Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Thursday, August 29, 2024

व्यंग्य: अटूट जोड़ सास-दामाद दोनों चोर

 

                                              

                

                                                      


(मुंबई में एक सास-दामाद की जोड़ी पकड़ी गयी है। दामाद गहने चोरी करता था सास उन गहने को ठिकाने लगाती थी)

 

 

                              ये 36 गुण मिलाने वाले कभी ये नहीं बताते कि ये 36 गुण वो लड़के-लड़की के मिला रहे हैं या इसमें सास-ससुर के गुण भी शामिल हैं। अगर शामिल हैं तो उनके कितने गुण-अवगुण मिलते हैं। प्रभु जी मेरे अवगुन चित्त न धरो। मुंबई में एक ऐसे ही टू-मेम्बर गेंग का पता चला है जिसमें दामादश्री गहने लूटने का काम करते थे जबकि सासु माँ उन गहने को ठिकाने लगाने का काम करती थी। देखिये यह है सिनर्जी, काम का आदर्श बंटवारा, बोले तो 'डिवीजन ऑफ लेबर'। कुँवर साब अपने गले में रुमाल बांधे गए चाकू, तमंचा या फिर कट्टा जैसा कुछ लहराते और आराम से गहने लूट लाये।  उधर सासु माँ सुबह से इंतज़ार कर रही हैं। आ गए बेटा ! आज कितने की दिहाड़ी बनी। अब समझा मैं दिहाड़ी का मतलब। जो इन्कम दिन- दहाड़े की जाये वो दिहाड़ी कहलाती है। गहने देख सासु माँ की बांछे खिल जाती होंगी। बरबस ही उनके हाथ दुआ में उठ जाते होंगे। भगवान ऐसा लायक दामाद सब को दे।

       

             इस सब में पत्नी का क्या रोल है पता नहीं चला। हो सकता है वो बेचारी मात्र सुघड़ गृहिणी हो, पहले उसे हाउस वाइफ बोलते थे, आजकल  'होम-मेकर' कहते हैं। वो सुबह-सुबह टिफ़िन तैयार कर के देती हो। सास अलग रूट पर जाती होगी। जावई राजा अलग कमाने निकलते होंगे।

 

                             शुरू करो चोरी-चकारी

                            लेकर प्रभु का नाम  

 

         पत्नी ताकीद भी करती होगी, सारा खाना खत्म करके जल्दी आ जाना। पूरा खाना नहीं खाओगे तो लूटने की ताकत कैसे आएगी। अच्छे पति खाना नहीं बचाते। सास के साथ तो एकदम प्रोफेशनल संबंध होगा। कल कितने के गहने थे ? कितने के बिके ? पैसे खाते में क्रेडिट हो गए ? ओनरशिप कंपनी। तीन पार्टनर। पत्नी मेनेजिंग डाइरेक्टर कम चेयरमेन। दामाद डाइरेक्टर (ऑपरेशन) और सास जी डाइरेक्टर (डिस्पोज़ल-कम-फाइनेंस) रब ने बना दी जोड़ी। ऐसे घराने यूं ही नहीं मिल जाया करते। बहुत भाग्य से मिलते हैं। तीनों का लग्नेश कितना ज़ोर मार रहा होगा तब कहीं जाकर बरसों वाला ये नक्षत्र आया होगा। आप भले कितने ही विज्ञापन दे लें ऐसा मुहूर्त विरला ही मिल पाता है। हाँ यूं जब-तब कोई एक पार्टी ऐसी मिल जाती है तो वो इतनी बेसब्री होती है कि घर वालों को ही लूट कर ये जा वो जा। ऐसी पार्टनरशिप में कोई विज़न नहीं होता। कोई पार्टनरशिप डीड नहीं, कोई मिशन स्टेटमेंट नहीं। कोई लॉन्ग टर्म ऑब्जेक्टिव नहीं। अतः पार्टनरशिप लॉन्ग लास्टिंंग नहीं होती और टूट जाती है।

                सासु माँ का तो पता नहीं पर जमाई बाबू को तो रात की पाली में भी काम करना पड़ता होगा। तब जागे रहने के लिए थर्मस में चाय-कॉफी अलग ले जानी पड़ती होगी। बहुत कठिन काम है ये। दिन में जगह-जगह रेकी करो, फिर शाम को प्लान इम्प्लीमेंट करो। एकदम एलर्ट और प्रिसीजन चाहिए। जरा सी चूक और सारा प्लान चौपट। हाई प्रॉफ़िट-हाई रिस्क बिजनिस मॉडल है। एंट्रोप्रेन्युरशिप के ऐसे अनूठे उदाहरण कम ही मिलते हैं। मैं चाहता हूँ कि इनको बतौर 'विजिटिंग फेकल्टी' मेनेजमेंट स्कूलों में बुलाया जाये जहां ये अपने उद्दम के 'डूज एंड डोंट्स' पर नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करें। सिलेबस में फेमिली बिजनिस वाले चैप्टर में इनको जगह मिलनी ही चाहिए। ताकि आप भी कह सकें वाह ! क्या चैप्टर है।            

व्यंग्य: ऑफिस और दिल का दर्द

                                                     


