Ravi ki duniya

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Thursday, October 31, 2024

व्यंग्य : पिज्जा को लेकर देवरानी ने की जेठानी हत्या

 


 

 

            यूं भारतीय समाज में जेठानी-देवरानी के आपसी रिश्ते कोई बहुत स्वीट किस्म के नहीं होते हैं। पहले भी उनके मन-मुटाव की खबरें अक्सर आती रहतीं हैं। हिन्दी फिल्मों में भी एक अगर निरुपारॉय है तो दूसरी शशिकला एक तेज तर्रार ललिता पवार है तो दूसरी दीन-हीन  वहीदा रहमान। लगाई-बुझाई इस रिश्ते का सामान्य फीचर है। पर ये तो अति ही हो गई कि देवरानी ने पिज्जा के चलते जेठानी की हत्या ही करवा दी। मैंने एक नेता जी का कभी एक बयान पढ़ा था ये फास्ट फूड, ये चाइनीज़ खाने से और तिस पर मोबाइल के इस्तेमाल से हिंसक प्रवृति पनपती है। अब लगता है नेता जी सही ही कह रहे थे। देखो! एक पिज्जा के चलते ! ऐसा देखा न सुना। कहते हैं किसी भी पिज्जा की कीमत इस बात पर निर्भर करती है कि उस पर टॉपिंग किस चीज़ की है, चिकन की है, मशरूम की है, टमाटर की है, चीज़ की है। अब ऐसी भी क्या टॉपिंग रही होगी कि देवरानी ने जेठानी की जान ही ले ली।

 

           सोचो ! पिज्जा खाना कितना खतरनाक है। कितनी हिंसा की प्रवृति इस एक पिज्जा के खाने से आती है। केस हिस्ट्री मैंने देखी नहीं है। हो सकता है जेठानी, देवरानी का पिज्जा अक्सर खा जाती हो या क्या पता टॉपिंग-टॉपिंग उतार लेती हो। और गंजा पिज्जा देवरानी को पकड़ा देती हो। हो सकता है देवरानी ने कभी जेठानी का ऑर्डर किया पिज्जा डिलिवरी बॉय से लेकर खुद ही खा लिया हो। कुछ भी हो सकता है। अब सच तो जेठानी को पता होगा या उस पिज्जा को।

 

          देखिये ये सब तामसिक भोजन है। सात्विक तो तनिक भी नहीं। तामसिक भोजन से राक्षसी प्रवृति आती है। मरने-मारने के विचार मन में आते हैं। कभी आपने सुना कि सरसों के साग के लिए, या भिंडी के लिए या फिर मैसूर पाक के लिए कभी घर में भाई-बहनों में या ननद-भाभी में या देवरानी-जेठानी में लड़ाई हुई हो। अब कोई क्या खा कर इडली-वडा के लिए या ढोकला के लिए लड़ेगा। कोई भला आदमी या भद्र महिला लड़ाई मोल नहीं लेगा। मर्डर-वर्डर तो बहूत दूर की बात है।

 

             मेरे घर में तो लड़ाई इस बात को लेकर होती है कि मुझे पिज्जा खाना नहीं आता। मैं पता नहीं क्यों उसे रोटी की तरह खाता हूँ।  जबकि पिज्जा खाने के कुछ आदाब हुआ करते हैं। छोटी-छोटी पुड़िया जिसे ये लोग ‘सेशे’ कहते हैं में से नमक-मिर्च-मसाला छिड़क कर, अज़ब-अज़ब नाम की सॉस के साथ एक-एक त्रिकोणीय टुकड़ा उठा कर खाया जाता है और साथ में आए टिशू पेपर से होंट-मुंह साफ करते रहना होता है। अब रोटी के लिए ऐसे कोई टेबल-मेनर्स नहीं हैं। आप जितना बड़ा/छोटा जैसा मन चाहे कौर/निवाला बना सकते हैं। सब्जी कम लें या ज्यादा, अपनी-अपनी रुचि है। कोई रोकेगा-टोकेगा नहीं। आप रोटी दूध में मीड़ कर भी खा सकते हैं। चीनी या सब्जी भर कर पीपनी सी बना कर भी खा सकते हैं। जैसा मन करे। मैं एक के घर गया तो उन्होने रोटियों को पहले ही चार-चार टुकड़ों में तोड़-फोड़ कर मुझे परोसा। पिज्जा के साथ आप ऐसी लिबर्टी नहीं ले सकते। ऐसी क्या ? कैसी भी लिबर्टी नहीं ले सकते। अब वक़्त आ गया है कि पिज्जा वाले डिब्बे पर ही चेतावनी लिखने लग जाएँ ‘अपने रिस्क पर ऑर्डर करें/खाएं’

क्या खूब शेर है:

               रोने के भी आदाब हुआ करते हैं फ़ानी 

              ये उसकी गली है तेरा ग़म-खाना नहीं 

Monday, October 28, 2024

व्यंग्य : विमानों को फर्जी धमकी दी तो कड़ी सज़ा

 


 

             विमान में बम होने की एक हफ्ते में सौ फर्जी धमकी मिलने के बाद अथॉरिटी ने यह क्लियर कर दिया है और सार्वजनिक घोषणा कर दी गई है कि यदि कोई फर्जी धमकी देगा तो उसको कड़ी सज़ा दी जाएगी। मेरे समझ में ये नहीं आया कि क्या ऐसा कोई प्रावधान पहले नहीं था ? यदि था और अगर नहीं भी था तो सौ फर्जी धमकियों की ‘वेट’ क्यों की। यह तो कुछ-कुछ इसी तरह हो गया कि कोई आपको मारे जा रहा है और आप कह रहे हो एक बार और मार कर दिखा। अगली बार मार फिर तुझे बताता हूँ। बहरहाल ! बम की बीस पचास नहीं बल्कि सौ फर्जी धमकियों के बाद लगता है अथॉरिटी का सब्र जवाब दे गया और ये ऐलान कर दिया है कि अब फर्जी धमकी वाले बच नहीं पाएंगे और कड़ी सज़ा के हकदार होंगे।

 

      अब सवाल यह पैदा होता है कि ये फर्जी धमकी वाले को पकड़ा कैसे जाएगा। और उसे पकड़ने में कितना वक़्त लगेगा ? क्या ये धमकाने वाले को पकड़ना मुमकिन होगा ?

