Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Sunday, October 17, 2010

हमारी अशिक्षा नीति

पिछले दिनों एक विवाह समारोह में एक पुराने मित्र मिले. मैंने हाल-चाल जानने की गरज से पूछा कि क्या चल रहा है. उन्होंने बताया कि उनका बांस-बल्लियों का व्यापार बहुत अच्छा चल रहा है. आजकल हर जगह अवैध निर्माण हो रहे हैं सो बहुत डिमांड है. बड़ा लड़का सीमेंट की एजेंसी लिए है तथा ठीक-ठाक कमा रहा है . छोटा आगे पढ़ नहीं पाया तो उसे स्कूल खोल दिया है. मैं चकराया. ये स्कूल खोल दिया है उन्होंने दूकान खुलवा दी है के लहजे में कहा था. उन्होंने तफसील से बताया चार मास्टरनियां रख ली हैं. चार सौ रुपये में. १२०० पर हस्ताक्षर लेते हैं. बहुत खूबसूरत हैं और सबसे बड़ी बात है गिटपिट गिटपिट अंग्रेजी बोलती हैं. मैंने तो जगदीसा को कह दिया है बच्चों की युनिफोर्म कैसी भी हो पर टाई जरूर होनी चाहिए. इसके दोहरे लाभ हैं. माता-पिता पर तो रौब पड़ता ही है वे भी दूसरों पर रौब डाल सकते हैं.







ये है एक झांकी हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था की. हम जब भी शिक्षा की बात करते हैं कोई भी वर्तमान प्रणाली में खामियों में सुधार पर नहीं बोलता बल्कि एक नयी प्रणाली लांच करने की बात करते हैं. इस क्षेत्र में अभिनव प्रयोग होते रहते हैं. मांटेसरी सिस्टम. मॉडल स्कूल, नवयुग स्कूल, केन्द्रीय स्कूल, नवोदय प्रणाली १०+२+३, ५+३+३, ८+२+२ अचम्भे की बात तो यह है कि इन सबका योग शून्य ही हो जाता है. हर एक व्यवस्थापक अपनी प्रणाली को बेहतरीन व पिछली प्रणाली को अदूरदर्शी, संकीर्ण और मूर्खतापूर्ण बताता है.






जब मोंटेसरी प्रणाली का जोर था उन दिनों अन्य पाठशालाओं को हेय दृष्टि से देखा जाता था और मांटेसरी स्कूल को वही दर्ज़ा प्राप्त था जो कीचड में कमल को है. उन दिनों माता पिता को यह यकीं हो चला था कि अगर मांटेसरी में बच्चे नहीं पढते हैं तो पढते ही क्यों हैं बल्कि पैदा ही क्यों होते हैं. वाहन की टीचरें बहुत शोख,सुन्दर,चपल अंग्रेजी बोलने वाली हुआ करती थीं. बिलकुल परी मालूम होती थी. ज़माना बदल गया. मांटेसरी कि जगह आये प्रेप, नर्सरी और के.जी.(बी) क्लास. (ये सोवियत रूस से मित्रता का दौर था) पालने और गोद में से बच्चे छीन - छीन कर बालवाड़ी और बाल-मंदिर में भर्ती कराये जाने लगे. ये अधिकतर घर के पिछवाड़े या परछत्ती पर चलाये जाते हैं. बच्चे रिक्शे में बैठे ऐसे लगते हैं जैसे उन्हें पिंजरे में क़ैद करके तबेले को ले जाया जा रहा हो. भावी नागरिक यहीं से ‘ जॉनी जॉनी यस पापा, ईटिंग शुगर नो पापा’ के साथ झूठ बोलना सीखते हैं. जनसँख्या नियंत्रण को नागरिकों ने उल्टा ले लिया. परिणाम हम सबके सामने है. राजकीय स्तर पर धुआंधार प्रयासों के फलस्वरूप चुंगी के प्राथमिक माध्यमिक स्कूल तम्बू में अथवा पेड़ के नीचे और बहुधा खुले मैदान में टाट-पट्टी और टूटे ब्लैक बोर्ड के सहारे चलते रहे हैं. इन तम्बू मार्का स्कूलों में माता पिता को एक लाभ था कि इंटरव्यू नहीं, डोनेशन नहीं, और फीस भी बहुत मामूली . बच्चों को लाभ था कि रेनीडे की छुट्टी बहुत सुलभ थी. टूटा-फूटा संडास, पुराने गंदे टूटी खिड़की के फट्टे से ढंके घड़े. ताज्जुब यह है ऐसा कीटाणु सहित पानी पी कर भी बच्चे बीमार नहीं पड़ते थे. एक आजकल के बच्चे हैं नालायक. बिना फ़िल्टर वाली वाटर बॉटल न ले जाएँ तो शाम तक उनके पेट में दर्द हो जाता है, बुरी तरह खांसने लगते हैं. डॉक्टर के पास ले जाओ तो वे छूते बाद में हैं पहले पांच मुक्तलफ टेस्ट आर्डर कर देते हैं ताकि आप टेस्ट कराने की उधेड़बुन में डिप्रेस हो कर भाग भी न सकें.