                         विशेषज्ञों ने पता लगाया है कि आजकल के ऑफिस दिल का दर्द दे रहे हैं। लोगों को ताबड़तोड़ दिल की बीमारी हो रही हैं। उनका कहना है कि सप्ताह में 60-60 घंटे काम करने से जवान लोगों को भी दिल की बीमारियाँ घेर रही हैं। मेरी खोज इससे अलग है। मेरी स्टडी कहती है कि आजकल के ऑफिस जो दिल का दर्द दे रहे हैं उनके कारण कुछ और ही हैं। ये जो आजकल के ऑफिस हैं ना असल में ये दर्द-ए-दिल के दफ्तर हैं।

 

दर्द-ए-दिल रोजगार है अपना

 

     उस से फुर्सत मिले तो दुनियाँ देखें अपने वर्क-स्टेशन की सुधि लें, हम भी कुछ काम-धंधा देखें।

 

           आजकल के लोग ऑफिस आराम और ऐश करने जाते हैं। मन लगता है। मन लगते-लगते न जाने कब में दिल लगा बैठते हैं। काम से नहीं बल्कि ऑफिस में काम कर रहे सहकर्मियों से। अब ये जो आजकल के ऑफिस कर्मी उर्फ देवदास हैं उनको बहुत सारे काम हैं। नए-नए ब्रांड के कपड़े खरीदने हैं अपने लिए और अपनी पारो के लिए भी। फिर पारो को ये भी दिखाना है कि वे दिल के ही नहीं खींसे के, बोले तो पर्स के भी अमीर हैं। भले घर में हर चीज़ ई.एम.आई. पर चल रही हो। । अपनी गर्लफ्रेंड को मूवी ले जाना है, बाहर फाइन-डाइन को जाना है। पिकनिक पर जाना है। डे आउट करना है। लॉन्ग ड्राइव पर जाना है। नन्ही सी जान कितने सारे काम हैं। अच्छे भले आदमी को दिल का दर्द होना लाजिमी है। अब आप यह तो कह नहीं सकते कि मेरे एक्स ने मुझ से धोखा किया है या फिर ये कि मैं अपनी लिव-इन के और नखरे नहीं उठा सकता। बजाय आप इसे अपने ऊपर लें आप डाल देते है ऑफिस पर, ऑफिस के काम के भार पर। जबकि आप भी जानते हैं कि यह भार किसी और ही चीज़ का है। ये कुछ और ही है जो आपने अपने दिल पर ले लिया है। दरअसल दर्द-ए-दिल की कोई ई.एम.आई. नहीं होती ये तो जब आता है एक साथ पूरा-पूरा उधार इंटरेस्ट समेत ऑन दी स्पॉट वसूल करता है।

 

            दोस्तो ! दिल में दर्द न हो इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि आप चीजों को, काम को, बॉस को, दिल पर न लें। ऑफिस टाइम पर जाएँ टाइम पर छोड़ दें। ऑफिस ऑफिस है घर घर है दोनों के फर्क को पहचानें। ज्यादा खी-खी नहीं। आप वो सुने हैं कि नहीं आज जो होटल में खर्च को बचाओगे वो कल आपके और आपके अपनों के लिए हॉस्पिटल में काम आयेगा। आप जब तक जवान हैं आपको लगता है नई गाड़ी की तरह आपको सर्विसिंग की जरूरता नहीं। मगर एक बार गाड़ी गेराज जाने लगे तो फिर आए दिन जाने लगती है। बस इस बात को ध्यान में रखें। आदमी को यूं ही नहीं ‘इमोशनल-फूल’ कहा गया। वह बहुत जल्द बह जाता है और शीशा देख-देख ये मुगालता पाल लेता है कि उसी में कुछ बात है। भाई साहब ! जो आपकी किस्मत में वह आपके पास खुद चल कर आयेगा। अपना दिल संभाल कर रखें बोले तो बेशर्म बन जाएँ। दिल आपका। अस्पताल का बिल आपका और उसके बाद दुनियाँ भर की दवाइयाँ परहेज और टेस्ट वो भी आपके ही हैं। उन्हें देने आपके ऑफिस का साथी या बॉस नहीं जायेगा। दिल सलामत रहे दफ्तर बहुत मिल जाएँगे और दिलबर भी

Tuesday, August 27, 2024

व्यंग्य: शिवाजी का पुतला और एफ.आई.आर.

 


 

         शिवाजी महाराज का पुतला जिसके उदघाटन को अभी साल भी पूरा नहीं हुआ था ढह गया है। यह पुतला सिंधु दुर्ग के प्रांगण में स्थित था। जबकि सिंधु दुर्ग और उसकी दीवारें ज्यों की त्यों 500 साल से खड़ी हैं। पुतले के टूट कर गिरने से पता चला आजकल की अन्य अनेक घोषणाओं और योजनाओं के माफिक पुतला भी अंदर से पोला यानि खोखला था। पोल (चुनाव) के चलते जो चीज़ बनी हो उसने पोला तो होना ही था। पोल में जय इसका उद्देश्य है। यूं आप देखें तो जय तो हुई ही। हमारी भी जय-जय तुम्हारी भी जय-जय। नेता भी जीते, ठेकेदार भी जीते।


