हमारे देश में शादी शांति से नहीं होती। शादी होती है खूब विवाद से, शोर शराबे से, आतिशबाज़ी, मारपीट और गोलीबारी से। मैंने एक शादी में जब मरियल दूल्हे को अपने वजन के बराबर तलवार को थामे देखा तो पूछ ही लिया वह बोला “हमारे में ये होता है” बस बात खत्म ! शादी में खूब आतिशबाज़ी, चुहल बाज़ी और रूठा-रूठी भी होती है। इसमें कहते हैं फूफा लोग का बहुत योगदान रहता है। अक्सर शादियों में लड़के वाले अपनी ही ठसक में रहते हैं। हर बाराती अपने आपको वी.आई. पी. ही समझता है। मैं एक शादी में सिर्फ इसलिए गया कि छोटे कस्बे की शादी, पंगत में बैठ कर खाने और ढोल-ताशे की बचपन की यादें सँजोये था। मगर वहाँ जाकर पता लगा शादी शहर के बहुत बड़े बैंक्वेट हॉल में है, बूफ़े लगा है और डी.जे. पर अंग्रेजी गाने बज रहे थे।
इसी श्रंखला में खबर है कि एक शादी में रोटी ठंडी होने पर तू तू-मैं मैं हो गई। बात इतनी बिगड़ गयी कि मार-पीट होने लगी। कहते हैं अनेक रोटी देने वाले और खाने वाले दोनों घायल हो गए। ये शादी में बहुत होता है। लोग जैसे तैयार होकर ही जाते हैं कि किस बात पर बिगड़ना है। कहाँ ड्रामा करना है। कभी लेन देन को लेकर, कभी खाने को लेकर या फिर बस बिन बात के ही।
लड़की वाले बेचारे घबराये से ही रहते हैं। न जाने कहीं कोई कमी न रह जाये। जबकि लड़के वाले क्रूर ऑडीटर की तरह पैनी निगाह से गलती पकड़ने निरीक्षण सा करते होते हैं। अब ये केस ही देख लो ! रोटी ठंडी थी तो नम्रता से कह देते। रोटी बांटने वाला भी उसका कोई उपाय निकालता। किसी को बोलता। हाँ यहाँ ये बात और है कि क्या वे टाइम से खा रहे थे कई बार लोगबाग अपनी अन्य मौज-मस्ती में इतने बिज़ी होते हैं कि खाने को आखिर में पहुँचते हैं और फिर ठंडी रोटी का रोना रोते रोते फ़ौजदारी पर ही उतर आते हैं। शादी में आइसक्रीम की भी बहुत मच मच रहती है। सबसे ज्यादा भीड़ वाला वो ही काउंटर होता है। वेस्टेज का तो पूछो ही मत। आजकल फार्म हाउस की शादियों में अलग किस्म का टूरिज़म होता है। एक काउंटर यहाँ है तो दूसरा काउंटर इतनी दूर होता है कि आप दो बार सोचने पर मजबूर होते हैं कि जाया जाये या नहीं। लोगों को गोल्फ कार्ट जैसी कोई चीज़ रखनी चाहिए। क्यू की अलग मारामारी। कोई काउंटर बिना क्यू नहीं मिलेगा। और बीच बीच में बच्चे या लेडिस लोग घुस कर दाल, सब्जी अथवा रोटी के चक्कर में क्यू अलग तोड़ते हैं। मैं कहना चाह रहा हूँ कि लड़ाई की असीम संभावनाएं और अवसर होते हैं। कुछ ही कंट्रोल कर पाते हैं। बाकी बम की तरह फट जाते हैं जैसे ठंडी रोटी पर।
जहां तंदूर अथवा ताज़ा गरम-गरम रोटी का इंतज़ाम होता है वहाँ अलग भीड़भाड़ वाला समां होता है। ये रोटियाँ उस तरह की नहीं होतीं जिन्हें आप स्टोर करके रख सकें कारण कि ये ठंडी होकर बिल्कुल रबर के टायर की तरह खिंचने लगती हैं, चबाने में नहीं आतीं हैं। इसका घरातियों को विशेष ख्याल रखना चाहिए। नीचे जो 'फ्लेमबे' जलता है वो जल भी रहा है या शुरू में जल कर कब का बुझ गया है देखना होता है।
आजकल शादियों में एक अलग एनक्लोज़र में वी.आई. पी. किस्म के लोगों को बैठाने का रिवाज है उनकी सर्विस वहीं हो जाती है। अतः वे इस ठंडी रोटी के विवाद में भाग लेने से वंचित रहते हैं। दरअसल ऐसे लोग तो प्रतीकात्मक ही खा पाते हैं कारण कि भोजन से पहले और बाद में दवाई-गोली ही इतनी खानी होती हैं कि पेट में जगह कहाँ ? खा लिया जितना खाना था। अब तो सब डॉ. और डायटीशियन खा रहे हैं ।
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