यह हिन्दी फिल्मों का बहुत बार दोहराया गया
संवाद है “उसे ज़िंदा या मृत पकड़ना है/मेरे सामने लाओ वह मेरा है। मैं मारूँगा उसे”
थ्रिलर फिल्मों में अक्सर ऐसा होता था कि अंत में जिसे हमें पूरी फिल्म में मरा
हुआ बताया जाता था वही क़ातिल निकलता था। उसके अपने आप को मृत घोषित करने में भी
उसी का कोई स्वार्थ होता था। कहते हैं फिल्में देख कर बच्चे बिगड़ते हैं। और बड़े
तरह-तरह के गुर सीखते हैं। चाहे वह चोरी-डकैती के हों या प्यार-मुहब्बत के। अब तो
लोग कहने भी लग पड़े हैं कि फलां काम मैंने क्राइम शो देख कर किया। बहरहाल आजकल सब
गड्डमड्ड है। पता नहीं रील लाइफ रियल लाइफ को फॉलो कर रही है या रियल लाइफ रील
लाइफ को।
कोई दिन जाता है जब हम ये नहीं सुनते कि फलां
गाँव में,
फलां कस्बे में जिसे कागज पर मृत बताया गया वह ज़िंदा है। पता चलता
है उसके घरवालों में से ही किसी ने ये प्रपंच रचा होता है अक्सर ज़मीन - जायदाद के
लिए। इस पर एक अच्छी फिल्म पंकज त्रिपाठी अभिनीत ‘कागज’ भी बनी है। मृत आदमी का अस्पताल में, श्मशान में ज़िंदा हो जाना भले आसान हो मगर बच्चू ! जिसे सरकारी कागज़ पर
एक बार मृत दर्ज़ कर दिया तो उसके लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। यह वास्तव में
ज़िंदगी-मौत की लड़ाई बन जाती है। एक बार किसी ने मुझे बताया था, मुझे सुन कर बहुत ताज्जुब हुआ था कि क्या ऐसा भी हो सकता है? उसका कहना था कि मानसिक चिकित्सालयों में जिसे आम भाषा में सीधे-सीधे
‘पागलखाना’ बोलते हैं वहाँ जिनका इलाज चल रहा है वो तो चल ही रहा है मगर वहाँ पर
इन दो वर्गों के ‘मरीजों’ की भी एक अच्छी ख़ासी संख्या होती है जिन्हें उनके खुद के
परिजन कुछ दंद-फंद करके दाखिल कर गए और फिर लौट कर नहीं आए। दूसरे वे जो ठीक हो गए
हैं। बिलकुल भले-चंगे हैं मगर उनके घरवाले
लेने ही नहीं आ रहे। दोनों के आधारभूत कारण ज़मीन-जायदाद अथवा प्रेम प्रसंग है।
जब से सरकारी 'ग्रांट'
और 'ओल्ड एज पेंशन' का
रिवाज चला है तब से ऐसे केस खूब बढ़ गए हैं जहां मृत को ज़िंदा बता उसके नाम की
पेंशन कोई और खा रहा है। ऐसे ही काल्पनिक नाम से पेंशन खाने के न जाने कितने
प्रकरण हैं। सरकार में एक योजना है जिसके अंतर्गत यदि किसी कर्मचारी की सर्विस में रहते हुए मृत्यु हो जाती है तो
उसकी विधवा अथवा उसके बच्चे को सरकारी नौकरी में रख लिया जाता है एक साधारण सी
परीक्षा के बाद। अब इस योजना के इतने पेच हैं कि सुन कर चक्कर आ जाएँ। जैसे कि
मृत्यु एक, नौकरी थोड़े थोड़े अंतराल के बाद दो-दो बच्चों ने
ले रखी है। विधवा के नाम पर भी खेल है। जैसे विधवा फर्जी है, असल विधवा तो गाँव में है उसे कुछ पता ही नहीं। इसी तरह एक तो और भी
खिलाड़ी निकाला वह अपने गाँव चला गया और वहाँ से गाँव के सरपंच से मिल कर अपना डेथ
सार्टिफिकेट भिजवा दिया जो उसके उम्मीदवार बेटे ने अपने सिर पर उस्तरा फिरवा कर
ऑफिस में अपनी नौकरी के आवेदन के साथ सबमिट कर दिया। सो मेरे भारत महान में जहां
पुनर्जन्म होता है वहाँ क्या जीवित क्या मृत ? जहां सात-सात
जन्म साथ जीने-मरने की कसमें खाई जाती हैं। चचा ग़ालिब बहुत पहले कह गए हैं:
"मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने या मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस
काफ़िर पे दम निकले"
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