ओलंपिक हो या कोई और टूर्नामेंट हमारी टीम सब जगह से लगभग खाली हाथ ही लौटती हैं. हमें इसकी आदत हो गयी है वैसे ही जैसे उन्हें ग्लानि और शर्म की हो गयी है, हारी हुई टीमें एक साथ नहीं लौटती हैं तथा कैमरे से मुँह छिपाती फिरती हैं.
वास्तव में पदक न जीत पाने में हमारे खिलाड़ियों का कोई दोष नहीं है. दोष है हमारे संस्कारों का. हमें तो सदैव यही शिक्षा दी गयी है – तू कर्म किए जा फल की इच्छा न कर. सो वत्स ! तू तो ओलंपिक में जाये जा पदक की इच्छा न कर. ये ज़िंदगी फ़ानी है. जीवन क्या है ? – पानी का बुलबुला है. फिर ये भागदौड़, ये ईर्ष्या, ये द्वेष क्यों. अरे तू न जीता न सही. ब्राज़ील तो जीता. वो भी तो तेरे भाई हैं. वसुधेव कुटुंबकम की भावना का इस से बेहतर प्रदर्शन भला और क्या होगा. एक कोई देश स्लोवाकिया नामक है उसने भी पदक जीते हैं तो क्या हम उस से भी स्लो हैं. यह देश नक्शे में कहाँ है इसे ढूँढना उतना ही कठिन है जितना हमारे पदाधिकारियों को जिनका पता-ठिकाना उनसे भी गुप्त रखा गया जिनसे समन्वय के नाम पर वो वहाँ पधारे थे.
अब कोई हमसे कहे कि गोला फेंको, भाला फेंको तो हमारे मन को अंदर तक चोट पहुँचती है. बापू के अहिंसावादी देश में ऐसे हिंसक खेल. न बाबा न . मेडल या नो मेडल. पर नो खून खराबा. अब कुश्ती को हो लीजिये हमारे पहलवान यहाँ कितनों से कुश्ती करके तो सूची में अपना नाम जुड़वा पाये थे. बेचारे यहीं थक गए. वहाँ क्या खाक भिड़ते. सुना है जाते जाते भी भिड़ंत जारी थी. वैसे यदि भिड़ाना ही था तो भाई-भतीजावाद से भिड़ाते .सिफ़ारिशवाद से भिड़ाना था. और तब तक कुश्ती जारी रहती जब तक एक पार्टी हार न मान लेती. डबल्यू.डबल्यू.एफ़. के स्टाइल में नहीं बल्कि असली कुश्ती आर या पार की
हमारे मित्र अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक संघ को एक नोटिस जारी कर रहे हैं कि हमारे विशाल और महान देश को देखते हुए उन्हें लोहे, लकड़ी, टिन, चमड़े, गत्ते और कागज के मेडल भी चलाने चाहिए. ये क्या कि आप सात समंदर पार कर जाएँ मगर पदक तालिका में आपका नाम दूर-दूर तक न हो.
तन्हा-तन्हा यहाँ पर जीना ये कोई बात है
कोई मेडल नहीं हाथ मेरे ये कोई बात है.
हॉकी पर न जाने क्यूँ हम अपना अधिकार समझते हैं. लेकिन जिस प्रकार की हमारी परफॉर्मेंस तथा पोलिटिक्स है हमें दस-बीस साल के लिए ओलंपिक और टूर्नामेंट से अलग हो जाना चाहिए, नाहक ही इतनी विदेशी मुद्रा का अपव्यय होता है. कम से कम वो तो बचत होगी. कहते हैं हमारे हर दल में खिलाड़ियों से कहीं अधिक उनकी देखभाल को गए पदाधिकारी होते हैं, यह भी गलत है हमें अपने खिलाड़ियों की इतनी देखभाल भी नहीं करनी चाहिए कि वे आराम तलब हो जायें और मेडल जीतना उनकी प्राथमिकता ही न रह जाए. वैसे सुनने में यह आया है कि बेचारे खिलाड़ी ही पदाधिकारियों की जी हुज़ूरी करते फिर रहे थे और चिलम भरने में लगे थे.
एक सुझाव यह भी है कि भारत एक अनुदान प्रधान देश है. हमारे यहाँ दान लेने-देने की एक दीर्घ परंपरा रही है. अतः ऐसे देश जिन्हे पदक मिले हैं उन्हें स्वेच्छा से कुछ पदक भारत को दान कर देने चाहिये. बदले में हम उन्हें दूधों नहाओ पूतो फलो का आशीर्वाद दे सकते हैं. इस आशीर्वाद का कमाल हम अपने देश में तो देख ही रहे हैं जहाँ इतने पूत फले हैं कि दूध में खतरनाक रसायन मिलाने पड़ रहे हैं. पदक विजेता देशों को ये बात समझाई जा सकती है कि दान देने से उनका लोक-परलोक दोनों सुधरेगा. दे दाता के नाम.
क्या ही अच्छा हो यदि हमारे देश,काल,समाज और योग्यताओं को देखते हुए अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक संघ इन प्रतियोगिताओं को सम्मिलित करे.
बलात्कार : इस वर्ग में सामूहिक और एकल आयोजन कराये जा सकते हैं. इस खेल में अद्भुत टीम स्पिरिट का प्रदर्शन अक्सर देखने में आता है.
हत्याएँ : इंडोर ( घर में घुस कर ) तथा आउटडोर ( ब्लू लाइन बस से )
घोटाले : इसमें अनेक स्वर्ण पदक भारत की झोली में गिरेंगे. अनेक प्रतियोगी देशों से तो वाक ओवर ही मिल जाएगा. इसमें चीनी.चारा, सड़क, मस्टर रोल, यूरिया,मकान आबंटन, पेट्रोल पम्प, गैस एजेंसी आबंटन जैसे ईवेंट्स कराये जा सकते हैं
रिश्वतखोरी : कौन कितनी जल्दी और अधिक से अधिक रिश्वत खा सकता है और पचा सकता है. इस खेल के सभी वर्गों में भारत छा जाएगा. इसी प्रकार की अन्य प्रतियोगिताएं यथा मीटर मेनिपुलेशन, जिसमें पेट्रोल पम्प, ऑटो रिक्शा , टेक्सी ,बिजली पानी के मीटर शामिल किए जा सकते हैं. मिलावट के मेराथन में भी भारत आसानी से तमाम देशों के ऊपर अपनी जीत दर्ज़ करा सकता है.पेट्रोल,दूध,दाल,मसाले,शराब,चाय पत्ती ओपन चॅलेंज
इसी प्रकार की अन्य प्रतियोगिताएं कराईं जा सकती हैं. मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है की हमारी पवित्र पावन उर्वरा भूमि पर इतने सोने के मेडलों की बरसात होगी की वह पुनः एक बार सोने की चिड़िया होने का गौरव प्राप्त करेगी.
मेरा भारत महान.
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