Ravi ki duniya

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Monday, June 5, 2023

रेलवे -- राष्ट्र की जीवन-रेखा

 

1               रेल बजट को खत्म कर जनरल बजट के साथ मिला देने से लाभ क्या हुआ ? पता नहीं। पर नुकसान क्या हुए ? वह हैं: फोकस खत्म हो गया, पहले रेल बजट नीचे से इनपुट लेकर ऊपर जाता था अतः एक प्रतिबद्धता सभी में देखने को मिलती थी। तब राष्ट्रीय फोकस होता था। देश रेल बजट की प्रतीक्षा करता था। उसमें सभी के लिये कुछ न कुछ होता था। अतः रेल कर्मियों और अधिकारियों का भी फोकस रहता था। अब ऐसा नहीं है। बजट कब आया, कब गया किसी को नहीं पता। कुछ लेना देना नहीं। रेलवे बजट जब आता था तो उसके प्रोजेक्ट पर, नई ट्रेनों पर, नई सुविधा नई लाइन इन पर फोकस होता था। लोग नज़र रखते थे इस से रेलवे पर भी एक दबाव रहता था।

 

2               पहले कुछ काम ठेके पर दिये जाते थे अब कुछ ही काम हैं जो रेलवे कर रही है बाकी सब ठेकेदार, एजेंसी, पी. पी. पी. या फिर रेलवे की पी. एस. यू. के माध्यम से ठेकेदार ही कर रहे हैं। जिस से शोषण को एक नई दिशा मिली है। 8-10 हज़ार में आप जिस नौजवान, नवयुवती को ले रहे हैं उसकी प्रतिबद्धता, उसका प्रशिक्षण, उसकी रुचि, उसका मन लगा कर काम करना सभी तो घेरे में है आखिर कुछ तो फर्क रखें रेल संचालन और डिलिवरी बॉय में।

 

3                हजारों रेल कर्मी/अधिकारी प्रति माह सेवा मुक्त हो रहे हैं उनके पद भरे जाने का दूर-दूर तक कोई प्लान या नीयत नहीं है इस से न केवल काम की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है बल्कि जो लोग बचे हैं उनमें एक अज़ब निराशा, फ्रस्ट्रेशन है। रेलवे भर्ती बोर्ड और यू. पी. एस. सी. की लास्ट परीक्षाएँ कब हुईं थीं किसी को याद नहीं। जहां परीक्षा हो गई, वहां दूसरा चरण पेंडिंग है। जहां दूसरा चरण हो गया वहाँ मेडिकल पेंडिंग है। जहां मेडिकल हो गया वहाँ जॉइनिंग पेंडिंग है। वो भी कल, पिछले महीने या पिछले साल से नहीं बल्कि कई साल से। इस चक्कर में कितने ही युवा ओवर-एज हो गए अर्थात कहीं और नौकरी के लायक भी नहीं रहे।

 

4              न केवल बीसियों रेल भर्ती बोर्ड ठलुआ हैं बल्कि रेलवे स्टाफ कॉलेज, ज़ोनल ट्रेनिंग सेंटर भी बंद पड़े हैं। रेलवे स्टाफ कॉलेज (नेशनल अकादमी ऑफ इंडियन रेलवे) अब समाप्त  है और उसकी जगह अब यूनिवर्सिटी बना के अंडर- ग्रेजुएट तथा अन्य तकनीकी कोर्स जनरल पब्लिक के लिए चला दिये गए हैं। अब तो सुनते हैं वहाँ की लाइब्रेरी को जनता के लिए एक भारी शुल्क देकर खोल दिया गया है।

 

5              रिनुयल फंड, भवनों, पुलों की मरम्मत, ट्रैक का काम सब फंड्स का मुंह ताक रहे हैं। मौजूदा सुविधाओं में कटौती पर कटौती ही नहीं बल्कि अन्य अनिवार्य खर्चे भी टल गये हैं या टाल दिये गये हैं। अब सीनियर सिटिज़न आदि जैसी अनेकानेक रियायतें रह ही नहीं गई हैं। रेलवे के कारखाने एक के बाद एक प्राइवेट को सौंप दिये गए हैं या गतिविधि रेलवे से समाप्त कर ठेकेदार को दे दी गईं हैं।

 

6               रेल-भवन भूतहा हो गया है। कॉरीडोर के कॉरीडोर खाली पड़े हैं। कमरे सील हैं। स्टाफ या तो सेवानिवृत्त हो गया है या ज़ोन में भेजा जा चुका है। यही हाल अफसरों का है। जो बच रहे हैं वे ठकुरसुहाती में बिज़ी हैं। रेलवे की किसी को पड़ी नहीं है, ऊपर से नीचे तक। सब खबर में रहना चाहते हैं या गुड बुक्स में। इसलिए आप सुनते हैं, कभी ऑफिस प्यून हटा दिये। कभी प्यून को बुलाने की घंटी हटा दी। सब कुछ प्रायोजित सा लगता है। सब समवेत सुर में चिल्ला उठते हैं "क्या मास्टर स्ट्रोक है।" अंग्रेजों की निकृष्ट विरासत -- सैलून हटा दिये, प्यून हटा दिये। विदेश की छोड़ो, इंडिया में भी ट्रेनिंग अनावश्यक बता हटा दी। डिवीजन लेवल या जी.एम. लेवल पुरस्कार हटा दिये गये हैं। स्कूल हटाओ, रेलवे अस्पताल हटाओ। रैस्ट हाउस, रनिंग रूम, रेलवे स्टेडियम, लिनन सेवा सभी तो आज ठेके पर है। पीछे फर्स्ट ऐ. सी. में एक यात्रा के दौरान जब अटेंडेंट से लिनन मांगी तो उसने मेरी बर्थ पर लाकर पटक दी। मैंने पूछा फर्स्ट ऐ. सी. में तो बिस्तर लगाते भी हैं वह बोला "मैं नया हूं मुझे लगाना नहीं आता।" मैंने फिर पूछा "कोई ट्रेनिंग नहीं मिली ?" तब उसने बताया "मैं आज ही आया हूं और  यह मेरी पहली ट्रेन यात्रा है" मुझे उस पर दया आई। आप अगली बार यात्रा में केटरिंग वाले किशोर बालक से पूछ देखें उसका असल वेतन क्या है ? आपको जवाब मिल जायेगा। ठेकेदार का अपना रोना है। L-1 और जेब गर्म करने के चक्कर में उसे कुछ बचता ही नहीं है।