 

        एक बात और ! चलो ! फर्जी धमकाने वाले को तो आप कड़ी सज़ा देंगे पर अगर भगवान न करे धमकाने वाला असली हो और धमकी असली हो तब क्या ? तब भी कड़ी सज़ा या कुछ और ? बात तो तब होती जब आप इन सौ धमकियों वाले को पकड़ पाते और कड़ी सज़ा दे देते उसके बाद बताते। यह तो ऐसे हो गया कि आपने धमकी का जवाब धमकी से दे दिया। चलो किस्सा खत्म। कितनी बार ऐसा भी पहले होता था कि कोई लेट हो गया तो किसी से फोन करवा दिया फ्लाइट में बम है, लोग-बाग बम ढूँढने में लग गए फ्लाइट लेट हो गई और आपने पकड़ ली। फिर पुलिस ने लेट आने वालों को पकड़ना शुरू कर दिया तब कहीं जाकर ये बंद हुआ।

 

             पर धमकी का जवाब धमकी होता है क्या ? धमकी झूठी है या सच्ची उस पर फुल-फुल एक्शन होना चाहिए। अब सौ धमकियों का उद्देश्य क्या रहा होगा? इससे क्या हासिल हुआ धमकी वाले को ? बाई दि वे, ये धमकियाँ अलग-अलग एयरलाइंस को दी गई है। बोले तो सभी एयरलाइंस शामिल थीं। अब न हवाई अड्डे आपके, न एयरलाइंस आपकी। आसमान खुदा का। कहते हैं न ख़ल्क़ ख़ुदा का हुकुम बादशाह का...आप पर फिर धमकी देने के अलावा बचा ही क्या। जैसे स्कूल में बच्चे कहते हैं न “बाहर निकल ! फिर बताता हूँ तुझे...” यह ट्रेंड रोका नहीं गया, धमकी देने वाले पकड़े नहीं गए तो कल यही बात रेल, बस और ओला-ऊबर के लिए कही जाने लगेगी। फिर क्या  हम पैदल चलने लगेंगे या घर बैठेंगे।  ये जो इतने फाइव जी, सिक्स जी चले हैं इसका क्या फायदा अगर धमकी देने वाला पकड़ना तो दूर ट्रेस भी न किया जा सके। मैं कहता हूँ उस पर पेगासस लगाया जाये। 

 

            धमकी दरअसल एक कायरता वाला कदम है। जिनको करना होता है वो कर गुजरते हैं। वो ये धमकी-शमकी नहीं देते। इससे ये और प्रूव होता है कि आपके पास अभी तक इतना सब तकनीकी ज्ञान और लवाजमा नहीं है कि आप धमकी देने वाले को पकड़ पाएँ। वो तो वोही कहते फिरते हैं और जिम्मेवारी लेते हैं तब तो हमें पता चलता है। मुझे याद है कॉलेज में जब बस आदि पर हमला होता था तो कॉलेज वाले पहुंच जाते थे कि हमला हमारे कॉलेज ने किया और ये क्या आपने हमारे कॉलेज का नाम ही नहीं लिखा। ऐसे हमले का क्या फायदा ?

 

               दूसरे ये सब बातें पब्लिक क्यों की जाती हैं। इससे क्या लाभ अथवा क्या इससे धमकी देने वाले को पकड़ने में मदद मिलनी है ? ये तो छीछालेदर वाली बात हो गई। एक एक दिन में साठ-साठ धमकी आखिर ये चल क्या रहा है। कहीं ऐसा न हो कि आगे आने वाले समय में एयरलाइंस लिखने लगें कि विमान में बम भी हो सकता है अतः सवारी अपने जोखिम पर यात्रा करे तथा अपने जान-माल की सुरक्षा स्वयं करे।

      

व्यंग्य: भिखारी के चलते हैं तीन ऑटो

 


 

 

      बहुत ही उत्साहवर्धक खबर है खासकर बेरोजगार लोगों के लिए। एक शख्स ट्रेन और स्टेशनों पर गीत गा-गा कर भीख मांगता है। इन सज्जन का कहना है कि इससे उनके आत्मसम्मान में बहुत वृद्धि हुई है, अब उनके परिवार के लोग उनको और उनके इस प्रोफेशन को सम्मान से देखते हैं। वे अपने इस नए आत्मसम्मान का समस्त श्रेय भीख मांगने को देते हैं। इससे जोड़ी गई धन-राशि से आज शहर में उनके एक-दो नहीं बल्कि तीन-तीन ऑटो चल रहे हैं। उन्होने इस बात को ज़ोर देकर कहा है कि उनके इस भीख मांगने ने ही उनको ये संपन्नता दिलाई है। अतः वह ये मुक़द्दस काम, बोले तो भीख मांगना कभी बंद नहीं करेंगे।

 

    भिखारी तो आपने बहुत देखे होंगे और एक से एक अमीर भिखारी देखे होंगे। अब तो भीख मांगने में समुदाय के समुदाय, मुल्क के मुल्क लगे हुए हैं। वे अपने भीख मांगने पर पशेमान नहीं हैं, उल्टा इसमें गर्व महसूस करते हैं।  सही भी है ! आखिर आपको अपने बिजनिस की फुल-फुल इज्ज़त करनी चाहिए। सीधी सी बात है जिस इनकम से आपके घर का चूल्हा जलता हो, जिस आय से आपका और आपके पूरे परिवार का पेट पलता हो उस को पूरा-पूरा सम्मान मिलना ही चाहिए। सम्मान सबसे पहले आप ही को देना होगा तब न बाहर वाले सम्मान की दृष्टि से देखेंगे।

