भारत के ग्रेट निकोबार आइलेंड में साँप की एक
नयी प्रजाति का पता लगा है। यह 'वुल्फ़ स्नेक' अर्थात भेड़िया साँप है। विशेषज्ञों ने इसका नामकरण भी कर दिया है। इरविन (स्टीव इरविन प्रसिद्ध वन्य जीवन
संरक्षक) के नाम पर रखा गया है। यह साँप 1.2 मीटर लंबा है।
इसकी पूंछ पतली और नुकीली है। साँप का ऊपरी हिस्सा नीले-काले रंग का है जबकि निचला
शरीर काले-भूरे रंग का है। यह सब ब्यौरा जानने के बाद मुझे यह साँप कुछ-कुछ परिचित
सा लगा। फिर मैं इस सोच में पड़ गया कि इसके लिए ग्रेट निकोबार, बोले तो, इतनी दूर जाने की क्या ज़रूरत थी। इस
प्रजाति वाले तो यहीं आपके अपने शहर में खुल्ले घूमते मिल जाएँगे। उनकी लंबाई थोड़ी
और लंबी होती है। उनके केस में लंबाई नहीं कहते ऊंचाई (हाइट) बोलते हैं। वे होते
तो भूरे/काले ही हैं। पर सफ़ेद सफ्फ़ाक कपड़े पहनते हैं। सिर पर टोपी भी अक्सर लगाते
हैं। यहाँ सबको एक नाम 'इरविन' से नहीं
बुलाते बल्कि सबके अपने-अपने नाम होते हैं। उनके आगे-पीछे भी कुछ प्रीफिक्स
साफिक्स लगते हैं। जैसे युवा हृदय सम्राट आदि आदि। आखिर साँपों के भी तो कितने ही
पर्यायवाची होते हैं। विषधर, सर्प, नाग,
दुमुंहा, पनियल, भुजंग,
अजगर आदि।
यहाँ शहर-शहर, गाँव-खेड़े
में पाये जाने वाले ये साँप बहुत खतरनाक होते हैं। ये परजीवी होते हैं। ये भी
डराते हैं कभी मतदाता को, कभी झुग्गी झोंपड़ी में जाकर उनको
सामूहिक काट लेते हैं वे सब मीठे सपने लेने लगते हैं कि बस अब स्वर्ग उनकी बस्ती
में उतरने ही वाला है। सन् सेंतालिस से यही चल रेला है। इनका काटा पानी भी नहीं
मांगता। यद्यपि काटने से पहले यह सब बातों के सवाल पर अपना फन हाँ में ही घुमाता/झुकाता है। नौकरी बोलो, रोजगार बोलो, नगदी बोलो, आखिर
साँप भी तो 'मणि' रखता है और उसके लालच
में लोग उसके पीछे-पीछे लगे रहते हैं।
यूं कहने को साँप तरह-तरह के ‘निवास’ में
अपना आवास रखते हैं। अब उनकी दुनियाँ में कोई आवास-विकास निगम या म्हाडा अथवा
डी.डी.ए. जैसी कोई संस्था तो होती नहीं ना ही कोई विशेष 'कोटा' होता है। अतः वे बिल में जहां जगह मिले,
खोह और पेड़ों के तने में रहने को विवश होते हैं पर हमारे शहरों के
साँप बाकायदा बड़े-बड़े फार्म हाउस, कोठियों और लक्जरी फ्लैट्स
में रहते हैं और मरते दम तक उनसे चिपके रहते हैं। जैसे दुल्हन के लिए मेरे भारत
महान में एक कहावत है 'डोली आई है अर्थी उठेगी'। उसी तर्ज़ पर वे चाहते हैं कि इस वाली प्रजाति की अर्थी भी उनके इस
अधिकृत/अनाधिकृत सरकारी आवास से ही उठे। तो भले आदमी नयी-नयी प्रजाति ढूँढने को
जंगल-जंगल द्वीप-द्वीप कायकू टाइम खोटी करना अपने शहर में आकर देखो; भरे पड़े हैं। बस्तियों की बस्तियाँ हैं। जिधर निकल जाइए इनके दर्शन हो
जाते हैं। कौन सा कोना, कौन सा जनपद कौन सा गाँव/ब्लॉक इनकी
पहुँच से दूर है। हर जगह वही स्वर्ग की परिकल्पना मुहैया कराते हुए बशर्ते आप
चुनाव दर चुनाव उन्हें जिताते रहें। वो हार गए तो समझो आपके हाथ से आपका भी स्वर्ग गया।
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