Ravi ki duniya

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Friday, March 12, 2010

फंडे मैनेजमेंट के



(इन सब के बिना भारत में ऑफिस / नौकरशाही की कल्पना नहीं की जा सकती)

कहावत है कि पहले आई.सी.एस. के बेटे आई.सी.एस. हुआ करते थे. फिर आई.ए.एस. की संतान आई.ए.एस बनने लगी. मगर जब से इस प्रकार के इम्तिहानों में रूरल बायस (ग्रामीण ज़ोर) आया और कम्प्युटर ने आकर लोगों का बंटाधार करना शुरू किया तो चिंता होना स्वाभाविक थी
आई.ए.एस. के बेटे-बेटियों को आई.ए.एस. बनने में जेनुइन परेशानी आने लगी. क्या करें ? अब बड़े-बड़े अफसरों की संतान बाबूगिरी तो करने से रहीं. न रिक्शा टेम्पो ही चला सकते हैं. मेरे विचार से वे छोले- भठुरे भी नहीं बेच सकते थे पर पिछले दिनों इतने सारे फास्ट फ़ूड रेस्तराओ को देख कर मुझे यह धारणा बदलनी पड़ी.फिर भी जिन्हें डिस्ट्रिक्ट चलाना था वो कड़छी चलाते अच्छे लगते हैं क्या? ऐसी परिस्थिति में हैसियत के मुताबिक नए हाई टेक रोजगार खोजे जाने लगे. आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है.अतः इसी आवश्यकता की प्रतिपूर्ति के लिए जगह-जगह स्कूल कॉलेज खोले गए जिसमें मेनेजमेंट से लेकर मेनरिज़्म तक पढ़ाई जाने लगी. मेनेजमेंट भी तरह तरह की. साबुन,तेल,अगरबत्ती,सलवार-कमीज़, पापड़, बड़ी आदि बनाने बेचने का काम भी अब मेनेजमेंट एक्सपर्ट करते हैं. वो टाई लगाते हैं और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं.

कहते हैं ब्रिटिश राज को हमारे यहाँ सफल बनाने में हिन्दुस्तानी सिपाहियों और मुंशियों की बहुत बड़ी भूमिका रही है. उसी तरह मल्टीनेशनल और फ़ॉरेन बाँकों के प्रचार-प्रसार में इस तरह के मेनेजरों का काफी योगदान रहा है. वहाँ ऐसे एक्सपर्ट की काफी खपत है. वे उन्हे पदनाम भी बहुत भन्नाट देते हैं. जैसे ग्रुप जनरल मैनेजर, वाइस प्रेसीडेंट, चीफ प्रेसीडेंट, कंट्री हेड आदि. सारे जनरल मैनेजर और डाइरेक्टर ताकते रह जाएँ. ऐसे मैनेजर मील भर दूर से ही पहचाने जा सकते हैं. डिजाइनर शर्ट, डिजाइनर जूते-मोजे, टाई और ब्रीफकेस. वे किंग साइज़ सिगरेट,क्षमा करें , फैग (यथा संभव विदेशी) पीते हैं. यस को याह बोलते हैं. इन मेनेजरों का तो शब्दकोश ही निराला है. इनके साथी और नीचे काम करने वाले सभी चैपी, जौनी ,चार्ली होते हैं.

इसी वर्ग के एक मैनेजेर मेरे परिचित थे. कोई फ़ाइल जाए एप्रूवड एज पर रूल (नियमानुसार स्वीकृत) लिख देते थे. उन्हें इस से अधिक मैनेजमेंट आती ही नहीं थी. अब फ़ाइल भेजने वाले सिर धुना करते थे की यह हाँ हुई या ना हुई. कोई पूछने चला जाये तो बस उसकी तो आफत ही आ जाती थी. काटने दौड़ते थे. यू डोंट नो एनिथिंग इतनी फटकार लगाते थे कि कोई दुबारा जाने की हिम्मत ही न करे. एक मैनेजर साहब तो भारतीय संस्कृति और यहाँ के पशु-पक्षियों से  इस कदर मुतास्सर थे कि मातहत मैनेजर के गुणों की तुलना पशु-पक्षियों से करते थे. यथा मैनेजर को गधे से कुछ सीखना चाहिये (धीरज और मेहनत)मैनेजर को कुत्ते जैसा होना चाहिये (सदैव चौकन्ना और स्वामीभक्त). उनके कमरे में जाने से पहले ही हम शर्त लगाया करते थे कि आज किस जानवर की मुसीबत आनेवाली है. उनका सबसे प्रिय उदाहरण बिलौटे का था पुरुषार्थ (यदि दूध मलाई खानी है ) और फास्ट मूविंग. जब उनकी बदली हुई तब कहीं जाकर हमारी और जानवरों की  रिश्तेदारी ख़त्म हुई. उनकी जगह जो बॉस आए वो पहले कभी प्रोफेसर रहे थे. उनके बारे में मशहूर था कि उन्हे हार्ट प्राब्लम है. बस फिर क्या था जब कभी किसी पर बिगड़ना होता तो पूरे ज़ोर से चिल्लाते और धड़ाम से खुद ही गिर पड़ते. बुरी तरह हाथ पाँव फेंकने लगते. मुँह से झाग निकालने लगते. टोबाटेक सिंह की स्टाइल में इतना कुछ हिन्दी अंग्रेजी में बड़बड़ाते कि कुछ पल्ले ही नहीं पड़ता था (मंटो की एक मशहूर कहानी का पात्र) अगले के जरूर हाथ पाँव फूल जाते और वह सिर पर पैर रख कर भागता. फिर वो स्वतः ही सामान्य होकर ऐसे कार्य करने लगते जैसे कुछ हुआ ही न हो.