 

    भीख मांगने वाले तरह-तरह के औटपाए करते हैं। भाँति-भांति के स्वांग रचते हैं। बदन पर पट्टी बांधे रहते हैं। कभी टांग छुपा कर, टांग न होने के बहाने लगाते हैं, कभी चेहरे को विकृत कर लेते हैं। कुछ कायदे के कपड़े पहन स्टूडेंट बने घूमते हैं और आपसे फकत फीस देने में मदद चाहते हैं।  कुछ अपने पर्स के खो जाने का बहाना लगाते हैं और आपसे बस घर जाने का किराया मांगते हैं। एक सज्जन तो मुझे दवाई का पर्चा दिखा कर दवाई के पैसे मांग रहे थे। उनको लगा या तो मैं पैसे दे दूंगा या हद से हद केमिस्ट से दवा खरीद कर उनको सौंप दूंगा, जो मेरे मुड़ते ही वो केमिस्ट को वापिस कर देंगे। मैंने कहा “इस पर्चे की एक फोटो कॉपी मुझे दे दो मैं कल अपनी डिस्पेन्सरी से लाकर देता हूँ”। ये सुनते ही वो क्रोध से पर्चा मेरे हाथ से छीन कर ये जा वो जा, भीड़ में गुम हो गया।

 

      मुंबई में ऐसे होटल हैं जहां से आप भोजन के कूपन खरीद कर वहाँ एकत्रित भिखारियों में बाँट सकते हैं और पुण्य कमा सकते हैं। वो बात दीगर है कि आपके मुड़ते ही भिखारी लोग उस कूपन को वापिस होटल वाले को देकर नगद पैसे ले सकते हैं। क्या आप दिल्ली के भैरों मंदिर गए हैं। वहां शराब चढ़ाई जाती है। फिर बाहर गिलास लिए भिखारियों को प्रसाद बांटते हैं। “बड़ा पेग बनाना”, “मुझे पटियाला बनाना” “गिलास भर दो” आप सुन सकते हैं।

 

    मैं दाद देता हूँ इन सज्जन की जो अपने व्यवसाय के प्रति इतनी ईमानदार हैं और गर्व करते हैं। लोगों में अपने व्यवसाय के प्रति इतनी ईमानदारी कम ही देखने को मिलती है। नहीं तो जिससे बात करो वो रोता हुआ, अपने ऑफिस और अपने बॉस को कोसता हुआ ही मिलता है। आप इसी मेहनत से काम करते रहो, गाना गाते रहो, आप के भिक्षा-पात्र में इतनी राशि जल्दी से जल्दी हो जाये कि आप तीन से तीस ऑटो के मालिक हो जाएँ। लोग आपको और आपके ऑटो को देख कर बरबस ही कह उठें सबका मालिक एक 

      

Wednesday, October 23, 2024

व्यंग्य : रायते में कानखजूरा

 


 

 

         रायते को लेकर भले कितने ही मुहावरे चले हों सबसे दिलचस्प ये रहेगा। रायते में कानखजूरा। राम ने श्याम के रायते में कानखजूरा डाल दिया। मेरे रायते में कानखजूरा किसने डाला ? एक लाइफ कोचिंग की किताब आई थी ‘हू मूव्ड माई चीज़’। कुछ इसी तरह का समां रहेगा। आपने पिछले दिनों बहुत सुना होगा कि रेलवे ने अपनी सुविधाओं और रफ्तार को नए सिरे से परिष्कृत किया है। ये कानखजूरा उसी का प्रतीक है। उसी का मेसेंजर है। मेसेज लें। मेसेंजर को मारा नहीं करते।

 

       हुआ कुछ यूं कि रेलवे की वी.आई.पी. लाऊंज में एक यात्री के रायते में ज़िंदा कानखजूरा निकल आया। उसने तुरंत अपने मोबाइल से फोटो ले लिया। अब आप किसे दोष देंगे। रेलवे को ? रायते को, कानखजूरे को ? मोबाइल बनाने वाले को जिसने इसमें कैमरा लगाया ? या फिर उस यात्री को ? दुनियाँ भर का गंद दिन-रात घर पर मंगा-मंगा कर खाते फिरते हो एक कानखजूरा नहीं खा सकते थे। नहीं खाना था, मत खाते, निकाल देते, जैसे बच्चे दूध से मलाई निकाल देते हैं। या कई लोग केक से चेरी हटा देते हैं। ये क्या कि लगे फोटोग्राफी / विडियोग्राफी करने। ये क्या तरीका हुआ? आपको पता नहीं है रेलवे-परिसर में फोटोग्राफी अनाधिकृत है।

 

               आजकल रेलवे नवीन-नवीन प्रयोग कर रेली है। सब किसलिए ? यात्रियों की सुख सुविधा के लिए ही न,  ताकि उनकी यात्रा सुगम और यादगार बन सके। अब देखिये ये कानखजूरे वाले यात्री की यात्रा यादगार बन गई कि नहीं। अपने नाती-पोतों तक को वो ये कहानी सुनाया करेगा। “एक बार की बात है...” कानखजूरे के बारे में पता लगाया जाये यह ज्यादा जहरीला तो नहीं होता। फिर इतना रायता क्यों फैला रहे हो भाई। हमारे स्कूलों में मिड-डे मील देखो। गली-गली नुक्कड़-नुक्कड़ गोलगप्पे वालों को देखो। दीवाली पर नकली खोआ/मावा देखो। केमिकल मिला दूध रोज़ पीते हो और कानखजूरे को लेकर इतना बवाल। हद है हिपोक्रेसी की। मेरी रेलवे से विनती है कि आप इस फ्लेवर को ऐलानिया लाएँ। रायता-कानखजूरिया। और फिर देखें। 

