मेरे मर्ज़-ऐ-इश्क की दवा हो गयी
हिज्र की रात की आखिर सुबह हो गयी
मैं क़ाफ़िर हूँ ? क़ाफ़िर ही सही !
मेरी तो महबूब ही मेरी ख़ुदा हो गयी
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तुझे क्या खबर तुझसे मुलाक़ात के
क्या क्या आसार खोजा करता हूँ मैं
मनाता हूँ , तू कुछ भूल जाये
और आधे रास्ते देने आऊँ मैं
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दूर क्षितिज पर जब दिन ढले
साँसों के स्पर्श से जब तन जलें
आओ ! समाज की सीमा से आगे बढ़ चलें
और उस नीम के वृक्ष तले, हम-तुम गले मिलें
(काव्य संग्रह 'सीपी मोती भरी' 1992 से )
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