           इससे आप ये न सोचें कि सरकार चुप बैठे देखती रहेगी। तुरंत इसका संज्ञान लिया गया और एफ.आई.आर. करा दी गई है। आपने अगर भारतेन्दु हरिश्चन्द जी का अंधेर नगरी पढ़ा हो तो बकरी के मरने पर किस-किस को न नापा गया जैसे दीवार को, मिस्त्री को, चूने वाले को, पानी वाले भिश्ती को, बड़ी मसक बनाने वाले कसाई को, बड़ी भेड़ बेचने वाले गड़रिये को और शहर कोतवाल को जिसकी सवारी इतने ज़ोर-शोर से निकली की गड़रिये को छोटी-बड़ी भेड़ का ध्यान ही न रहा। इसी तर्ज़ पर आर्किटेक्ट और ठेकेदार के खिलाफ एफ.आई.आर. की बात हो रही है। लेकिन इस बीच नेताजी ने घोषणा कर दी है कि ये हवा के चलने से हुआ है। ये हवा को क्या हक़ है कि 45 मील प्रति घंटे की रफ्तार से चले और हमारे पुतलों को गिराती फिरे। असल में एफ.आई.आर. तो हवा के खिलाफ बनती है। वह किसके कहने पर, किसके बहकावे में इतनी तेज़ चली। उसके निशाने पर और क्या-क्या था। अब मुंबई में तो अनेक बड़ी-बड़ी ऊंची इमारतें हैं, टावर हैं, वो क्यों बची रह गईं। शिवाजी के पुतले को तो अभी उदघाटन करे एक साल भी पूरा न हुआ था और ये हवा है कि इसने बिना आगा-पीछा देखे, लेबर लॉ की तरह लास्ट कम-फ़र्स्ट गो के सिद्धान्त पर हमारे शिवाजी महाराज के पुतले को ही चुना।

 

                हवा हवा ऐ हवा तू इतना बता दे...

               तुझे किसने भेजा है उसका पता दे

 

           अब ये इनवेस्टिगेटिव जर्नलिज्म का विषय है। ये हवा पहले से ही 45 मील फी घंटे के हिसाब से चलती रही है या ये हालिया ट्रेंड है। इसके पीछे किसका हाथ है। क्या इसके लिए विपक्ष या नेहरू को ज़िम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। हो न हो इसमें कोई विदेशी हाथ हो। जैसे एक जगह से ज्यादा पानी छोड़ दो तो दूसरी जगह बाढ़ आ जाती है। इसी तरह बहुत संभव है कि किसी दुश्मन देश ने हमसे विश्वगुरु का दर्जा छीनने के लिए ये प्रपंच रचा हो और अचानक से इतनी सारी हवा एक साथ छोड़ दी कि शिवाजी महाराज का पुतला भरभरा के गिर गया।

 

   ये मात्र पुतले को नहीं, हमारी सरकार को गिराने का षड्यंत्र है। इसे हम हरगिज़-हरगिज़ नहीं सहेंगे। अगली बार के अमरीका, रूस, इटली और आस्ट्रेलिया दौरे के लिए इस आइटम को अजेंडा में डालो जी। हम इसे हर अंतराष्ट्रीय फोरम पर उठाएंगे और इस हवा को रुकवाएंगे।

Monday, August 26, 2024

व्यंग्य: जलेबी और पुलिस

 


 

            ये कोई अखबार वाली खबर नहीं थी मगर आजकल इस ब्रेकिंग न्यूज और घंटे-घंटे न्यूज के ढाई सौ चेनल के चलते ये रोजमर्रा की रूटीन बातें भी खबर बन कर अखबार में आने लग पड़ी हैं। खबर है कि हापुड़ के बहादुरगढ़ में पुलिस थाने के मुंशी ने एक इंसान की मोबाइल खो जाने की रिपोर्ट पर रबर सील (मुहर) लगाने के एवज़ में महज़ एक किलो जलेबी क्या मांग ली, बावेला ही मच गया। हंगामा हो गया। हालांकि मुंशी जी ने चॉइस दी थी अगर जलेबी न मिले तो बालूशाही ले आए। अब क्यों कि मोबाइल की कीमत एक किलो जलेबी या बालूशाही से अधिक थी अतः उसने चुपचाप जलेबी लाकर दे दी और अपनी रपट पर थाने की मुहर लगवाने में सफल रहा। शीश तजि प्रभु मिले, सौदा सस्ता जानि।

 

              देखिये पुलिस और जलेबी का अभिन्न रिश्ता है। पुलिस के कामकाजी तरीके भी जलेबी की तरह ही टेढ़े-मेढ़े, गोल-गोल होते हैं। इस प्रक्रिया में ही उनको जलेबी के रस की और मिठास की प्राप्ति होती है। आपके हाथ रह जाती है सूखी मरियल जलेबी उसी को आप जंगल-जलेबी की तरह अपना हासिल समझ संतोष कर लेते हैं। दूसरी फरमाइश मुंशी जी ने बालूशाही की, की थी। अब देखिये ! यह बालूशाही मात्र बालूशाही नहीं, ज़िंदगी का फलसफा है। ये दुनियाँ, ये मेरा मोबाइल, ये तेरी जलेबी, सब बालू की तरह टेम्परेरी हैं। इनको बालू की तरह ढह जाना है। सब फ़ानी है। शाही, ऑफ कोर्स पुलिसिया अंदाज़ है, फितरत है। आखिर आप अभी कुछ साल पहले तक शाही कोतवाल थे। इंगलेंड में भी पुलिस शाही पुलिस कहलाती है। हमने अपनी  तमाम चीज़ें इंगलेंड से ही ली हैं। अतः ये खबर कोई खबर नहीं कि मुंशी जी ने एक किलो जलेबी ले ली। भई वो मुंशी हैं तो शुकर करो एक किलो से ही मान गए। आप और ऊपर जाते तो आप क्या समझते हो एक किलो जलेबी से ही काम चल जाता। हरगिज़ नहीं। वहाँ जलेबी नहीं, आप से काजू-कतली ली जाती और वो भी एक किलो नहीं बल्कि एक-एक किलो के 50 डिब्बे लिए जाते। हो सकता है पेटी या खोखा लिया जाता। आप खुश हो कर देते भी। फर्ज़ करो आप रिपोर्ट लिखाने गए और अगले ने आपको ही थाम लिया और हवालात में बंद कर दिया कि एक शातिर चोर या यूं कहिए शातिर मोबाईल चोरों के गिरोह का सरगना पकड़ा गया। रात भर, आपकी इतनी खातिर की जाती कि आप सुबह हाथ-पैर पकड़ कर खुशी-खुशी पेटी-खोखा दे देते और जलेबी अलग से।

