कहते हैं भारत में तीन मुख्य फसलें होती हैं। रबी, जायद, खरीफ किन्तु यह एक अर्धसत्य है सच यह है कि इन तीनों से कहीं अधिक ‘रिलीफ़’ की फसल होती है। रबी-खरीफ की फसल के तो मौसम आते है मगर रिलीफ़ की फसल प्यार के मौसम की तरह साल भर लहलहाती है। कारण भारत एक महान देश के साथ साथ विशाल देश भी है। अतः यहाँ कहीं न कहीं हर मौसम में कुछ न कुछ चलता रहता है। कहीं बाढ़, कभी सूखा, कहीं ओलावृष्टि, कहीं अकाल, कहीं भूकंप, कभी दुर्घटनाएँ। और कुछ नहीं तो अनेकानेक सरकारी योजनाएँ जिनमें इन रिलीफ़ वालों के लिए पर्याप्त संभावनाएं निहित (इन-बिल्ट) होती हैं.
नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए
बाकी जो बचा था रिलीफ़चोर ले गए
बंबई पर प्रकृति बहुत मेहरबान है।
अब बम्बई मुम्बई हो गई है मगर प्रकृति की मेहरबानियों में कोई कमी नहीं है। बारिश
होती है और खूब होती है। इतनी होती है कि रिलीफ़ की ज़रूरत पड़ती है और मज़े की बात है
वो भी साल दर साल। न बारिश कम होती है, न रिलीफ़। न वो फंड जो नालों की सफाई, सीवर की सफाई आदि-आदि के मद मे लिए-दिये जाते हैं। आपने दिल्ली के अशोक होटल
का नाम सुना होगा। जब बना था तब लाल पत्थर का था, बिल्कुल लाल क़िले के माफिक। फिर एक अध्यक्ष आए और उन्होने कहा ये होटल कम
लालक़िला ज्यादा दिखता है। लालकिला आखिर क्या है हमारी गुलामी का प्रतीक यह
प्रभावशाली नहीं। पर्यटक को प्रभावित नहीं करता। आँखों को सुखद नहीं लगता। अतः इसे
सफ़ेद पेंट कर दो। ताजमहल बना दो। शुभ्र, श्वेत बिलकुल हंस के माफिक। फिर क्या
था देखते-देखते अशोक होटल सफ़ेद पोत दिया गया और साहब लालकिला जो है सो ताजमहल बना
दिया। वो बात दीगर है दिल्ली का लालकिला हो या आगरा का ताजमहल दोनों बनवाये मुग़ल
शहंशाह शाहजहां ने ही थे। आने वाले सभी अध्यक्ष उन अध्यक्ष महोदय के शुक्रगुजार
हैं क्यों कि अब अध्यक्ष दर अध्यक्ष पूरे होटल को सफ़ेद पेंट किया जाता है। सोचो
सफ़ेद रंग है तो मैला भी जल्द हो जाता है। कितना सुभीता हो गया है आने वाले नए-नए
अध्यक्षों के लिए। पेंट वालों के लिए, ठेकेदारों के लिए।
सब्बे सत्ता सुखी होन्तु
बस कुछ इसी तर्ज़ पर न बैरी बारिश कम होती
है न रिलीफ़ फंड कम होता है। अब बाकी बचा रिलीफ़ वो भी आम जनता को तो वान्दा नहीं।
आम आदमी की भला क्या बात करना जो आगे देखता न पीछे। बस मुंह उठा कर बंबई की तरफ
भाग छूटता है। यही है जो पटरियों के सहारे ‘खोली’ डालता है। यही है जो पटरियो के
साथ इंडिया शाइनिंग के चक्कर में सुबह-सुबह गंदगी करता है। इनकी खोली मे संडास
बनाया तो भी ये यहीं रेल ट्रेक पर आने वाले हैं। इनकी वजह से ही नाले, सीवर जाम होते हैं, चोक होते हैं।इन्हीं के लिए इतने सारे फंड्स एलोकेट करने पड़ते हैं। न आपका
गंदगी करना रुकता है, न हमारा फंड
एलोकेट करना। हजारों करोड़ साल दर साल सीवर मे अरमानों की तरह बह गए, अब बह गए या तर गए वो किस्सा फिर कभी। कितने लोग इस रिलीफ़ के चलते चीफ हो गए। कितने 'सी' क्लास ठेकेदार, 'ए' क्लास
काँट्रेक्टर बन गए। सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ गए, और तो और ब्रांच आउट कर के जीवन के अनेक क्षेत्रों मे सीढ़ी चढ़ गए। अब क्यों न
चढ़ते ?
वो सीढ़ी बनाने को
खोखे रूपी सीमेंट-गारा साथ लिए चलते हैं।
बोलो कहाँ सीढ़ी बनाने का है ?
कितने खोखे ? आई मीन कितने माला ? मतलब नाले से उठ कर निराले हो गए। बी.एम. सी. से चले मंत्रालय जाकर रुके, कितने तो दिल्ली तक आन पहुंचे। तो दोस्तो देखी आपने रिलीफ़
की फसल। इसकी खुराक द्रुत गति से चित्त मे चपलता लाती है। 'आई एम ए कम्पलान बॉय' पुराना पड़
गया। 'आई एम ए काँट्रेक्टर बॉय' लेटेस्ट है।
अब वो भी क्या करें ? अगर बारिश ने यह तय कर लिया है कि वह नहीं रुकेगी, अपना रौद्र रूप जारी रखेगी तो कांट्रैक्ट देने वाले रिलीफ़
पहुंचाने वाले और हमारे काँट्रेक्टर भाऊ क्यों पीछे हटने लगे।
"वो जफा किए जा रहे हैं हम वफा
किए जा रहे हैं
अपना - अपना फर्ज़ है दोनों अदा किए जा
रहे हैं"
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