  

       भाई कानखजूरा ज़िंदा था। सोचिए हमारा रायता भी कितना शुद्ध, सात्विक और अलौकिक है कि कानखजूरा जिसके सौ पैर होते हैं वो भी इसे ‘लाइक’ करता है और एक आप हैं।  हैं बस ले-दे कर दो पैर और नखरे देखो। भाई आजकल ‘लाइक’ का ज़माना है। ‘लाइक’ न मिले, कम ‘लाइक’ मिले इस पर तो रूठने-मनाने की और कहीं-कहीं तो फ़ौजदारी की भी नौबत आ जाती है। दूसरे देशों में तो साँप का सूप बड़े चाव से पीते हैं। यह बहुत महंगा बिकता है आपको रायते के दाम में कानखजूरे का एक तरह से सूप पीने को मिल गया। आपको शुक्रगुजार होना चाहिए। हो सकता है ये कोई सैंपल-सर्वे चल रहा हो कि यात्रियों की क्या प्रतिक्रिया होती है। तत्पश्चात इसे नियमित तौर पर ‘इंटरोड्यूस’  किया जाये। रेलवे यदा-कदा ऐसे सर्वे, ऐसे प्रयोग करती रहती है। अब हो सकता है यह प्रयोग न हो, मात्र संयोग हो। जैसे पीछे ए.सी से साँप महाराज लटकते मिले थे। वह किस्सा फिर कभी। 

Tuesday, October 22, 2024

व्यंग्य: सोलह बच्चे पैदा करें

 


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           नेता जी ने आव्हान किया है उठ जागो मेरे सूबे के लोगो ! सूबे को तुम्हारी ज़रूरत है। लग जाओ सूबे का नाम रोशन करने खातिर। हुआ कुछ यूं कि लोक सभा में सीटें जनसंख्या के हिसाब से तय होती हैं। जहां कम जनसंख्या वहाँ से कम सांसद और जहां ज्यादा जनसंख्या वहाँ से ज्यादा सांसद। इसे कुछ लोग ये भी सोचने लग पड़े कि ज्यादा बच्चे होंगे तो क्या पता हमीं को सांसद और मंत्री बना दिया जाये। पीछे बनाया भी गया था। इसके चलते नेता लोग भी देश-निर्माण में लग गए। लोक सभा में सीटें कम हो रही हैं ये जानकार नेता जी का चिंतित होना लाजिमी है। यूं नेता जी छोटी-बड़ी चिंता  करते रहते हैं और अक्सर उस चिंता की रपट उनके गंभीर फोटो समेत अखबार में छपती रहती है। यदि एक हफ्ते उनकी फोटो और खबर अखबार में न छपे तो लोगों को चिंता होने लगती है कि नेता जी ठीक तो हैं। जो दिखता है सो बिकता है। इसलिए चिंता किसी भी स्तर की हो नेता जी को आप हरदम चिंता में पाएंगे।

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            अब 16 बच्चों की संख्या पर नेता जी कैसे पहुंचे ज़रूर उन्होने कोई गुणा-भाग किया होगा। भला हमें क्या ? हमें आम खाने से मतलब पेड़ तो नेता जी ने गिन ही लिए हैं। अब ये 16 बच्चे पैदा करने की कुव्वत आजकल की भारतीय पत्नियों में कहाँ ? वो दिन गए जब 'दूधो नहाओ पूतो फलो' का आशीर्वाद खूब ही सक्सेस था। अब वो बातें कहाँ ! न ज़मीन इतनी जरखेज है न जोरू में इतना दम है न जेब में जर है। हाँ अलबत्ता अगर सूबे की सरकार कोई स्कीम चला दे कि जितनी मर्ज़ी शादी करो और करते रहो जब तलक सोलह का टार्गेट पूरा न हो जाये। हम जान लड़ा देंगे। एक बात और है इसके साथ-साथ बच्चों की देखभाल पढ़ाई-लिखाई की और खाने की भी कोई योजना घोषित करनी पड़ेगी। अभी तो माँ-बाप के ही खाने के वान्दे हैं। जो है सो अभी  दो बच्चे है और दोनों ही बेकार बैठे है। वो तो भला हो कुछ न कुछ त्यौहार, यात्रा, धरना-प्रदर्शन, रोड शो के चलते बिज़ी रहते हैं । गाँव में आधे युवा तो टिक-टाॅकर हैं आधे उनमें एक्टिंग करते हैं। आपकी स्कीम जब आ जाये तो आप खूब उसका प्रचार-प्रसार टिक-टाॅक आदि पर करें फिर हो सकता है ये युवा मोबाइल छोड़ मंडप की तरफ बढ़े।

 

               आप तो सीधे-सीधे स्कीम चला दो 6 बच्चे वाले को यह पद/यह ईनाम मिलेगा। दस वाले को सीधे सरपंच, दस से ज्यादा को सीधे विधान सभा और पंद्रह पार करते ही सांसद। सान्सद बोले तो उसके पास इतने सन्स-डौटर हैं, माने अपुन के फ्यूचर वोट। दूर का विज़न रखें। देखिये आपके ये एक शादी वाली शर्त उठा देने मात्र से समाज का कितना भला होगा। इसको कंपलसरी करना होगा नहीं तो एक्जिस्टिंग बीवी लोगों ने बहुत नाटक करना है।   समाज में इसके चलते रेप भी नहीं हुआ करेंगे। सब हंसी-खुशी राष्ट्रीय कार्यक्रम में अपना सहयोग देने में जुट जाएँगे। राष्ट्र-निर्माण में अपना सूबा पीछे नहीं रहेगा। लौटती डाक से सूचित करना डी.जे. बुक कर लिया है। घोषणा होते ही आप देखना इकाॅनमी को कितना बल मिलेगा। सब शेरवानी, लहंगा, मिठाई, बैंड-बाजे, बेंक्वेट हॉल, केटरर और हनीमून पैकेज में लग जाएँगे। सूबे में हर दूसरा आदमी या तो दूल्हा होगा या बाराती।