 

            मैं तो मुंशी जी की भारतीयता का कायल हूँ हालांकि वो पीज़ा, मोमोज या अन्य कोई विदेशी चॉकलेट मांग सकते थे। पर नहीं मुंशी जी विशुद्ध भारतीय है अतः भारतीय पारंपरिक मिठाई ही मांगी। बस अब कोई ये पता लगाए कि ये जलेबी की दुकान कहीं मुंशी जी की ही तो नहीं है ?

 

माथेरान रेलवे के जनक आदमजी पीरभाई


 

             सर आदमजी पीरभाई (13 अगस्त1845-11अगस्त1913) एक भारतीय उद्योगपति थे। वे व्यापार के साथ-साथ एक परोपकारी और सार्वजनिक कल्याण में रुचि रखने वाले इंसान थे। ब्रिटिशकालीन मुंबई का दाऊदी बोहरा समाज उन्हें एक महान सुधारक की दृष्टि से देखता रहा है ।

 

           आदमजी पीरभाई का जन्म सन 1845 ई में गुजरात के गोंडल रियासत के धोराजी नामक स्थान पर दाऊदी बोहरा समाज में हुआ था। उनके पिता कादिर भाई और माता सकीना बानू पीरभाई गरीबी में गुजर बसर कर रहे थे। आदमजी ने 13 वर्ष की उम्र से मुंबई की सड़कों पर माचिस-डिबिया बेचने से अपने जीवन की शुरूआत की। सेठ लुक़मानजी और ब्रिटिश लेफ्टिनेंट स्मिथ ने उनकी बहुत मदद की। 19वीं सदी आते-आते आदमजी की बड़े और धनाढ्य कपास उत्पादकों में गिनती होने लगी थी। उनकी कॉटन मिल में 15000 लोग काम करते थे। वे टेंट और ब्रिटिश सिपाहियों की खाकी वर्दी लिए कैनवस सप्लाई का काम करते थे। द्वितीय बोअर युद्ध के समय उनकी अनेक फेक्टरियाँ, हजारों टेंट और सिपाहियों के जूतों का निर्माण कर रहीं थीं। वे अब तक वेस्टर्न इंडियन टेनरीज़ के भी मालिक बन चुके थे। जिसकी एशिया की सबसे बड़ी टेनरीज़ में गिनती होती थी। ऐसा कहा जाता है कि आदमजी ने जल-पोत निर्माण में बहुत धन अर्जित किया था और उसके बाद वे अन्य वाणिज्यिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे।

   

          आदमजी की कीर्ति और यश यहाँ तक फैला कि वे 1897 ई में मुंबई शहर के प्रथम भारतीय शेरिफ़ और जस्टिस ऑफ पीस बने। वे मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बने और दिसंबर 1907 में मुस्लिम लीग के पहले कराची अधिवेशन की अध्यक्षता आदमजी ने ही की थी।        


         1900 में उन्हे कैसर-ए-हिन्द के टाइटल से नवाजा गया। 1907 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हे नाइट-हुड मिला अब वे सर आदमजी हो गए थे। यद्यपि पारंपरिक दृष्टि से देखें तो वे अल्प शिक्षित थे किन्तु उनकी व्यापारिक बुद्धि अत्यंत प्रखर थी। मोहम्मडन एजुकेशन कॉन्फ्रेंस ने भी उनको सम्मान देते हुए अपना प्रथम अध्यक्ष बनाया। बोहरा समाज ने उनको रफीउद्दीन की उपाधि से अलंकृत किया यह सम्मान 49 वीं सैय्यदना मुहम्मद बुरहानुद्दीन ने उन्हें प्रदान की थी।

                    1884 आते-आते आदमजी पीरभाई ने अनेक संस्थाओं और सार्वजनिक उपयोग के लिए भवनों का निर्माण किया। यथा मस्जिद, सेनोटेरियम, कब्रिस्तान तथा अमनबाई चेरिटेबल हॉस्पिटल (अब सैफी हॉस्पिटल) चर्नी रोड (रेलवे स्टेशन के सामने) इसका निर्माण ज़रूरतमन्द और निर्धन लोगों के इलाज़ के लिए की गई।

