Ravi ki duniya

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Tuesday, June 6, 2023

रेलवे एक्सीडेंट -- आदमी और इंसान

              

दुनियाँ भर मे हर क्षण कहीं न कहीं कोई न कोई दुर्घटना घटित होती रहती है. तेज़ रफ्तार ज़िंदगी में यह अनहोनी भले हो मगर हो रही है तो हो रही है। असल में 'फेल-सेफ' या 'ज़ीरो एक्सीडेंट' एक आदर्श है एक गोल है। ज़रूरत इस बात की है कि कितनी जल्दी कितनी सूझ बूझ से मदद पहुँच जाती है। जिस समाज में हम रह रहे हैं वह कितना संवेदनशील है। 'व्यवस्था' का रिसपाॅन्स टाइम और रवैया क्या है ?

रेल दुर्घटना में प्राय: देखा गया है कि सरकरी मदद पहुंचे, डॉक्टर नर्स, एक्सीडेंट रिलीफ़ ट्रेन पहुंचे, हेलीकाॅप्टर घनघनाएं, नेतागण लपकें उस से पहले निकटवर्ती गाँव के बाशिंदे भाग छूटते हैं। यहाँ बाशिंदों से मेरी मुराद मवेशी छोड़ सबसे है क्या आदमी, औरत, क्या किशोर, क्या बच्चे। यहां तमाशबीन ज्यादा होते हैं। आनन-फानन में बड़े-बूढ़े और सयाने किशोर घायलों की मदद को आते हैं। दिल से मदद करते हैं। जी-जान लगा देते हैं। काफी कुछ तमाशबीन भर होते हैं जबकि एक वर्ग और उसकी संख्या छोटी नहीं, जो लूट पाट चोरी-चकारी में व्यस्त हो जाता है। जान के अलावा माल की सुरक्षा बहुत ज़रूरी है ऐसे में।

जिस तरह दिल्ली में सन् 84 के दंगों में लूटपाट मची थी और जिसके हत्थे जो लगा ले भागने वाली स्थिति थी उसी तरह के दृश्य देखने को मिलते हैं। लोग-बाग सवारियों से सामान लगभग छीन रहे होते हैं। जैसा कि मैंने कहा हमारे अंदर दोनों मौजूद हैं दानव और मानव। यह तथाकथित सभ्य और आदमियत बोलो इंसानियत बोलो इसके पेंट की परत बहुत पतली है जरा सी खरोंच से अंदर की जंग लगी हमारी शख्सियत (हैवानियत) बाहर आ निकलती है। अब समझ में आया जब मुहावरे के तौर पर ही सही कहा जाता है मेरे अंदर का जानवर, दरअसल यह बेचारे मूक जानवर को बदनाम करने की साजिश है कहना तो चाहिए मेरे अंदर का हैवान। लोग बजाय फँसे हुए यात्री को बचाने के, उंगली काट कर सोने की अंगूठी को लेने में ज्यादा मसरूफ़ दिखे। उनके लिए यह एक स्पोर्ट्स कि तरह हो जाता है। यद्यपि बहुत लोग वास्तव में मदद करते हैं। वह इसको अपना फर्ज़ समझ अपनी इंसानियत का परिचय देते हैं। जबकि ये अन्य के लिए आपदा में अवसर बन जाता है फिर वे एंबुलेंस ड्राइवर हो, या अंग्रेज़ी बोलते एययरलाइन्स के डायनामिक फेयर वाले डेविल हों जो 6 हज़ार किराये के 56 हज़ार वसूलते हैं। सोचने वाली बात है वो जंगल, गाँव खेड़े में लूटने वाला खराब और यह शहर में डायनेमिक फेयर लेने वाले अलग अलग कैसे हो गये। दोनों ही खराब हैं तो इसका उपाय क्या है ? यह हमारे अंदर का दानव ही है जो घटना स्थल पर 'सोलो' काम कर रहा है तो शहर में 'कॉर्पोरेट स्टाइल' में।

इस दौर में इंसानियत और सभ्यता के पेंट का ‘कोट’ वाकई बहुत पतला है
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