूछते हैं "भाभी से कुछ खटपट चल रही है क्या?"
उधर मेरा स्टाफ मुझ से बहुत कंटाल आ गया
है। अब मेरे पास खूब टाइम है उनको परेशान करने का। उनकी फाइल तुरंत क्लीयर कर देता
हूं। मेरा बॉस मुझ से अलग दुखी: है। बल्कि उसे तो अब शक़ पड़ने लग गया है कहीं मैं
बड़े बॉस के नज़दीक आने को तो नहीं ये सब कर रहा। कहीं मेरी प्लानिंग उसका ट्रांसफर
करा के उसकी सीट हथियाने की तो नहीं चल रही। अब वो मुझे तंग करने के नए नए उपाय
सोचता रहता है।
इधर घर में भी हालात कुछ अच्छे नहीं चल
रहे। मेरी बीवी मेरी तलाशी लेती है और कमीज-रुमाल सूँघती है। मैं इतनी जल्दी क्यूँ
जाता हूँ ? कहां जाता हूं ? इतनी लेट क्यूँ आता हूँ ? कहीं ऑफिस में कोई कलमुँही चुड़ैल के चक्कर में तो नहीं हूं।, अब उसे कौन समझाये कि
इतनी बड़ी कंपनी के इतने बड़े आदमी ने कहा है कि बीवी को घूरने का नहीं। पर यहां तो
उल्टा मेरी बीवी ही मुझे घूर घूर कर मेरा काॅन्फ़िडेंस गिरा रही है। इसका उन्होने
कोई समाधान नहीं बताया।
मैं बड़ी पसोपश में हूँ ऑफिस में बॉस
घूरता है। स्टाफ अलग आग्नेय नेत्रों से मुझे तकता है। घर में बीवी रूठी हुई है। ये
इन साहब की सीख मुझे लगता है, कहीं का नहीं छोड़ेगी।
न खुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम
ऑफिस में लोग अब तो मेरा नाजायज फायदा
उठाने लगे हैं। कोई काम हो मुझे जोत देते हैं। "सर ! वो जल्दी आता है उसे ये
काम दे दें"। थोड़े दिनों में मुझे लगता है कहीं ऑफिस के लोग मुझसे दूध और
भाजी ना मंगाने लगें। "सुबह-सुबह मंडी से होते हुए आ जाया करो।" एक दिन तो मेरी बीवी ऑफिस ही आ धमकी और लगी
पर्दों को इधर-उधर करके देखने। यहाँ तक कि उसने मेरी टेबल के नीचे भी झांक कर
देखा। ये सब हिन्दी फिल्मों और क्राइम पेट्रोल देखने का नतीजा है। समझ नहीं आता, मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊं ? मुझे लगता है कि बीवी
मुझे घूरे उससे कहीं बेहतर है कि मैं बीवी को घूरूँ वह भी खुश, मैं भी खुश। काका
हाथरसी जी ने एक जगह लिखा था:
यूं तो बुझ चुका है तुम्हारे हुस्न
का हुक्का
ये तो हमीं हैं जो फिर भी
गुड़गुड़ाये जाते हैं
ऑफिस के लोग भी खुश! अब इतनी सी तनख्वाह में तो यही हो सकता है। जब उन
बड़े आदमी के सरीखा पैकेज मिलेगा तब की तब
देखी जाएगी।
तब तक हैपी स्टेयरिंग !!
(लेखक के आगामी व्यंग्य संग्रह 'स्मार्ट सिटी के वासी' से)
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