                   1892 में मुंबई में प्लेग का प्रकोप हुआ। आदमजी पीरभाई ने विदेश से टीके, दवाई की व्यवस्था की और पब्लिक को अमनबाई चेरिटेबल अस्पताल में मुफ्त इलाज़ उपलब्ध कराया। गुजरात में 1877,1897 के भीषण सूखे के दौरान बड़े पैमाने पर अनाज का वितरण किया। 1866 में बुरहानपुर से लेकर यमन तक रिलीफ़ कार्य किया। मक्का-मदीना में विश्राम स्थलों का निर्माण, काठियावाड़ में अनाथालय से लेकर 27 स्कूलों की स्थापना की। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रिंस ऑफ वेल्स विज्ञान संस्थान की स्थापना की।

 

                 पीरभाई ने अपने पुत्र अब्दुल हुसेन पीरभाई के कंस्ट्रक्शन बिजनिस में पैसा लगाया और नेरल से माथेरान तक पटरी बिछाने और रेल चलाने का काम किया। नेरोगेज़ के इस 21 कि.मी. लंबे रूट को बनाने में16 लाख रुपये खर्च हुए और 1904-1907 काल में यह बन कर तैयार हो गयी। माथेरान हिल रेलवे (M.H.R) आज युनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज सूची में शामिल है। नेरल से चल कर टोय ट्रेन, जुमापट्टी स्टेशन आती है उसके बाद वाटर-पाइप स्टेशन और अमन लॉज स्टेशन होते हुए यह लगभग दो घंटे बीस मिनट में माथेरान पहुचती है। आज़ादी के बाद इस रेलवे सिस्टम और इससे जुड़े समस्त असेट्स का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। वर्तमान में यह मध्य रेलवे के अंतर्गत आता है।  इस रेलवे सिस्टम को बनाना कितना दुरूह और दुष्कर रहा होगा इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि तब न तो हवाई सर्वे मुमकिन थे, न आधुनिक जे.सी.बी. होती थी। कारीगरों और मज़दूरो ने अपने हाथों से काट-काट कर इस रेलवे का निर्माण किया।

                        


               माथेरान में टूरिस्ट की सुविधा और ठहरने के लिए समुचित व्यवस्था न थी तब आदमजी ने दो चार नहीं, छोटी बड़ी पूरी 105 सराय, डोरमेट्री, विश्रामस्थलो का निर्माण किया। अमन लॉज स्टेशन दरअसल आदमजी की माता जी के नाम अमनबाई के नाम पर रखा गया है। 1912 में एक बोहरा टूरिस्ट की अकस्मात मृत्यु होने पर माथेरान में आदमजी ने 30 हज़ार फीट के क्षेत्र में कब्रिस्तान का निर्माण किया। आज माथेरान में आपको एक चहल पहल भरा बाज़ार, रेस्तरां, होटल, और आपको घुमाने के लिए गाइड तथा घोड़ों की भरपूर व्यवस्था है। माथेरान भारत का इकलौता हिल स्टेशन है जहां वाहन (मोटर कार आदि) ले जाने की अनुमति नहीं है। 

                     


 

                      आदमजी पीरभाई के वंशजों को इस बात का दुख है कि उनकी इतनी बड़ी रेलवे सरकार ने ले ली और उनकी छोटी सी इच्छा पूरी नही की। वे चाहते थे और अब भी चाहते हैं कि माथेरान स्टेशन का नाम उनके पूर्वज और इस रेलवे के जनक आदमजी पीरभाई के नाम पर रखा जाये, उनको फ्री टोकन पास दिया जाये माथेरान में अन्य भवनों के नाम उनके नाम पर रखे जाएँ। अभी तक उनकी सुनवाई नहीं हुई है हांलाकि रेलवे स्टेशन पर अब्दुल हुसैन पीरभाई का एक बड़ा तैल चित्र लगा है।

Thursday, August 22, 2024

व्यंग्य: लेट्रल एंट्री के फायदे

 सरकार में एंट्री के अनेक तरीके और रास्ते हैं। कोई लिखित परीक्षा देता है, कोई इंटरव्यू देता है। कोई वाक-इन-इंटरव्यू देता है कोई सीधा नौकरी में ही वाक-इन करता है। लेटरल एंट्री के कई फायदे हैंइसे वापिस लेने के फायदे कहीं ज्यादा होंगे तभी न वापिस लिया। अब आप सोचते रहें कि नोटफिकेशन जारी करना मास्टर स्ट्रोक था या वापिस लेना...वांदा नहीं। आप चाहे तो कह सकते हैं कि दोनों ही अपने आप में मास्टर स्ट्रोक हैं। लाभ कितने हैं ये तो आपको पता ही हैं, नहीं पता है तो किसी भी उस बंदे या उसके परिवार से पूछ लो जिनको इस के थ्रू एंट्री मिली है। देते रहो आप प्रिलिम, मेन, मेडिकल और इंटरव्यू। आप लेते रहो बेसमेंट में कोचिंग, मरते रहो बाढ़ में। न रिज़र्वेशन का झंझट, न पेपर लीक करने की चिंता। लेटरल वाले तो सीधे दसवें फ्लोर पर अफ़सरी शुरू कर देते हैं। बेसमेंट वालों को वहाँ पहुँचने में 20 साल लगते हैं। नो बेसमेंट प्लीज़ ! वी आर लेटरल एंट्री।

 

          आप सोचो इससे कितना कीमती वक़्त बचता है। ये क्या पेपर में वही घिसा-पिटा एड, लाखों रुपये का खर्चा। क्या ये हमारे गरीब देश को शोभा देता है। फिर बोरे भर-भर कर आवेदन आएंगे। उनकी छंटनी करो। पोस्टल ऑर्डर अलग करो, उन्हे समय रहते जमा करो, लिखित परीक्षा, पेपर सेट, पेपर लीक, इंटरव्यू, मेडिकल, दोनों पार्टी पागल हो जाएँ। लेटरल एंट्री में फायदा ये है कि ये सिंगल विंडो की तरह है। कहीं और जाने का झंझट ही नहीं। मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोय। न सिलेबस, न किताब, न नोट्स,ज्ञान पेलने वाले स्वनाम धन्य प्रोफेसर। वैसे भी पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ.... !  