         सब एक दूसरे से पूछा करेंगे कौन सीवीं शादी है। भद्र महिलाएं गर्व से बताया करेंगी बहन ! मेरा यह बारहवां बच्चा है, तुम्हारा ? कोई महीना खाली नहीं जायेगा जब किसी न किसी का हैपी बर्थडे न हो। किसी किसी महीने तो दो या दो से ज्यादा हैपी बर्थ डे हुआ करेंगे। बाज़ार उड़ चलेगा। प्राइवेट क्लिनिक, अस्पताल और दाईयों को काम मिलेगा। रोज़गार  बढ़ेगा। देखते-देखते अपना सूबा हिंदुस्तान में नंबर वन हो जाना है। जब तक धन आए, मैं तन-मन से आपके साथ हूँ।

Friday, October 18, 2024

व्यंग्य: कार्यवाहक फलां फलां

 


 

             आजकल नौकरशाही खासकर अफसरशाही में ये फैशन हो चली है कि लोगों को उनके पदों पर कार्यवाहक बना कर रखो। ज्यादा कार्य करते हैं। नियमित होते ही उनके रंग-ढंग भी नियमित तौर पर दिखने को मिलते हैं। यह कार्यवाहक वाला सिस्टम बहुत प्रभावशाली है। बड़े-बड़े कार्य, ये कार्यवाहक चुटकी बजाते कर जाते हैं, जिन्हें करते नियमित लोगों की चीखें निकल जाएँ। किसी ने बहुत सोच समझ कर इनका नामकरण किया है कार्यवाहक...अर्थात वो जो कार्य करे। वह कार्य का वाहक है।

 

            अब कार्य कैसा भी हो आप कार्यवाहक को दें और चिंतामुक्त हो जाएँ। आप भी खुश, कार्यवाहक भी खुश। दोनों का कार्य चल निकलता है। एक स्टेज तो ये आ जाती है कि दोनों पार्टीज़ चाहती ही नहीं कि वह नियमित बने। जब सारे कार्य, कार्यवाहक कर ही रहा है और कार्यवाहक के भी सारे कार्य निकल ही रहे हैं तो कोई क्यों कर भला नियमित होने को अपनी नियति बनाए। उल्टा वह अपने रिटायरमेंट के दिन गिनने लगता है और मन ही मन मनाता है कि उसके रहते कोई नियमित की चर्चा ही न करे।

 

         सच तो ये है कि ये कार्यवाहक एक दिहाड़ी मजदूर होता है। डेली-वेजज वाला। उसे अंदर ही अंदर यह डर भी सताता रहता है न जाने कब साब लोगों की भृकुटी टेढ़ी हो जाये और उसकी छुट्टी हो जाये। अतः वह खूब बढ़- चढ़ कर दौड़-दौड़ कर काम करता है। जितना आप कहो उससे इक्कीस ही करता है उन्नीस नहीं। उसका उत्साह देखने लायक होता है। उसका सलाम करने का अंदाज़। कभी गौर से देखिएगा पूरी बॉडी लेंगवेज़ ही अपने आका का शुक्रिया अदा कर रही होती है

 

                 यूं देखा जाये तो हम सब कार्यवाहक ही तो हैं। कार्य करते हैं तो पेट भरता है। समाज को ये कार्यवाहक लोग संदेश देते हैं कि कार्य करते रहो। रुको नहीं ! अधिकतर देखने में आता है कि लोग परमानेंट होते ही अर्थात नियमित होते ही कार्य करना बंद कर देते हैं और जहां बंद नहीं करते वहाँ कार्य में शिथिलता तो आ ही जाती है। जबकि कार्यवाहक नित्य-प्रतिदिन एक दम चुस्त-दुरुस्त चाक-चौबन्द आपके इजलास में खड़ा रहता है। क्या हुकम मेरे आका ?

 

           इन सब के चलते आजकल आप जित देखो तित कार्यवाहकों की एक फौज देखेंगे। कार्य कराने का गुर बोले तो सीक्रेट आउट हो गया है, जी हाँ लीक हो गया है। जो डेयरिंग कार्यवाहक दिखाता है वह नियमित नहीं। आप पुलिस महकमे को देख लो, डिस्ट्रिक एडमिनिस्ट्रेशन को देख लो। सरकार के हर मंत्रालय में आपको कार्य करने वाले कम मिलेंगे कार्यवाहक अधिक। हम सब भी तो कार्यवाहक ही हैं। पता नहीं इन लोगों को एक्टिंग क्यों कहा जाता है मसलन एक्टिंग चीफ, एक्टिंग चेयरमेन, एक्टिंग डाइरेक्टर। भाई हम सब एक्टिंग ही हैं। आपने सुना नहीं किसी सयाने ने कहा है “जीवन के रंगमंच पर हम सब एक्टर्स हैं और एक्टिंग ही कर रहे हैं”। इसमें नियमित क्या और कार्यवाहक क्या ? फिर भी कार्यवाहक सभी के मन को ज्यादा भाता है। कारण कि वह समय पर बड़े से बड़ा कार्य निकाल देता है किसी को कानों कान खबर नहीं होती। शॉर्ट नोटिस पर कार्य को सरअंजाम दे देता है। सवाल नहीं पूछता। आपको सोचना नहीं पड़ता है उल्टा वो ही आपको खुश करने के अलग-अलग तरीके सोचता और ढूँढता रहता है। वह अपनी नई कार्यवाहक पदवी पाकर निहाल हो रहा होता है इधर आप एक नवीन वाहक पाकर हर्षित हो रहे होते हैं। अब आप उस पर कोई कार्य (बोझ) डालिए वह इठलाता बल खाता उड़ चलेगा।