 

7                अब इंसपेक्शन कोच (सैलून) हटा दिये गए हैं। अधिकारी निरीक्षण पर पहले जैसे नहीं जाते। स्टाफ के मामले मे टी. ए., डी. ए. में कटौती कर दी गई है कहीं-कहीं एक ऊपरी कैप लगा दी गई है। अतः अब स्टाफ फील्ड मे बहुत कम जाते हैं। इस से नियमित निरीक्षण मे कमी आई है। ड़ी आर एम और जी एम के सालाना निरीक्षण भी अब इतिहास बन गए।

 

8                रेलवे अधिकारियों के टी ए डी के (टेलीफोन अटेंडेंट-कम-डाक खलासी) की पोस्ट ही खत्म कर दी। इससे बहुत असंतोष है वर्तमान तथा भावी प्रत्याशियों के मन में। भावी प्रत्याशी के मन में इसलिए कि वे टी ए डी के बन रेलवे में नौकरी का सपना पाल रहे थे, कहीं कहीं तो वे ट्रायल पर पहले से ही अधिकारियों के साथ काम कर रहे थे।  वर्तमान कार्यरत टी ए डी के  इसलिए दुखी हैं कि क्या अब वे जीवन भर टी ए डी के ही बने रहेंगे कारण कि अधिकारी उनको छोड़ेंगे नहीं जब तक वे दूसरे टी ए डी के की भर्ती न कर लें। रेल अधिकारी दूसरे टी ए डी के की भर्ती कर नहीं सकते कारण कि अब वो स्कीम ही खत्म कर दी गई है। उसकी जगह जो स्कीम आई है उसमें एजेंसी के माध्यम से ठेके पर लेना है।  रेलवे में नौकरी पर नहीं।

                यहाँ टी.ए.डी.के. भावी टी.ए.डी.के. और अधिकारियों की भी सुनें टी.ए.डी.के. एक असैट है। वह दिन-रात भाग दौड़ करता है। जब आप रिमोट जगह पोस्ट होते हो तब घर की देखभाल करता है। उसके लिये बेहद भरोसे का व्यक्ति चाहिए होता है जिसे आप जिम्मेवारी सौंप सकें और बेफिकर हो सकें। वह समय के साथ रेलवे केन्द्रित कामों के लिये प्रशिक्षित होता है यह लगन यह निष्ठा एजेंसी वाले से आप उम्मीद नहीं कर सकते।

 

9                 बहुधा रेल की तुलना सेना से की जाती है। यद्यपि सेना युद्ध के समय मुस्तैद रहती है जबकि रेलवे दिन-रात, सर्दी-बारिश, दीवाली-ईद हर समय चलती रहती है। आखिर इसे यूं ही नहीं लाइफ लाइन ऑफ नेशन कहा जाता। आप जब ट्रेन में चैन की नींद सो रहे होते हैं तो कितने रेलकर्मी काम पर लगे होते हैं जंगल में लैवल क्रासिंग गेट हो या मेन स्टेशन या वे साइड स्टेशन। ऐसी निष्ठा और कर्तव्य के प्रति सजगता और प्रतिबद्धता एक रेलवे कार्यप्रणाली केन्द्रित प्रशिक्षित रेलकर्मी से ही मिल सकती है। ठेके की लेबर से नहीं। आप बहुधा सेना की ही तरह पायेंगे कि लोगबाग बड़े गर्व से बताते हैं हमारी तीसरी पीढ़ी रेल सेवा में है।

 

10                सन् 2026 में वेतन कमीशन आयेगा इसका बहुत संदेह है और इस से अनिश्चितता की स्थिति है। कोई शुभ संकेत नहीं हैं कारण कि आपके डी.ए. की किश्त कहां गई आपको हवा भी नहीं लगी।

 

11                   दुर्घटना नहीं होगी ऐसा नहीं है मगर हर दुर्घटना की कायदे से जांच हो, और उसमे कोई पालिटिकल कोण नहीं होना अपने आप में बहुत बड़ी बात है। और हाँ इस प्रकार की घटना दोबारा न हो उसका इंतज़ाम करना बहुत ज़रूरी है। अब डी. आर. एम. और जी. एम. क्या और मेम्बर क्या सब अपने आपको एक ‘वर्थलेसनेस’ के दौर से गुजरता महसूस कर रहे हैं।

 

     सास को अपने सिंगार से ही जहां फुर्सत न हो वहां बहू सजने की ज़ुर्रत नहीं करती।

 

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