 

            वैसे एक बात है लेटरल एंट्री पर इतनी हू-हा इतना बावेला क्यों ? ये लेटरल एंट्री कहां नहीं है ? वकील का बेटा वकील बनता है, बनता है कि नहीं। डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बनता है। भैया ! बनी बनाई लाइब्रेरी, सजा  सजाया क्लीनिक मिल जाता है। बनी-बनाई गुडविल मिलती है, रेडीमेड पेशेंट / मुवक्किल मिलते हैं। और जीने को क्या चाहिए? दिल्ली की बंगाली मार्किट में एक डॉ गांधी का क्लीनिक होता था। डॉ गांधी के बरसों बाद तक जो भी डॉ उस क्लीनिक में  बैठता वो डॉ गांधी ही कहलाता था। अतः लेटरल एंट्री कोई गंदी बात नहीं है। इंडस्ट्रियलिस्ट का बच्चा सीधे डाइरेक्टर से शुरू करता है न कि अप्रेंटिस या मेनेजमेंट ट्रेनी से। सरकार किसी की भी हो गरीबपरवर होती है न भी हो तो कहने में क्या हर्ज़ है। दरअसल सरकारों का बहुत सारा टाइम, बहुत सारा बजट और श्रम ये प्रूव करने में लगता है कि वे गरीबपरवर हैं और अब तक की जितनी सरकारें आईं उन सबमें सबसे बड़ी गरीबपरवर है। कुर्सीनशीन हमेशा यह भी कहते हैं कि हम विपक्ष की तरह पत्थर दिल नहीं। हमारा दिल मोम का है। विपक्ष ने इस तरह की जितनी भर्तियाँ की वो अपने चहेतों की, की हैं जबकि हमने सब विषय के एक्सपर्ट लिए हैं। वो जानते हैं हमें क्या चाहिए इसके वो एक्सपर्ट हैं। नोट ही ऐसा लिख कर लाते हैं और फिर हमें  ज्यादा सिर नहीं खपाना पड़ता। बल्कि वो सिर हिलाने मात्र से समझ लेते हैं क्या चाहिए...वैसा नोट आ जाता है। पढ़ने की भी ज़रूरत नहीं। हमें तो बस चिड़ियाँ बिठानी होती है, बोले तो सही करना होता है। तभी न कहते हैं किंग कैन डू नो रॉन्ग। 


                 

Sunday, August 18, 2024

व्यंग्य: जीवन में पीछे बैठने के फायदे

 