एक मैनेजर हमें ऐसे मिले जो कम्प्युटर के कायल थे. उन दिनों हमें चिट्ठी-पत्री,नोट,स्मरण-पत्र सभी कम्प्युटर से आते थे. उनके व्यवहार में कम्प्युटर की नामावली का बहुत उदार प्रयोग होता था यथा हार्ड कॉपी मिलते ही फीडबैक देना. तुम्हारा डाटा बेस क्या है ? आदि आदि.उनके साथ मीटिंग वाले दिन लोग बोर्ड रूम के हिज्जे (स्पेलिंग) बादल कर बोर रूम कर देते. वो सदैव भूतकाल में रहते थे. जब मैं फलां कंपनी में था.. और शुरू हो जाते कि कैसे उन्होने तीर मारे,झंडे गाड़े थे. कई कई बार सुन कर हम सब को उनकी कहानियाँ जुबानी याद हो गयीं थीं.अन्य कंपनी के पात्रों से भी हमारा अच्छा ख़ासा परिचय हो गया था. बदकिस्मती से एक बार उस कंपनी के एक सज्जन से मुलाक़ात हुई तब पता चला कि उस कंपनी के इतिहास में उनसे अधिक लायकमैनेजर आया ही नहीं था व कैसे वे वहाँ से नहीं निकाले जाते तो कंपनी ही डूब जाती. एक कॉन्फ्रेंस में बॉस ने कुछ रकम का टोटल करवाना चाहा तो मैनेजर साहब ने जेबी कैलकुलेटर निकाला और लगे जोड़ने. बॉस के और मैनेजर के टोटल में पाँच सौ का फर्क आ रहा था. बॉस ने लाल लाल आँखें तरेर कर पूछा हाऊ कम तुम्हारा पाँच सौ लैस आ रहा है” ? तो मैनेजर साहब के पसीने छूट गए, घिग्घी बंध गयी और कोई जवाब तो बना नहीं बोले सर मेरे कैलकुलेटर की बैटरी वीक है

आजकल की मैनेजेंट में ट्रेनिंग और सेमिनार आदि का अत्यंत महत्व है. सेमिनार यदि विदेश में हो और कंपनी के खर्चे पर हो तब तो होड़ लग जाती है. सर फुटौव्वल तक कि नौबत आ जाती है. देश में भी इस तरह के सेमिनार पर्यटन कि दृष्टि से अच्छे शहरों में ही आयोजित किए जाते हैं. स्थान तो सदैव फाइव स्टार होटल ही हुआ करते हैं.एक कंपनी में तो मैनेजरों में इसी बात को लेकर काफी रोष था कि अमुक मैनेजरों का सेमिनार तो हिल स्टेशन पर फाइव स्टार में हुआ था, हमारा इसी शहर में और वो भी इस टुच्चे से कॉन्फ्रेंस हाल में क्यों हो रहा है. ऐसे आयोजनों में सेमिनार के विषय से कहीं अधिक भाग लेने वालों के विषय-भोग का ख्याल रखा जाता है.

