(हिंदुस्तान में शादी का अर्थ दो जन की शादी नहीं होता, यह दो परिवारों,दो गांवों,की शादी होती है. यह मौका होता है देखने-दिखाने का, रूठने-मनाने का,कर्ज़ लेने देने का. झगड़े-फसाद का,रिश्तेदारी निभाने, बदला लेने का )
कहते हैं जोड़े स्वर्ग से तय होकर आते हैं मगर आजकल अखबारों ने वर-वधू को मिलवाने का काम अपने जिम्मे ले लिया है. अखबारों के सफ़े के सफ़े भरे जाने लगे हैं. साथ ही उन्होने इस बात को भी झुठला दिया है कि सुंदरता देखनेवाले की आँखों में होती है.अख़बार तो कह रहे हैं आओ देखो हमारा हर विज्ञापन सुंदर और प्रेटी वधू ही ऑफर कर रहा है पता नहीं जो लड़कियाँ सुंदर नहीं हैं वे किस अख़बार में विज्ञापन देती हैं. देती भी हैं या नहीं. हो सकता है अब इतने सारे ब्युटि पार्लर के चलते हिन्दुस्तान में कोई असुंदर रह ही न गया हो. आपने कोई विज्ञापन नहीं पढ़ा होगा जिसमें कुरूप लड़के या लड़की का हवाला दिया गया हो. बताया गया हो कि लड़की क्या है पूरी चामुंडा है. सूपर्णखा सी सुंदर है. आओ बेटा आँख बंद करो सिर नबाओ और वरमाला स्वीकार करो.
वैवाहिक विज्ञापनों में एक झूठ धड़ल्ले के साथ बोला जाता है. कोई भी वधू काली नहीं होती सब फेयर होती हैं. जिनकी लड़कियाँ वाकई गोरी-चिट्टी थीं उन्हें इन नकली गोरियों से अपनी स्थिति ख़तरे में जान पड़ी वो फट से अंग्रेजी के विज्ञापन में भी सीधे सीधे गोरी गर्ल लिखने लग गए ताकि आप खातिरजमा रहें कि गोरी, गोरी ही होती है फेयर उसका क्या खा के या कहना चाहिये क्या लगा के मुक़ाबला करेगी.आवश्यकता आविष्कार कि जननी होती है. बाज़ार में तेल,क्रीम,उबटन,मास्क,हर्बल आ गए हैं. सात दिन के अंदर अंदर आपको इतना गोरा कर देने के क्लेम हो गए कि आपकी सखी सहेलियाँ भी आपको पहचान नहीं पायें और पहचान लें तो ईर्ष्या के मारे सिर धुनें 'हाय ये क्या हो गया, कैसे हो गया' ?
लड़का चाहे भौंडा हो या गैंडा हो, सींकिया पहलवान हो या फिर बेरोज़गारी के चलते रोड-इंस्पेक्टरी करता हो,उसके कालेपन को 'कालू राम' नहीं कहते बल्कि पुरुषों ने मिल कर उसे डार्क एंड हेंडसम बना लिया है जैसे जितना ज्यादा काला उतना ही अधिक हेंडसम और ही-मैन होगा.कोई नहीं कहता लड़की डार्क एंड ब्यूटीफूल है. मैं समझता हूँ ये गोरे बनने का बुखार का वाइरस अंग्रेजी दासता के समय से चला आ रहा होगा. वैसे है ये शोध का विषय कि गोरी ही क्यूँ. भारत कि जनसंख्या जिस प्रकार के भू-भाग में बसती है वहाँ तरह तरह के रंग हैं. दरअसल भारत एक रंग-निरपेक्ष देश है. अफ्रीका के रंग भेद की चिंता करने तो हमारे नेता लोग विशेष प्लेन से पूरे यूरोप का चक्कर लगा आते हैं लेकिन अपने देश में जो रंगभेद है उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता. जाये भी क्यूँ ? खुद के फँसने के चान्सेज ज्यादा रहते हैं. इसलिये ऐसे टंटों से दूरी भली.
यह भारतीयों कि ही मनोवृति होगी अन्यथा भला सोचिए कि अफ्रीका वाले गोरी वधू कहाँ से लाएँगे. हमारे सयाने कहते कहते सठिया गए कि चाम नहीं काम प्यारा होता है. ब्युटी तो स्किन डीप होती है. सुंदरता से अधिक महत्वपूर्ण शील-स्वभाव होता है आदि आदि.इस सबके बावजूद शादी लायक होते ही हर लड़का ठान लेता है कि शादी करनी है तो मसाला फिल्म की हीरोइन से या उस से मिलती जुलती से न कि आर्ट फिल्म की नायिका से. वह तो आर्ट फिल्म में ही भली. उस से सहानभूति रखी जा सकती है उसके परिवेश पर अंग्रेजी में सेमिनार आयोजित किए जा सकते हैं. शादी ? और उससे, न बाबा न. उबटन,क्रीम,खीरा,नींबू-संतरे के छिलके आदि न जाने क्या क्या चीजें गोरा बनने की चाह में इस्तेमाल में ली जा रहीं हैं. ये कोसमेटिक सर्जरी वाले पकोड़े सी नाक को क्लिओपेट्रा की नाक बना सकते हैं. आपके गाल में गड्डे डाल सकते हैं (जेब में भी ) आपकी ठोड़ी को काट-छांट कर मोहक बना सकते हैं, आँखों बालों का रंग बादल सकते हैं. मगर आपका रंग अगर काला है तो वे कुछ नहीं कर सकते.
