इससे पहले मैं इस लेख के मुख्य भाग पर आऊँ आप
बताइये जॉर्ज यूल, विलियम वेडरबर्न, अल्फ्रेड वेब, हेनरी कॉटन और एनी बेसेंट में क्या
कॉमन है? हाँ एक बात तो यही हो गयी कि ये सब भारतीय नहीं
बल्कि अंग्रेज हैं। दूसरी बड़ी बात है कि ये सभी भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के
अध्यक्ष रहे हैं। जैसा कि आप को विदित होगा इंडियन नेशनल काँग्रेस की स्थापना ही
एक अंग्रेज़ सिविल सेवा के अधिकारी ए.ओ. हयूम ने सन् 1885 में
की थी। तब से इंडियन नेशनल पार्टी में इतने बदलाव आए हैं और इतनी बार इसमें बिखराव
आया है कि आप गिनती भूल गए होंगे। मज़ेदार बात यह होती थी कि जब भी दो फाड़ होते तो
हस्बे मामूल जो धड़ा पाॅवर में होता वही खालिस/असली काँग्रेस मानी जाती रही अथवा वो
मनवा ही लेती थी कि वही असली है। बाकी नक्कालों से सावधान। हमारी कोई ब्रांच नहीं।
देश की आज़ादी के वक़्त निसंदेह काँग्रेस का महान योगदान है। परंतु आज़ादी के बाद और
उससे पहले भी काँग्रेस का विभाजन इतनी बार हुआ है कि लिखने बैठो तो एक छात्र
पी.एच.डी. कर ले। खुद काँग्रेस को भी याद नहीं होगा। वह एक शेर है ना :
वो
बात और है मेरा नाम किताबों में नहीं लिखा
वरना
दिल्ली की तरह मैं भी कई बार लुटा हूँ
मज़े की बात ये है कि जो भी काँग्रेस बनती वह
पूरी तरह से अपनी गर्भनाल मूल काँग्रेस से तोड़ नहीं पाती थी अतः न केवल अपने
समर्थकों को बल्कि खुद को भी और मूल काँग्रेस को सतत् याद दिलाने के लिए वे अपने
नाम काँग्रेस के आगे-पीछे (प्रीफिक्स-सफिक्स) लगाने लग जाते यथा काँग्रेस (ओ)
काँग्रेस (एन) काँग्रेस (आई) काँग्रेस (उर्स) गो कि ए टू ज़ेड सभी अक्षर लगा कर देख
लिए। कभी नरम दल-गरम दल (1907) में बंटवारा हुआ। जितने
प्रयोग काँग्रेस के साथ हुए हैं शायद ही किसी अन्य राष्ट्रीय राजनैतिक दल के साथ
हुए हों। पर हमेशा सत्तासीन काँग्रेस ही असली काँग्रेस मानी जाती रही। बाकी ए टू
ज़ेड तो देर सबेर राजनैतिक क्षितिज से लुप्त ही हो गए, या फिर
दूसरे ग्रह के वासी की तरह मूल काँग्रेस से ही आन मिले। बोले तो पुनः काँग्रेस में
ही समा गए। आप मोटा-मोटा यह समझें कि अनेक
दल इसी काँग्रेस नाम कि गंगोत्री से निकले। क्या समाजवादी क्या लोक दल, क्या फॉरवर्ड ब्लॉक, रिपब्लिकन पार्टी, क्या तृणमूल काँग्रेस, श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेहरू
जी की कैबिनेट में शामिल थे जिन्होने कालांतर में अलग हो कर भारतीय जनसंघ की सन् 1951 में स्थापना की। 1952 के प्रथम चुनाव में भारतीय
जनसंघ ने भी भाग लिया और एक दो नहीं पूरे तीन सदस्य चुनाव जीते थे। भारतीय जनसंघ
के ‘फाउंडिंग फादर’ रहे सर्वश्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल
उपाध्याय और बलराज मधोक थे। अमेरिका के मुख्य दो दल डेमोक्रेट पार्टी (चुनाव चिन्ह
गधा) स्थापना साल 1828 और रिपब्लिकन पार्टी (चुनाव चिन्ह
हाथी) स्थापना साल 1854 । ख्याल रहे अमेरिका 1776 में ही स्वतंत्र हो खुद मुख्तार हो गया था। इसी तरह इंग्लैंड के दो मुख्य
दल कंजरवेटिव (1834) लेबर पार्टी (1900) इन पार्टियों में अव्वल तो कोई मेजर बंटवारा अर्थात फॉर्मल फूट नहीं पड़ी।
अमेरिका में ज़रूर 1860 में इशू आधारित मतभेद रहा इशू था 'दास प्रथा'। हमारे यहाँ यह सत्ता की लड़ाई ज्यादा रही
है अब उसे ढंकने के लिए नाम कोई सा दे दो। मूल में ‘खुर्ची’ (कुर्सी) ही होती है।
ये खुर्ची महाठगिनी हम जानि।
काँग्रेस ने अपनी तरफ से सारी कोशिशें कर लीं
मगर बात कुछ बन नहीं पा रही। अब कारण कुछ भी हो एक हो, अनेक हों। इतने लंबे अरसे के लिए काँग्रेस कभी सत्ता से अलग नहीं रही। ऐसे
ही चलता रहा तो वे तो राज करना ही भूल जाएंगे। उनसे पहले मतदाता उन्हें भूल
जाएंगे। नेता हो या अभिनेता, यहाँ जो दिखता है वही बिकता है।
आउट ऑफ साइट, आउट ऑफ माइंड ही नहीं बल्कि आउट ऑफ ई.वी.एम. भी
हो जाता है। जयशंकर प्रसाद अपने एक नाटक में कहते हैं “महत्वाकांक्षा का मोती
निष्ठुरता की सीपी में रहता है” अतः मेरी मानें आप अंग्रेजों को ही कहें
"ब्रदर प्लीज़ कम बैक हमारी काँग्रेस संभालो, तुमने बनाई
थी अब तुम्ही जानो"। जैसे जिसने बैंक का सेफ़्टी सिस्टम बनाया होता है वही
उसका तोड़ भी जानता है। अँग्रेजी फिल्मों में तो ऐसे ही दिखाते हैं। जैसे जिस
ब्रांड की कार है उसका उत्पादक ही उसके सभी नट-बोल्ट से वाकिफ होते हैं। अतः उनसे
कहें 'भूल चूक लेनी देनी' 1942 में
हमने ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का आंदोलन किया था अब हम आंदोलन छेड़ेंगे ‘अंग्रेजों
भारत आओ’ क्विट इंडिया’ नहीं ‘क्विकली कम टू इंडिया’। लड़ाई लड़ाई माफ करो.....
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