यह बहुत प्रभावकारी टैगलाइन है, अब आप इसे नारा बोलो, आव्हान बोलो, चेतावनी बोलो मगर है तो है। आगे आपकी श्रद्धा। 'उड़ेगा आम आदमी' कितना रोमांचकारी और रोमानी ख्याल है। अब इसी की परिपूर्ति के लिए सरकार ने एक के बाद एक उड़ान अड्डे प्राइवेट को दे दिये हैं। अज्ञानी लोग इसी को बेच दिया ! बेच दिया ! कह कर शोर मचा रहे हैं। आप हाल-फ़िलहाल यदि एयरपोर्ट गए हों तो देखा होगा कि आपकी टैक्सी, आपकी कैब और आपकी अपनी कार के साथ पार्किंग के, इंतज़ार करने के कितने सारे इशू हो गए हैं और सबका लक्ष्य एक ही है कि आपकी जेब कैसे काटी जाये। अब इस जेब काटने को कोई भी भारी भरकम नाम दिया जा सकता है यथा डी-क्लटरिंग, डी-कंजेशन, रेगुलेशन, एजुकेशन-सेस, देश-प्रेम शुल्क, करोना रिलीफ़ फंड, वेक्सिन डव्लपमेंट निधि, कुश्ती केयर फंड आदि आदि।
इन बातों का क्या अर्थ है आपका मूल किराया या एलीमेंटरी किराया कितना भी कम है। बाकी जितने भी टैक्स हैं, फंड, सेस, शुल्क हैं। भई ! पैसे तो यात्री ने ही देने हैं। अब आप नाम कुछ भी कर दें। अभी तक हम सोचते थे मल्टीप्लेक्स की तरह पानी, चाय-कॉफी, पॉप कॉर्न, समोसा ही महंगे हैं। कहाँ पहले एयर इंडिया में कितनी टॉफी, चॉकलेट देते, खिलाते-पिलाते ले जाते थे। कब मंज़िल आ गई पता भी न चलता था।
खाते-पीते कट
जाते थे रस्ते
अब ऐसा नहीं है। आप को समोसा 350/- का और हेम्बर्गर 700/- का खरीदने पर
या न खरीदने पर मन मसोसते-मसोसते मंज़िल दूर मालूम देने लगती है।
वक़्त आ गया है कि अब एयरलाइंस
आदमी को उसके वजन के हिसाब से किराया वसूल करे। एक मिनिमम वजन 30 किलो रखा जाये और इसके बाद हर एक किलो पर डायनामिक फेयर के अंतर्गत
इतने रुपये लिए जाएँ, इतने रुपये लिए जाएँ कि या तो आदमी
अपना वजन कम करे या फिर टिकट पैसे देने में ही वह सूख जाये। 'स्वस्थ्य भारत' बनाने में एयरलाइंस के इस योगदान को
भारत हमेशा याद रखेगा।
यह डायनामिक फेयर भी 'आपदा में अवसर' का बहुत सही उदाहरण है। अब
देखिये ना ! इधर बालासोर की रेल दुर्घटना हुई उधर उस दिशा में जाने वाली सब
एयरलाइंस ने अपने-अपने किराये को दस गुना बढ़ा दिया। वो जरूर आपदा की दुआ मनाते
होंगे ताकि उनकी आय बढ़ सके। उनके बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स की मीटिंग में ये बातें
डिस्कस होती होंगी "हाँ भाई अगर कुछ और आपदाएँ हो जाएँ तो आपका वेतन बढ़ा दिया
जाएगा, अथवा स्टाफ को 20% बोनस दे दिया
जाएगा अभी तो 8.33% से ही काम चलाओ और अगर कोई आपदा नहीं हुई
तो अगले वित्त वर्ष छँटनी भी करनी पड़ सकती है।"
वैसे सोचने वाली बात ये
है कि हवाई चप्पल पहनने वाला क्या एयरपोर्ट में घुस भी सकता है कारण कि अब नया मालिक
उसको घुसने नहीं देगा। घुसने का शुल्क ही इतना है कि आम आदमी की हवाई चप्पल तक बिक
जाएगी, और जो कहीं डायनामिक फेयर की चपेट में आ
गया तो घर-बार गिरवी रखने की नौबत आ जायेगी।
इसके बाद भी यह पक्का नहीं
है कि वह टाइम पर पहुँच पाएगा। हवाई उड़ान अब इतनी लेट हो जाती हैं जितनी कि कभी
रेल होती थी। रेल तो आप भागते-भागते भी पकड़ सकते थे। हवाई यात्रा में ऐसा नहीं है।
यहाँ आपको बहुत सारे प्रोटोकॉल के चलते 3-4 घंटे पहले पहुँचना पड़ता है। जबकि भारत में कहीं भी यात्रा दो ढाई घंटे की
ही होती है। तो जब आप एययपोर्ट पर रुक रहे हैं तो कुछ तो खाएँगे- पीएंगे इसलिए
वहाँ पूरा बाज़ार खोल दिया है अगलों ने आपके वास्ते । जहां मिठाई से लेकर बिरयानी
और किताब से लेकर बीयर-शराब तक सब मिलता है, केक-पेस्ट्री,
कहीं कहीं तो मैंने कार भी खड़ी देखी हैं।
हवाई चप्पल वालों को उड़ाने का वादा
किया था सो उड़ा दिया। इतनी महंगाई, पेट्रोल के दाम, गैस के दाम, बेरोजगारी
कोई विरला ही हवाई चप्पल वाला होगा जो परिदृश्य से उड़ ना गया होगा। उड़ाने का वादा
किया था सो उड़ा दिया पटल से ही, फ़लक से ही। कल्पना में उड़ो,
धरती से आकाश को निहारो और भले आदमी उड़ना क्या होता है? यही सब तो।
उसकी छोड़ो अब अच्छे-अच्छे
सूट-बूट वाले उड़ना तो दूर हवाई अड्डे में घुसने न पाएंगे।
इस सब रेल-पेल में सोच रहा था रेल
मंत्री के पास रेल है। अब जैसी भी है, हाउसिंग मिनिस्टर के पास हाउस हैं। हमारे एयरलाइंस के मंत्री के पास ?
न एयरलाइंस हैं न एयरपोर्ट। सब हवा हवाई (चप्पल) है।
तो भाईजान ! अब देर किस बात की है।
मालिक एयरपोर्ट पलक पांवड़े बिछाए आपका इंतज़ार कर रहे हैं।
पधारो म्हारे एयरपोर्ट !
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