Ravi ki duniya

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Monday, June 12, 2023

व्यंग्य: दलित खाने से टिफिन राजनीति तक

 


             पुरानी कहावत है जिन्हें अपना समझते हैं उनसे रोटी-बेटी का संबंध बनाया जाता है। कहने - सुनने में आता है अमुक गाँव से, अमुक बिरादरी से हमारा रोटी-बेटी का नाता है अथवा नहीं है। जिनसे नाता तोड़ा जाता था खासकर जिन लोगों को समाज से निकाल दिया जाता था, छेक दिया जाता था उनके बारे में कहते थे कि अमुक का हुक्का-पानी बंद कर दिया गया है। बात घूम-फिर कर शादी-ब्याह, खाने-पीने पर ही आकर रुकती। अब शहरीकरण और होटल, रेस्टोरेन्ट कल्चर के आने से खाने-पीने की वर्जनाएं शिथिल हुई हैं। बाद बाकी कसर स्विगी, जमेटो के चलते समाप्त प्राय: हो गईं।

 

                    इन सबसे नेताओं में चिंता होना स्वाभाविक है। अब वो क्या अनोखा करें कि न्यूज बने और वो भी ऐसी कि जिससे यह प्रोजेक्ट हो सके कि दलित वर्ग के सबसे बड़े हितैषी वही हैं, कोई दूसरा नहीं। खासकर, विपक्षी तो हरगिज़ नहीं। आप इफ्तार पार्टी को भी कुछ-कुछ इसी वर्ग में रख सकते हैं। जहां ग़ैर-मुस्लिम लोग रोज़ा तो रखते नहीं हाँ मगर इफ्तार पार्टी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। अपनी नेटवर्किंग करते हैं। इफ्तार पार्टी को बाहुबली लोग अपनी शक्ति प्रदर्शन का एक माध्यम बना लेते हैं। फोटो खिंचाते हैं जो फ्रंट पेज़ नहीं तो पेज़ तीन के खूब काम आतीं हैं।

 

                 पिछले कुछ सालों से दलित के घर खाने का फैशन चल निकला मगर फैशन तो फैशन है। अदलता-बदलता रहता है। कभी तंग मोहरी, कभी बैल बॉटम, फिर तंग मोहरी आदि-आदि। देखा-देखी सबने वो ट्रेंड फैशन की तरह अपना लिया। जिस दल को देखो वही किसी न किसी दलित के घर डेरा डाल लेता। अलबता इसका पहले खूब प्रचार-प्रसार किया जाता कि इससे कैसे दलित सशक्तिकरण को एक नई दिशा मिलेगी असल में इससे नेता जी का अपना ही सशक्तिकरण हो रहा होता है, प्रेस-काॅन्फरेंस की जाती, फोटोग्राफर जमाये जाते। बैठने के एंगल सेट किए जाते। पकवानों की सूची बनती। फिर पत्तल मंगाए जाते। ताकि दलित, दलित सा तो लगे। ग़रीब और वंचित। जिस पर प्लेट, थाली-कटोरी के भी पैसे नहीं। दरअसल फोटो ही खींचना है कोई असल में खाना थोड़े ही खाना है। फिर उनके बर्तन में ? न बाबा न ! कोई इन्फेक्शन हो गया तो ? डर्टी पीपुल। अभी कितने इलाके कवर करने हैं। खाना शहर के सबसे टॉप होटल से मंगाया जाता। कई बार तो बिल के पैसे बेचारे दलित से ही वसूले जाते। अबे ! देख नहीं रहा तेरे घर खुद नारायण चल कर आए हैं। शबरी के बाद ऐसा कभी देखा सुना था तूने ? चार पैसे नहीं खर्च सकता। इस भोज के बाद तेरा गाँव में कितना नाम होगा। गाँव के सैकड़ों घरों मे से तेरा घर चुना गया है। तुझे तो उत्सव मनाना चाहिए। आज के इस भोज के बाद अब तू गाँव में राजा भोज हो गया है, गंगू तेली नहीं रहा।

 

                   ऐसा जब तक चुनाव की वेला रहती किसी न किसी गाँव में किसी न किसी दल द्वारा यह जारी रहता और प्रचार थमते ही सब थम जाता। मैं अपने बंगले, तू अपनी झोंपड़ी। अगले चुनाव में फिर मिलेंगे। एक के बाद एक ऐसे आयोजनों ने इस दलित-भोज की चमक फीकी कर दी। हरेक ऐरा-गैरा मुंह उठाए दलित के घर खाने पहुँच जाता इससे इसमें जो 'यूनिकनेस' थी वो खत्म हो गई। वो क्या कहते हैं 'क्लिशे' बनते बनते रूटीन हो गया। जब आपके जादू की पोल खुल जाये तो खेल जमाये रखने के लिये जरूरी हो जाता है कि मदारी ट्रिक बदल ले। कोई दूसरा खेल दिखाने लग पड़ता है। इस बीच दलित गुहार लगा रहे हैं "साब जी ! कभी खाने पर अपने घर भी तो बुलाईये"। अब उसे कौन समझाये पहले तो फैमिली तैयार नहीं होगी, हो भी गई तो वो 'एम्बियन्स' कहाँ से आ पाएगी और सबसे बड़ी बात अब चुनाव खत्म हो गये इसे घुसने किसे दिया चौखट पर ?

 

                  इसलिए अब लेटेस्ट है टिफिन राजनीति। याद है पहले एक चलती थी डिनर डिप्लोमेसी। टिफिन मीटिंग में बहुत सुभीता है। भैया सब अपने-अपने घर से टिफिन लेकर आओ, खुद खाओ, हमें खिलाओ, बैठो हमारे साथ, फोटो खिंचाओ और फूटो यहाँ से। दिखाई मत देना दूर-दूर तक। मैं सोच रहा था ! सबके टिफिन एक जैसे होते हैं ये टिफिन पार्टी दफ्तर ने परमानेंट खरीद लिए हैं या फिर इसका ठेका किसी पार्टी वर्कर के भाई या मैडम को मिल गया है जिन्हें टिफिन सर्विस का तजुरबा पहले से होगा ही।

 

                   अब मैं सोच रहा हूँ टिफिन सर्विस के बाद अगला ईवेंट क्या हो सकता है। भारत में बहुत व्यंजन हैं। मेरे कुछ सुझाव हैं:

 

पानी-पूरी पार्टी

चाट-चर्चा

समोसा सेमीनार

दही-भल्ला सम्मेलन

छोले-भटूरे संवाद

चूरमा-बाटी कॉन्फ्रेंस

पुलाव-वार्ता

                

                 आखिर यूं ही तो नहीं मेरे भारत महान में 'मल्टी पार्टी सिस्टम' बताया जाता थोड़ा वेट करिये पास्ता, नूडल, मेक्रोनी, मोमोज, सभी आएंगे ! सुना नहीं अब हम विश्वगुरु हो गयेले हैं।

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