जीवन में पीछे बैठने के अनेक फायदे हैं। ये वो लोग नहीं जानते जो पहली पंक्ति में बैठते हैं। पहली पंक्ति में बैठने के नुकसान मैं स्कूल-कॉलेज से ही देख रहा हूँ। आप हमेशा नज़र में रहते हैं और आपका 'क्रिटिकल रिव्यू' सा कुछ सतत चलता रहता है। पहली पंक्ति से आगे आप जा नहीं सकते। या तो नीचे गिर जाएँगे या क्लास से बाहर हो जाएँगे। जबकि पीछे की पंक्ति में बैठने के जो फायदे है उनमें से कुछ आपके लाभ के लिए यहाँ दे रहा हूँ। अतः जब भी जीवन में मौका लगे पीछे की सीट पकड़ लीजिये और फिर राम झरोखे बैठ सबका मुजरा लीजिये
1. आप सब पर नज़र रख सकते हैं, आपको कोई नहीं देख सकता। याद है कैसे वो 'इनविजिलेटर' बहुत खतरनाक होता था जो परीक्षा रूम में पीछे खड़ा हो जाता था। आप नकल या कोई अन्य दंद-फंद नहीं कर सकते थे। न जाने कब दबे पाँव आकर आपको दबोच ले।
2. जब आप पीछे बैठते हैं तो लाइफ़ में आगे बढ़ने को कुछ न कुछ दिखता रहता है। आगे बढ़ने का 'मोटिवेशन' बना रहता है। जो पहले ही आगे बैठे हैं उनकी चिंता तो महज़ यह होती है कि कैसे न कैसे यह पहली सफ बनी रहे, यहाँ से इधर-उधर होना अपमान का बायस होगा।
3. आगे जो बैठते हैं वो बहुत ‘सैल्फ-काॅन्शस’ रहते हैं, मैं टिप-टॉप दिख रहा हूँ कि नहीं, हेयर-डाई ठीक लगी है अथवा नहीं। हाई कमांड ने देखा कि नहीं, इस बार हाई कमांड वैसे नहीं मुस्कराये जैसे पिछली साल मुस्कराए थे। लेडिस का अलग चिंतन चल रहा था। पार्लर वाली ने काम ठीक किया है या नहीं, मेरे साड़ी नोटिस हुई या नहीं, कोई और तो मेरी जैसी साड़ी नहीं पहने था।
4. आप पीछे बैठ कर मुस्करा सकते हैं, बातचीत कर सकते हैं, अपने अगले प्रोग्राम बना सकते हैं। आप पर ‘परफाॅर्मेंस प्रेशर’ नहीं होता। आप किसी भी दबाव में नहीं होते हैं।
5. आप पीछे बैठ कर देख सकते हैं कि किस-किस नेता की उम्र क्या है, किस किस की हेयर-डाई ठीक नहीं लगी है और उनके सिर के गंजेपन से उनकी उम्र का सही आंकलन किया जा सकता है। किसको रिटायर किया जा सकता है किसको अभी एक-आध साल और चलाया जा सकता है।
6. कुशल सैन्य संचालन के कौशल में आप जानते ही हैं कि आगे की लाइन में या तो गाय-बैल रखे जाते थे या फिर लेडिस को रखा जाता था। शत्रु कन्फ्यूज़ हो जाता था, गाय-बैल पर, लेडिस पर आक्रमण किया जाये या नहीं।
7. ध्यान रहे थियेटर में पीछे की सीट की क़ीमत आगे की सीट की मुकाबले कहीं ज्यादा होती है।
8. पीछे की सीट पर बैठ कर आप चिट/नोट पास कर सकते हैं। मोबाइल देख सकते हैं, मैसिज भेज और पढ़ सकते हैं।मोबाइल पर गेम खेल सकते हैं। किसी का ध्यान भी न जाएगा और आप अपना काम कर जाएँगे। इससे आपको सीख भी मिलेगी कि जब आप सत्ता में आएंगे तो आपको क्या करना है क्या नहीं करना है।
9. पीछे की सीट पर बैठ कर आप चाहे तो ऊंघ सकते हैं या चाहें तो हँस और मुस्करा सकते हैं। आपको जबर्दस्ती का हँसना-मुस्कराना नहीं पड़ेगा और न ही बात बे- बात पर ताली बजानी पड़ेगी। आपने ये नहीं सोचना है कि क्या पहनें कुर्ता-पाजामा या टी-शर्ट। आप जब चाहें तब पीछे के दरवाजे से धीरे से कट सकते हैं, किसी का ध्यान भी न जाएगा। यह विलासिता आगे की सफ में बैठे लोगों को उपलब्ध नही। वे ऐसा करेंगे तो शायद उनकी छुट्टी ही हो जाये।
10. ऐसा कहा जाता है कि ‘मीक शैल इनहेरिट दी अर्थ’ अर्थात जो गरीब-गुरबा है जो निर्बल-लाचार है पृथ्वी का असली स्वामी/हकदार वही है और अंतिम हँसी उसी की होगी।
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Sunday, August 11, 2024

व्यंग्य : क्लीन चिट

 

पहले जब कपड़े मैल पकड़ते थे तो हम कपड़े भट्टी पर चढ़ाते थे, घर में हम लोग नील लगाते थे, टिनोपाल/रानीपाल लगाते थे। आजकल ‘आला’ में डालते हैं। अब जब से नेता लोग मैल पकड़ने लगे हैं वो किसी न किसी ‘कोरट’ से क्लीन चिट ले आते हैं। फिर सभ्यता और आगे बड़ी तो वे खुद ही एक-दूसरे को क्लीन चिट देने लगे। नेता देता है तो लेता भी है। अतः नेता यूं ही सैंत-मैंत में क्लीन चिट नहीं देता। फिर इस सब में टाइम बहुत लगता था। तब आई एक क्रांतिकारी योजना कि क्यों न नेता खुदै ही खुद को क्लीन चिट दे देवे। जीव-जीव सब एकसै।
तब शुभारंभ हुआ खुद को खुद के कामों के लिए क्लीन चिट देने की पवित्र परंपरा का। अब जो है सो, आपने कभी अपने बचपन में या बोले तो किशोरावस्था/युवावस्था में कोई कैसी भी गलती की हो (लड़कों से गलती हो ही जाती है) यह सोच कर आप जैसे ही थोड़े से भी खुदमुख्तार हुए अपने आप को पहले अवसर पर क्लीन चिट दे दें। सेल्फ अटेस्टेशन की तरह। अव्वल तो कोई चूँ करेगा नहीं, करे तो भी वान्दा नहीं। सोचने का नहीं। न कोई प्रतिक्रिया देनी है। आपका ब्रह्म वाक्य है “मेरी न्यायपालिका में पूरी-पूरी आस्था है”। अब देखो भाई ! आपकी जैसे नगर पालिका में आस्था थी, उसकी टेंडर व्यवस्था में आस्था थी बस वैसी ही कुछ न्यायपालिका में है और रहेगी।
अब जित देखो तित लोग बाग अपने आप को क्लीन चिट देने में बिज़ी हैं। यह क्लीन चिट बड़े काम की चीज़ है। नेताओं का तो यही राशन कार्ड है, यही सच मायने में जीवन का आधार है, आधार कार्ड है।
अब आप चाहें तो खुल कर चोरी कर सकते हैं और कोई कुछ पूछे उस से पहले ही खुद को क्लीन चिट दे छोड़ें, मसलन आप उस दिन शहर में थे ही नहीं। ज्यादा हो तो आप उस दौरान मुल्क में ही नहीं थे। ये आपकी नर्म निर्मल छवि को धूमिल करने का बचकाना प्रयास भर है। हम इस क्लीन चिट को वाजिब दाम पर वाहन प्रदूषण के पी.यू.सी. की तरह जगह-जगह, नुक्कड़-नुक्कड़ बूथ पर उपलब्ध कराएंगे। आखिर क्लीन चिट पर गरीबों का भी कोई हक़ है कि नहीं। ‘आपकी क्लीन चिट-आपके द्वार। समय-समय पर लोक अदालत की तरह क्लीन चिट, केंप लगा कर वितरित की जाया करेंगी।
इसी तरह यदि आप हत्या, हत्या का प्रयास, बलात्कार, डकैती, मानव- अंग तस्करी, या पूरे के पूरे मानव की तस्करी, स्मगलिंग, जालसाज़ी, मनी-लॉन्डरिंग गोया कि क्राइम कोई हो, गुनाह कोई हो ऐसा कौन सा दाग है जो धोया न जा सके। हम आपकी सेवा में एक कदम आगे जाकर आपके लिए अग्रिम जमानत के माफिक ‘अग्रिम क्लीन-चिट’ स्कीम लाएँगे। इसके अंतर्गत आप पहले से ही ‘एंटीसीपेट्री क्लीन-चिट’ ले कर खींसे में रख सकते हैं। कोई कहीं धर-पकड़ हो, आप को ड्राइविंग लाइसेन्स की तरह दिखाना भर है और पुढे चला !