Thursday, October 17, 2024

व्यंग्य: जीजा मंत्री हैं हमारे

 


 

       खबर है कि एक साहब ने एक राजस्व कर्मी की जूते से पिटाई कर दी और उसे यह बताया कि जीजा मंत्री हैं हमारे। जैसा कि अमूमन होता है फ़ौरी तौर पर दो गुट बन गए। एक साले की तरफदारी करने लग गया तो दूसरा उस पिटित बोले तो पीड़ित की तरफ हो गया। साले की तरफ के लोग बोल रहे हैं कि यह राजस्व कर्मी समझता क्या है अपने आपको ? अब अगर मंत्री जी के रिश्तेदारों का भी काम नहीं होगा तो आम आदमी को कितनी कठिनाई आती होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। साले साब का कहना है कि अगर ये छोटा सा काम भी नहीं हो सकता तो जीजा के मंत्री बनने का फायदा क्या है ? हमने तो जिज्जी ब्याही इसलिए थीं कि हमारे सब सरकारी काम झट से हो जाया करेंगे। मगर ये क्या ? हो न हो ये राजस्व कर्मी एंटी-नेशनल होगा। या फिर विपक्ष का होगा। दोनों में अब फर्क भी कहाँ रह गया है।

 

      उधर राजस्व-कर्मी की साइड वालों का कहना है कि मंत्री के साले हैं तो क्या सिर पर मूतेंगे। यहाँ टर्न से ही काम होगा। वो भी तब, जब सब कागजात पूरे होंगे। शिकायत करनी है तो कर दो। ट्रांसफर कराना है तो ट्रांसफर करा दो मगर ऐसा नहीं हो सकता कि हमारे दफ्तर में कोई गाली-गलौच या रिश्वत देकर काम करा ले जाये। हमने तो बड़ा-बड़ा लिखवा भी रखा है इस दफ्तर में  रिश्वत लेना और देना दोनों वर्जित है। साथ ही शिकायत के लिए वरिष्ठ अधिकारियों के नाम फोन न. भी दिये हैं। कई तो पूछने लग पड़े हैं कि ये रिश्वत इन्हीं  अधिकारियों को देनी है जिनके नाम और फोन न. बोर्ड पर लिखे हैं ? शायद इसीलिए नाम, न. बोर्ड पर दिये हैं। देखिये सब कितना आसान कर दिया है। इसे कहते हैं ईज़ ऑफ ऑफिस-ऑफिस

 

            एक वर्ग का कहना है कि साले साब ने बताया ही नहीं कि वह किसके साले हैं। अब सभी किसी न किसी के साले होते है। कोई कब तलक सालों का हिसाब-किताब रखे। सालों का हिसाब-किताब रखे तो जीजा रखे। भला वो क्यूँ रखे? अब सही भी है राजस्व-कर्मी ऑफिस की फाइलें देखे या किस्सा जीजा-साला देखे। और सीधी-सीधी बात है साले साब को भरपूर विनम्रता से बताना चाहिए था कि वह अमुक के सगे साले हैं अथवा अमुक उनके सगे जीजा हैं। आजकल छद्म रिश्ते भी बहुत चल निकले हैं। दादा हो, चाचा हो, चाची हो, बुआ हो, भतीजा हो, यहाँ तक कि भाई भी। जब एक से मैंने उसके भाई के बारे में गहरी पूछताछ की तो बोला साब मेरा गाँव वाला है, मेरा तो भाई ही हुआ। क्या दीदी, क्या चाचा, क्या ताऊ, क्या मामा सब सियासत में उतर आए हैं। पहले पॉलिटिक्स में रिश्तेदारी इस हद तक नहीं थी। अब तो पॉलिटिक्स में रिश्तेदारी और रिश्तेदारी में पॉलिटिक्स ऐसे रच-बस गई है पहचानना मुश्किल है कि सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है। असली निपोटिज्म तो यहाँ है।

 

     बहरहाल ! यह पता नहीं चल सका कि जूते जैसे अस्त्र से पिटने के बाद फाइल निकल पायी या नहीं ? यह एक गंभीर मामला है। यह प्रकरण न जाने कितने साले और जीजाओं का प्रेरणास्रोत बन चारों ओर दफ्तर-दफ्तर फैल जाएगा। यह एक महामारी है बिलकुल कोविड सरीखी। अब इंसान को कौन समझाये कि रिश्ते टेम्परेरी हैं, नश्वर हैं। अतः मनुष्य ने उसकी खोज कर ली है जो शाश्वत है और वो है मुद्रा-भाव। नृत्य वाली मुद्रा नहीं बल्कि भाव पता लगाएँ और भारत सरकार द्वारा जारी मुद्रा सौंप दें। स्वीकृत/अनुमोदित फाइल झट ले लें। इस हाथ दे, उस हाथ ले। भगवान ने इसीलिए दो हाथ दिये हैं। इसमें जीजा-साला न लाएँ वे किसी काम नहीं आएंगे। ये रिश्तेदारी नहीं राज-काज है। किंगशिप, किनशिप को नहीं पहचानती। न कोई किसी का साला। न कोई किसी का जीजा। आप सुने नहीं ? न बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा...  