एक विमान कंपनी में इस ब्रीड के मैनेजरों की बहुतायत थी. वहाँ चालीस विमान प्रतिमाह बनाने का लक्ष्य रखा गया. रिव्यू मीटिंग में देखा की तीन सप्ताह गुजर गए हैं और दस ही विमान बने हैं. कुछ भी कर लें अगले एक सप्ताह में तीस विमान तो बनने से रहे. तब शुरू होती है मैनेजरों की जगलरी (जादूगरी) और सब मिल कर लक्ष्य को ही घटा कर बीस कर लेते ताकि लक्ष्य से कम भी रहे तो ज्यादा कम न लगे. मैंने अनेक बार सुझाव दिया की वे अपने लक्ष्य को क्यों नहीं 15 विमान प्रति वर्ष कर लेते इस से वे लक्ष्य से भी अधिक उत्पादन का श्रेय पा सकते हैं
यह सुझाव तकनीकी कारणों से कभी स्वीकार्य ना हो सका कारण की उनकी कर्मचारी संख्या व प्लांट क्षमता तो सौ विमान प्रति वर्ष उत्पादन की थी.

बात मैनेजरों की हो रही थी. ऐसे मैनेजर मिस्टर नो आल (सर्वज्ञाता) होते हैं होने का दम तो भरते ही हैं. गो गैटर व लाइव वायर होते हैं. थोड़ी उम्र होते ही या चार कंपनी बदलने के बाद मैनेजमेंट के पितामह की तरह बात करते हैं.विदेशी उदाहरणों और सिस्टम पर दिलोजान से निछावर होते हैं. प्रकाश व्यवस्था का उत्पादन पर प्रभावअथवा तरकारी पकाने का फ्लो चार्टदोनों पर समान अधिकार से किताब लिख सकते हैं.उनका बस चले तो घर में झाड़-बुहार का काम भी पर्ट सी.पी.एम. के माध्यम से करें.

अछे मैनेजर, अछे अभिनेता की तरह पैदायशी होता हैं. उसी तरह खराब मैनेजर भी पैदायशी होते हैं. वे कितनी ही मैनेजमेंट की किताबें पढ़ लें, सेमिनार में भाग ले लें या तरक्की पा जाएँ रहते बौड़म ही हैं. इन किसम किसम के मैनेजरों के जो टॉप टेन फंडे जाने हैं आप भी नोट कर लें क्या पता कब आपको भी मैनेजरी संभालनी पड़ जाये.

फंडा नंबर 1.
मातहत हमेशा गलत होता है. यह पुरानी अवधारणा है कि     बॉस हमेशा सही होता है. दोनों के सूक्ष्म अन्तर को पहचानें.
फंडा नंबर 2.
विनम्रता त्यागें. विनम्रता कमजोरी की निशानी है .
फंडा नंबर 3.
एक दो ऐसे तेज अंतरंग सहायक रखें जो आपको सरल भाषा और संदेश में प्रोब्लम/नियम-कायदे समझा सकें.
फंडा नंबर 4.
फ़ाइलें जल्दी न निपटाएं इस से ऐसा लगेगा कि आप बिना पढ़े ही निपटा देते हैं या फिर आप पर और कोई कार्य ही नहीं है
फंडा नंबर 5.
कभी किसी को टेक अप करना ही पड़े तो निचले से निचले कर्मचारी को पकड़ें.
फंडा नंबर 6.
जाँच समिति कि रिपोर्ट क्या होगी यह तय करने के बाद ही जाँच समिति के गठन कि घोषणा करें.
फंडा नंबर 7.
यदि आपको चर्चा पल्ले न पड़ रही हो तो विषय बदलें. यथा बात अगर सहारा रेगिस्तान की हो रही हो तो आप अंटार्कटिका की बात करने लगें.
फंडा नंबर 8.
वर्मा, शर्मा, अस्थाना, कोहली, सिंह, पिल्लई और प्रसाद को आवश्यकतानुसार उठाते-बैठाते रहें. हो सके तो उन्हें आपस में भिड़वाते रहें (बंदर,बिल्ली और रोटी की कहानी याद करें)
फंडा नंबर 9.
समझ ना आए, टालना हो अथवा इशू को किल करना हो तो निम्नलिखित का सहारा लें :
1.     कृपया चर्चा करें
2.     कृपया नियम लिंक करें
3.     कृपया प्रेक्टिस बतायें
4.     कृपया मीटिंग बुलाएँ

फंडा नंबर 10.
जब बात कैसे भी न संभले तो राष्ट्र,राष्ट्रीय चरित्र और मॉरल की बातें करनी चाहिये. ऐसी बातों से सभी की सिट्टी पिट्टी गुम हो जायेगी और सब निरुत्तर हो चुप्पी साध लेंगे.

अपने ये टॉप टेन फंडे क्लियर रखें तो आपको हमेशा तरक्की की लाइन क्लियर मिलती जायेगी 

(व्यंग्य संग्रह मिस रिश्वत1995 से )

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