Ravi ki duniya

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Friday, March 19, 2010

सीपी मोती भरी

मेरे मर्ज़-ऐ-इश्क की दवा हो गयी
हिज्र की रात की आखिर सुबह हो गयी 
मैं क़ाफ़िर हूँ ? क़ाफ़िर ही सही !
मेरी तो महबूब ही मेरी ख़ुदा हो गयी 


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तुझे क्या खबर तुझसे मुलाक़ात के 
क्या क्या आसार खोजा करता हूँ मैं 
मनाता हूँ , तू कुछ भूल जाये 
और आधे रास्ते देने आऊँ मैं 

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दूर क्षितिज पर जब दिन ढले 
साँसों के स्पर्श से जब तन जलें 
आओ ! समाज की सीमा से आगे बढ़ चलें 
और उस नीम के वृक्ष तले, हम-तुम गले मिलें 


(काव्य संग्रह 'सीपी मोती भरी' 1992 से )

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