 

Tuesday, October 15, 2024

व्यंग्य: गोबर से कैंसर का उपचार

 


 

 

           नेता जो न कहे थोड़ा, जो न करे थोड़ा। इस सीरीज़ में लेटेस्ट है  यदि आप गोबर में लोटते हैं और गोबर के सान्निध्य में गोबर से लथ-पथ  रहते हैं तो आप कैंसर से बच सकते हैं। यह कोई छोटी बात नहीं। हमें वैसे भी अभी तक मेडिकल का नोबल पुरस्कार नहीं मिला है। पता नहीं यह क्लेम अभी तक नोबल पुरस्कार समिति को भेजा गया है या नहीं। यदि नहीं भेजा गया है तो हो सकता है कुछ विचार-विमर्श चल रहा हो। हो सकता है हम अपनी खोज को दुनियाँ को बताना ही नहीं चाहते हों। भई ! देश का ये सीक्रेट बाहर क्यों जाये। अपनी गोबर-थैरेपी ज़िंदाबाद। जहां दुनियाँ भर की पैथी चल रही हों वहाँ एक गोबरपैथी और सही। हमारे मुल्क में स्वमूत्र चिकित्सा चली ही थी।

 

           नेता जी का यह कहना है कि गोबर में लोट लगाने के साथ-साथ गाय का दूध पीना है और गाय को सहलाने मात्र से बी.पी. के मर्ज से निजात मिल सकती है। अंग्रेज़ी में कहते हैं डस्ट दाऊ केम... उसी तरह गोबर दाऊ केम, गोबर दाऊ आर एंड गोबर दाऊ शैल रिटर्न। पहले घर-बाहर गोबर ही गोबर होता था। घर-चौबारा गोबर से लीपा-पोता जाता था। यह इकनोमिकल होता था। गोबर में एक निश्चित अनुपात में भूसा, मिट्टी, आदि मिला कर घर तक बन जाते थे। जो गर्मी में ठंडक और ठंड में गर्मी का एहसास दिलाते थे। गोबर हमारी राष्ट्रीय पहचान है। आपने कहावत सुनी होंगी। फलां गोबर-गणेश है, उसने सब काम गुड़-गोबर कर दिया। तुम्हारे सिर में गोबर भरा है।

     

            कंडे बोले तो उपले सदियों तलक हमारे ईंधन रहे हैं। यह कितना सुलभ था सबको पता है। हम चूल्हे, अंगीठी, स्टोव से होते-होते आज माइक्रोवेव और कंडक्शन हॉट-प्लेट तक पहुंचे हैं मगर सोच के देखो उपले कितने किफायत वाले रहे हैं और घर की महिलाओं को सुबह से शाम तक बिज़ी अलग रखते थे। गोबर थापना, उपले बनाना, दीवाल से उनको निशाना साध कर चिपकाना और फिर सूखने पर छुड़ाना। इकट्ठे कर टोकरी में कायदे से रखना और बारिश से बचाने को सेफ जगह रखना। इसी में ज़िंदगी कट जाती थी। फेसबुक चेटिंग और वाट्स अप के लिए टाइम कहाँ था। इससे कितना सुख था जीवन में।

 

         मैं सोच रहा हूँ नेताजी थोड़ी और रिसर्च करें तो और भी अनोखे अनोखे सूत्र हाथ लग सकते हैं। मसलन गोबर का साग, गोबर की चाय, गोबर की रोटी, बंदूक में गोबर की बुलेट, गोबर की टोपी/हैट। रिसर्च उन्नत होते-होते यह भी हो सकता है की हमारे वस्त्र गोबर से बनने लग जाएँ। असीम संभावनाएं हैं गोबर में। बस नेताजी ये ही वाले रहने चाहिए। कहीं हार-वार गए तो सब किया धरा गुड़-गोबर हो जाएगा।

Sunday, October 13, 2024

व्यंग्य: फ्रेक्चर कूल्हे में ऑपरेशन दिल का

 

 

 

        नोयडा में एक ऐसा केस सामने आया है जहां पेशेंट कूल्हे के फ्रेक्चर की शिकायत लेकर आया मगर डॉ. ने अपनी विज़डम में ऑपरेशन कर दिया दिल का। अब देखा जाये तो सारा मामला दिल का ही तो है। आपने कहावत नहीं सुनी ? मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। उसी तरह दिल ही तो सब रोगों की जड़ है। दिल में न जाने कैसे-कैसे ख्याल आते हैं। ये दिल ही है जो उसको ऐसा लगता है कि कूल्हे में फ्रेक्चर हुआ है। दिल ठीक तो कूल्हा-वूल्हा सब ठीक। अतः डॉ ने जिस्म के मदर-बोर्ड यानि दिल का ही ऑपरेशन कर छोड़ा। अब दिल ठीक है आदमी का, तो क्या कूल्हा क्या घुटना। सब चंगा है।

 

           मैं ये सोच रहा हूँ कि डॉ ने दिल के ऑपरेशन में किया क्या होगा? अर्थात उसमें स्टेंट डाला या एक-आध वाल्व ही बदल दिया। वो होता है न एक के साथ एक फ्री। त्योहारों का मौसम चल रहा है कोई स्कीम निकाली हो। फाइव स्टार होटल हो, मॉल हो, रेस्टोरेन्ट हो, सभी त्योहारों पर स्कीम लाते हैं तो अस्पताल वाले ही पीछे क्यूँ रहते। अब जबकि दिल एकदम गार्डन-फ्रेश कर दिया है कि आपको कूल्हे का दर्द अव्वल तो महसूस होगा नहीं और अगर हुआ भी तो आप निस्संकोच आईये  हम देखेंगे क्या किया जा सकता है। इसी दिल का ऑपरेशन, आप ऑफ-सीजन में आते तो दस लाख से कम नहीं लगते। आप लक्की हो जो स्कीम में आ गए। अब अपने इलाके के सभी कूल्हे के, घुटने के, स्किन के, आँख के, डायबिटीज़ के मरीजों को हमारे यहाँ भेजें ताकि वे भी हमारी फेस्टिवल रिबेट का फायदा उठा सकें।

  