आप भी भला क्या करें. रेगमाल से तो नहीं घिस सकते. ऐसे में आपकी मदद को आते हैं ये विज्ञापन जिसमें आप 'फेयर' लिखकर बात बना सकते हैं. 'डिसेंट मैरिज' का अर्थ अब सब समझने लगे हैं कि मोटी मुर्गी है. सभी वधुएँ स्वीट, लविंग,केयरिंग,प्रेटी और होमली हाती हैं. जैसे मर्द सारे टॉल,हेंडसम के साथ साथ वेल् सेटल्ड और चार अंकों कि आय वाले होते हैं. यह एक हज़ार से लेकर नौ हज़ार नौ सौ निन्यानवे तक कुछ भी हो सकती है.
मेरे एक परिचित से लड़की वालों ने ज़िद की कि आगे की बात बाद में करेंगे पहले बतायें बारात कौन से फाइव स्टार में ठहराना पसंद करेंगे-- अशोका या इंपीरियल ? चार्टर्ड प्लेन करें या स्पेशल ट्रेन से आयेंगे ? खर्चे की फ़िकर न करें सब हमारा होगा, आखिर हमारी इज्ज़त का सवाल है. लड़केवालों को ऐसी बातें सुन सुन कर सन्निपात सा हुआ जाता था. आगा पीछा सोचे बिना मंत्र-मुग्ध हो गए और दौड़े दौड़े गोद भर आए. जब बारात शहर में उतरी तो किसी ने पानी की भी न पूछी और खाना ऐसा था कि बारात सवेरे फ़ूड पोइजनिंग से अस्पताल में दाखिल थी. सबको स्पष्ट तौर पर कट्टे-तमंचों की सहायता से 'समझा' दिया गया था कि चूँ भी की तो सबको दहेज के इल्ज़ाम में अंदर करा देंगे. बाराती अस्पताल से ही छुपते-छुपाते जान बचा कर भागे. किसी ने अपने सामान की रिपोर्ट भी न लिखायी.कहने लगे लड़की वालों को गिफ्ट कर आए हैं.
लड़केवालों के नखरे की बात ही निराली है. विवाह समारोहों में लड़केवाले मील भर दूर से ही पहचाने जाते हैं. उनके हाव-भाव और व्यक्तित्व से लड़केवाले होने का घमंड लगातार टपकता रहता है. हमारे मोहल्ले के एक सज्जन ने बेचारे लडकीवालों को यह कह कर भौंचक्का कर दिया कि 'दुल्हा हाथी पर आएगा इसलिये बारात के साथ साथ हाथी के खाने का इंतज़ाम भी कर रखें. ज्यादा नहीं यही कोई चार मन केले और बीस गट्ठर गन्ने' उनका यह भी कहना था ' मैं तो ऐसी चीजों के सख्त ख़िलाफ़ हूँ मगर लड़के की माँ की ज़िद है पप्पू को हाथी पर बैठा देखने की' आपने गौर किया होगा कि लड़की पर या लडकीवालों पर जितना लड़की लड़के की माँ,बहन,भाभी भारी पड़ती है उतना अन्य कोई पुरुष संबंधी नहीं. निष्कर्ष वही पुराना 'औरत ही औरत की दुश्मन होती है' बहरहाल जब बारात जाने लगी तो हाथी को देख पप्पूजी की घिग्घी बंध गयी. उसने सारी ज़िंदगी तो साइकल की सवारी की थी.पप्पू के पापा फिर भी हाथी को साथ ले गए थे. रौब रहेगा.
बारातियों के ठसके भी लाजवाब होते हैं. गाँव और कस्बों की शादियों में तो बाराती भी दूल्हे से उन्नीस तैयारी नहीं करते. निकटतम काबे के बड़े बाज़ार में अनेक दुकानें तो मात्र बारातियों की ज़रूरत की चीजें ही रखती हैं जैसे रंगीन तेल की छोटी शीशी, खुशबूवाला साबुन (किसी भी कंपनी का) , साबुनदानी, रूमालों का जोड़ा,टोपी,तौलिया,सस्ते से सस्ते इत्र, छोटीवाली क्रीम की शीशी, चटख रंग के मोजे, किसी भी ब्रांड की छोटी टूथपेस्ट और टूथब्रश.
जब से होटल और मैरिज हौल में शादियाँ होने लगी हैं सारा मज़ा ही किरकिरा हो गया है. न पत्तल रही न पांत रही और न ही वो इसरार से खीर-पूड़ी और शर्त बद कर लड्डू खाने-खिलाने वाले रहे. रह गयी है तो बस डायबिटीज़,डाइटिंग और बूफ़े डायनिंग अर्थात कौव्वा भोज.
(व्यंग्य संग्रह 'मिस रिश्वत' 1995 से)
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