भटक रहीं थीं उम्मीदें
ज़िन्दगी के बियाबाँ में
दूर दूर तक मंजिल का
पता न था.
अपना तो था ही नहीं कोई
पराया भी न था.
एक दिन तुमने वो धड़कन सुनी
अनौपचारिक रूप से
तुम अब वो धड़कन बन गये.
मेरी आवारा उमंगों के
घर बन गये .
बेखुदी कुछ यूँ छायी
मैं- तुम अब, 'हम' बन गये.
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एक आँख भर देखा था तुम्हें
तुम्हारी छवि नयनों में बसा ली है.
एक बार तुम मुस्कराए थे
उपहास में या प्रशंसा में
ठीक से पता भी नहीं .
तुम्हारी वो छवि नयनों में बसा ली है .
तुम्हें खबर नहीं होगी !
मैं निश्चित हूँ
तुम्हें खबर नहीं होगी .
क्योंकि और भी बेहतर बातों का
ख्याल रखना है तुम्हें.
पता है ? मैं रोया नहीं हूँ तब से
लोग तो विछोह में हँसते नहीं हैं .
तुम्हें याद है तुमने कहा था
"पानी से भीगना अच्छा नहीं लगता "
बस ये ही मेरी मजबूरी है.
तुम मेरे नयनों में बसती हो
और मैं रो नहीं सकता.
(काव्य संग्रह 'ओस की बूंदें' 1994 से )
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