     देखिये यह नोएडा है। नोएडा का संधि-विछेद है नो-आइडिया होता है। आदमी-आदमी एक से। उसी तरह आदमी का अंग-अंग एक से। क्या कूल्हा, क्या दिल। भेदभाव नहीं करना है। हम डॉ होकर कतई ऐसा भेदभाव नहीं कर सकते। भई ! देर सबेर उसको दिल के ऑपरेशन की भी ज़रूरत पड़नी ही पड़नी थी। अब आपने दिल का ऑपरेशन पहले ही करा लिया है तो आप एक तरह से तैयार हैं। आपके दिल के आसपास भी अब कोई मर्ज नहीं आयेगा। हम आपके दिल में रहते हैं सनम।

              

            आप ही सोचिए आप दो-दो बार अस्पताल में दाखिले से बच गए। आजकल टाइम कितना कीमती है। टाइम है किसके पास ? कभी आप बिज़ी, कभी हम बिज़ी। अपने-अपने मुकाम पर कभी हम नहीं, कभी तुम नहीं। और फिर देख नहीं रहे मेडिकल खर्चे आसमान छू रहे हैं। अस्पताल में ढूँढे से बेड नहीं मिलते। एडवांस बुकिंग चल रही होती है। अस्पताल वाले ऑपरेशन की तारीख इतने बाद की देते है कि तब तक या तो आदमी वैसे ही ठीक हो जाता है, या मर्ज के साथ जीने की आदत डाल लेता है, डॉ अस्पतालों से उसका विश्वास उठ जाता है या फिर वो खुद ही दुनियाँ से उठ जाता है। अब इस कूल्हे के मरीज को कौन समझाये उसको तो शुक्रगुजार होना चाहिए कि सिंगल-विंडो की तरह उसका काम हो गया। बार-बार आने की किल्लत से बच गया। 

 

 


Thursday, October 10, 2024

व्यंग्य: बिग बॉस में गधा

 

                                                          




           बिग ब्रेकिंग न्यूज है कि बिग-बॉस के लेटेस्ट सीजन में 19 वें कंटेस्टेंट के रूप में गर्दभ राज की एंट्री हो गई है। इससे अन्य कंटेस्टेंट में और जो बिग बॉस में आने से रह गए उनमें खलबली मचनी ही थी। यह क्या ? अब क्या हम खोते के साथ रहेंगे। पहले ही क्या बिग बॉस में रहना आसान है जो हमें खर के साथ रात-दिन रहना होगा। उधर पशु-अधिकार वाले अलग आपाधापी में लगे हुए हैं। बहुत दिनों बाद उन्हें एक इशू हाथ लगा है। इसका फुल-फुल उपयोग करना है। कौन जाने सलमान खान हमसे सुलह करने को हमें गैलेक्सी में चाय पर बुला ले। इस बहाने एक फोटो सेशन भी हो जाएगा। क्या पता हममें से किसी को बिग बॉस के अगले सीजन में चांस लग जाये। किस्मत अच्छी हो तो क्या पता अपुन का थोबड़ा अगली फिल्म में ‘नई खोज-नया चेहरा’ कह कर पोस्टर पर दिखे। वैशाख नन्दन के माध्यम से वैतरणी पार करने की अनेकानेक संभावनाएं हैं। 


        पशु अधिकार वालों ने इस बात का बहुत ऑबजेक्शन लिया है वो कहते फिर रहे हैं : 

 

                                   गधे का ऐसा अपमान

                                   नहीं सहेगा हिंदुस्तान 


                बाकी के 18 पार्टीसिपेंट्स खुश हैं। उन्हें पैसे भी मिलेंगे, पब्लिसिटी भी मिलेगी। बेचारे शीतलावाहन को क्या मिला ? हरी घास ! यूं देखो तो बाकी 18 भी तो हरी पत्ती के चक्कर में बिग बॉस में आए हैं। पब्लिसिटी से उन्हें भी तो हरी पत्ती ही मिलनी है। अब इन पशु अधिकार वालों से कौन पूछे कि भैया ! ये वाला शंखकर्ण तो फिर भी आराम से रहेगा, भले एक-आध महीना ही सही। तुमको इनके भाई-बंधु नज़र नहीं आते जो दिन-रात भट्टे-भट्टे ईंट ढोते फिरते हैं। जो खोती-रेहड़ी पर जी तोड़ मेहनत करते हैं। वो आपको दिखते नहीं या आप देखना नहीं चाहते जो न घर के हैं न घाट के। दूसरे शब्दों में यहाँ भी इन्सानों वाली पॉलिटिक्स ही चल रही है। यहाँ भी अपने फाॅलोअर्स को गधा ही बनाया जा रहा है। ये तो कोई बात नहीं हुई। गधे कैसी-कैसी यातना सह रहे हैं इन पशु प्रेमियों ने कभी देखा? बस सलमान खान का नाम सुना उनको लगा यह बढ़िया फोरम है, पब्लिसिटी भी और लगे हाथों कुछ पत्रम-पुष्पम की प्राप्ति भी होगी। क्या पता अगले बिग बॉस में कुछ पशु प्रेमी भी आपको दिख जाएँ जो ये सुनिश्चित करेंगे कि बिग बॉस में किसी भी गधे पर कोई अत्याचार तो नहीं हो रहा। और भले किसी इंसान के साथ गधावत व्यवहार हो रहा हो, वान्दा नहीं। किसी गधे के साथ  बदसलूकी  तो नहीं हो रही । ये गुनाह है। गुनाह - ए - अज़ीम है।


           ये बेचारा गधा जो है सो 19 वां भागीदार है। अब आपको भान हुआ क्यों कहावत है कि 19-20 का फर्क है। बस यही इंसान और गधे में फर्क है। गधा कितना परिश्रमी, ईमानदार और शान्तिप्रिय जीव है। रूखा-सूखा खा कर सारी उम्र अपने मालिक की अंतिम सांस तक सेवा करता है। कोई दगा नहीं, कोई आडंबर नहीं। काम, काम, बस काम। 


         गुड बोले तो गुड फॉर नथिंग। भले आदमी को आखिर यूं ही नहीं गधा कहा जाता।