इस प्रयोगवाद के बाद सरकार ने कुछ प्रगतिवाद की दिशा में सोचा. कुछ नया होना चाहिए. झट उन्होंने अपने स्कूल में ही अमुक स्कूल मॉडल स्कूल होगा की घोषणा कर दी. खाकी निकर की जगह सफ़ेद निकर हो गयी. जब मॉडल स्कूल भी लोगों को न बहला पाए तो सेंट्रल स्कूल चालू किये गए. विशेषतः सस्ती दर पर पाठ्यक्रम की अखिल भारतीय स्तर पर समानता (हिंदुस्तान में और कहीं समानता तो संविधान में समानता के अधिकार में ही पढ़ने को मिलती है) खाली बैठी पढ़ी लिखी महिलाओं को काम मिला. कुंवारियों की शादी में आसानी हुई. विवाहितों के घर टूटने के कगार पर आ खड़े हुए. (ट्रान्सफरों के कारण ) और सबसे बड़ी बात जिन मास्टरों को कोई पूछता नहीं था तथा जो अपना परिचय देने में झिझकते थे उनकी भी पूछ हो गयी और दाखिले के मौसम में वे भी मास्टर ऑफ यूनिवर्स हो गए और आई एम द पॉवर चिल्लाने लगे.






जनता बच्चों की तरह हरदम कुछ नया खिलौना चाहती है. इतने बड़े शिक्षा विभाग को भी कुछ काम चाहिए अतः बेहतर से बेहतरीन शिक्षा की दिशा में अभिनव प्रयोग होते रहते हैं. नवीनतम योजनाओं का भारीभरकम आकर्षक नामकरण किया जाता है जैसे एस.यू.पी.डब्लू . पता लगा इस से बनता है सोशली यूजफुल एंड प्रोडक्टिव वर्क. अब कोई इनसे पूछे अब तक जो आप पढ़ा रहे थे क्या वह सोशली यूजफुल नहीं था या कि अनप्रोडक्टिव था. १०+२+३ के गणित को ८+३ वाले नहीं समझ सकते. कोशिश भी करते हैं तो उन्हें पहले ही हायर मैथ कह के डरा दिया जाता है. देखते ही आपके छक्के छूट जाएँ. फिर चली ‘सबके लिए शिक्षा’ क्यों कि अचानक ज्ञात हुआ कि अब तक शिक्षा सबके लिए नहीं थी. मात्र क्लास फोर और क्लास थ्री के सफेदपोशों का उत्पादन करनेवाली फैक्टरियां थीं. वे अपने हाथ से काम करने के सिवाय और कुछ भी कर सकते हैं. इंडिया गेट के लॉन में सरकार बनाने गिराने से ले कर फाइल दबाने,गायब कराने तक.






प्रौढ़ शिक्षा तो और भी बेजोड शिक्षा है. जाओ मत जाओ. फर्जी रजिस्टर,नकली प्रौढ़. असली है तो बस पैसा जो इसके नाम पर लिया दिया जाता है. आये दिन के बढते हुए खर्चे यथा बिल्डिंग फंड, लाइब्रेरी फंड, गेम्स फीस और बात बात में ‘फेट’ की अंकल-आंटियों को बेचे जाने वाली रेफल टिकटें. नन्हे नन्हे बच्चे जब इसरार करके टिकट बेचते हैं तो कौन निर्दयी होगा जो ऐसे स्वीट बच्चों को मना करेगा. इन सबसे तंग आकर एक पिता ने साफ़ कह दिया ‘मेरे पास तो तुम्हें पढाने को पैसे हैं नहीं ज्यादा शौक़ है तो बड़े हो कर प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र में पढ़ लेना. वैसे पढ़ कर ही क्या तीर मार लोगे आज कल सब बड़े बड़े आदमी अनपढ़ हैं विधायक,सांसद, मंत्री यहाँ तक कि मुख्यमंत्री भी. अतः अशिक्षित बने रहने में अब अधिक संभावनाएं हैं.








No comments:

Post a Comment