Sunday, August 4, 2024

व्यंग्य: लीक देखन मैं गया...

 

              लीक एक प्राकृतिक क्रिया है। इसमें कोई शर्म या लज्जा की बात नहीं है। कहते हैं ताज महल में भी बारिश की एक बूंद मुमताज़ की क़ब्र पर गिरती है। वो सात सौ साल पहले की बात है। अब साइंस ने तरक्की कर ली है। अब पानी बूंद-बूंद नहीं गिरता बल्कि धड़ल्ले से बादल फटने के माफिक गिरता है। यह हमारी भारतीय समृद्ध परंपरा का बेहतरीन उदाहरण है। हम सेकूलर हैं अतः पानी मंदिर में भी गिरता है, हवाई अड्डे पर भी गिरता है। चलती हुई रेल में भी गिरता है और खड़े हुए रेल स्टेशन में भी गिरता है। गिरे तो गिरते चले गए। जो लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं वे अनपढ़ हैं उन्होने कवि रहीम को पढ़ा ही नहीं है। पढ़ा है तो उसका मर्म नहीं समझते। रहीम बहुत पहले कह गए थे:

 

             रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून...

 

         बजाय शुक्रगुजार होने के हम उल्टा कभी सरकार को, कभी व्यवस्था को, कभी ठेकेदार को, कभी इंजीनियर को कोसते हैं। देखिये हम कंजूमर इकोनोमी में रह रहे हैं। पानी गिरता है तो छतरी, रेन-कोट, गम-बूट, की बिक्री होती है। ज्यादा बारिश होने पर नीली बाल्टी की खपत बढ़ती है, बढ़ती है कि नहीं ? दरअसल नीली बाल्टी और नीली ताड़-पतरी हमारे लेटेस्ट राष्ट्रीय सिम्बल हैं। घर-घर बाल्टी बिल्डिंग-बिल्डिंग ताड़-पतरी। बाल्टी बनाने वालों को, छतरी बनाने वालों और रेन कोट बनाने वालों को रोजगार मिल रहा है, मिल रहा है कि नहीं। बस आपको तो शिकायत करने से मतलब है। देखिये नए संसद हॉल में जो पानी गिर रहा है वो जानबूझ कर गिराया जा रहा है ताकि एम.पी. लोग आम आदमी की कठिनाई को जान सकें, अच्छे से महसूस कर सकें। इसी को अंग्रेजी में फर्स्ट हेंड नॉलेज कहते हैं। ये अज्ञानी विपक्ष वाले और यू ट्यूबर जानते तो हैं नहीं, लगे गाल बजाने। अरे भई ! ये हमारी सोची समझी स्ट्रेटेजी है। तुम क्या जानो ? ये टेक्नोलोजी की बातें हैं। तुम्हारी समझ से बाहर की बात है। 70 साल में पहली बार अमृत-काल में इसे हमने अपनाया है। ये हमारा एक प्रकार का रक्षा कवच है।


         पीछे कोचिंग सेंटर में पानी आ जाने से लोग थर्रा ही गए। अब समय आ गया है कि यू.पी.एस.सी. अपने सिलेबस में स्विमिंग, डिजास्टर मेनेजमेंट, फ़्लड एडमिनिस्ट्रेशन, संकट ग्रस्त स्थिति में कैसे बचा जाये। भारत में ट्रेनिंग से लेकर पोस्टिंग तक इसकी ज़रूरत रहनी ही रहनी है। और अब बात लेते हैं परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होने के इशू को। लीकों का लीक, क्वेश्चन पेपर लीक है। क्वेश्चन पेपर लीक सभी लीकों का राजा है या रानी है। पेपर भले कोई सा हो, कहीं का हो, लीक होना ही होना है और फिर पूरी परीक्षा रद्द होनी ही होनी है। सो लीक से हटें नहीं। लीक हमारा इतिहास है। लीक हमारा वर्तमान है और लीक ही हमारा भविष्य है।