Ravi ki duniya

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Saturday, February 6, 2010

मामे दी ससुराल

अगर आपने कभी दिल्ली के ऑटो रिक्शा में सवारी की हो या देखे भी हों तो आपकी नज़रों से उन पर लिखे खूबसूरत शेर और स्लोगन न बच पाये होंगे. उन में एक भोलापन और गुदगुदी होती है. ये रेड लाइन और ब्लू लाइन बसों पर अंकित छिछोरेपन से पहले की बात है. उन में अक्सर एक इबारत बहुत कॉमन होती है. 'पप्पू ते पिंकी दी गड्डी' या फिर 'सोनू दी गड्डी'. नाम बदलते रहते हैं भाव यही रहता है. इसी तर्ज़ पर शहरों को हम अपने रिश्तों से जानते हैं.झांसी का नाम आते ही मुझे मामे दी ससुराल याद आती है. एक बार मुझे भी झांसी अपने मामा की ससुराल जाने का मौका मिला.

ससुराल शब्द में जो राल शब्द है उसका अर्थ लार से है अर्थात वह स्थान जहाँ जाने के नाम से राल टपकने लगे को ससुराल कहते हैं. पुराने घी-बूरे और खीर-पूड़ी के खाने वालों से लेकर आज के चाओ-मीन और पिज़्ज़ा खाने वाले दामाद तक इस बात की तसदीक करेंगे.लार की मात्रा और तीव्रता इस बात पर निर्भर करती है कि आप पत्नी को छोडने जा रहे हैं या लेने और ससुराल में सालियाँ बसती हैं या साले.


मेरे मामा की नयी नयी शादी हुई थी. वो शादी के बाद पहली बार ससुराल जा रहे थे. पंद्रह-बीस दिन पहले से ही तैयारी ज़ोर-शोर से चल रही थी. नए-नए कपड़े आ रहे थे. शृंगार प्रसाधन सामग्री एकत्रित की जा रही थी. खूशबूदार साबुन से लेकर,नई टूथपेस्ट,माउथ वाश,आफ्टर शेव, रूमालों का नया सेट. कई तरह के सेंट और भी न जाने क्या क्या. इतनी तैयारी तो मेरे मामा ने शादी में जाते वक्त भी नहीं की थी. मुझे मेरे मामा 'मॉरल सपोर्ट' को साथ ले जा रहे थे. वो खुद तो काफी नर्वस थे मगर मेरे रहने से हिम्मत बंधी हुई थी. स्टेशन पर उतरते ही चार-पाँच लोगों ने हमें घेर लिया.(रिसीव किया) वो ऐसे घूरे जा रहे थे जैसे ज़िंदा ही निगल जायेंगे. लपक-झपक में उन्होने सारा सामान अपने सर और कंधे पर उठा लिया बोले चलो पैदल ही चलते हैं. बस रेल्वे लाइन पार करके ही है. हम लोग कूदते-फाँदते लो ससुराल भी आन पहुँचे . घर में चहल-पहल इतनी थी कि मैंने किसी और की ससुराल में कभी नहीं पायी. हमारे दो प्राणियों के आ जाने से तो घर में हलचल मच गयी थी. पानी एक साली लायी तो ग्लास उठाने दूसरी.तीसरी हँसती-खिलखिलाती नमकीन की प्लेट रख गयी तो चौथी नज़रें चुराते चुराते मिठाई रख गई. मुझे तो किशोरोचित कौतूहल था ही ससुराल में भी कम कौतूहल नहीं था. खासकर उन्हे लग रहा होगा कि ये हंस(दामाद जी) के साथ कौवा क्या कर रहा है.


डबल बेड तथा सोफ़सेट कल्चर से पहले मेहमान को खटिया अथवा मसहरी पर ही बैठाया सुलाया जाता था. पीछे दहेज तथा पत्नी पीड़ित संबंधी कानून इतने सख्त-सख्त हो गए हैं कि दामाद जी की खटिया दूर सरका दी गयी है. दामादजी को भी डर है कि ज़्यादा चूँ चपड़ की तो खटिया खड़ी होते देर न लगेगी. महिला थाने में एक फोन कॉल ही काफी है. नारी मुक्ति मोर्चे वाले तो भद्द उड़ाने को सदैव तत्पर बैठे ही रहते हैं. नवविवाहिता जब चाहे सास-ससुर,देवर-ननद सब को एक ही धोबीपाट में ज़मीन सुंघा सकती है. इसके चलते समझदार लड़के वाले तो पहले दिन से ही 'बकरी' बन जाते हैं. नवविवाहिता की पुराने समय में मुँह दिखाई की रस्म अदा की ज़ाती थी. अब नवविवाहिता देवर-जेठ,सास-ससुर व ननद सब की मुँह दिखाई ऐसे करती है कि ससुराल में सब अपना मुँह छुपाए फिरते है व सामने पड़ने से कतराते हैं. वह पहले दिन से ही अपनी स्ट्रेटजी तय कर लेती है. लेकिन वह सास ही क्या ज़ो बड़बड़ाए नहीं,कुढ़े नहीं.जिन सासों को घर में बोलने का अवसर नहीं मिलता वे बाहर पूजा-कथा व रिश्तेदारियों में कहती फिरती हैं कि हमारा सुरेश तो शुरू से ही दहेज के सख्त ख़िलाफ़ है. मन ही मन कहती ज़ाती हैं भगवान ऐसी औलाद से तो बेऔलाद ही रखता.


मामाजी के सास-ससुर के हटते ही साले-सालियों ने हल्ला बोला तथा धरने पर बैठ गए. जीजाजी हमें कहाँ कहाँ घुमाने ले जाओगे. आज शाम को फिल्म देखने चलें. सीपरी बाज़ार घूमने जायेंगे. खजुराहो को सीधी बस है. किला देखने चलेंगे. आदि फरमाइश शुरू हो गई. मामा फरमाइशों से ऐसे सराबोर हो गए कि पूछो मत. वे भाव विभोर हो सबको हाँ करते जाते थे, दरअसल इतना खुश और हर्षोल्लासमय मैंने उन्हें जीवन में फिर कभी न पाया. आनन-फानन में सभी कार्यक्रम तय हो गए. कोई फिल्म की टिकट बुक कराने दौड़ा जाता था. कोई खजुराहो की बस के टाइमिंग्स जानने. बड़ा ही त्योहारमय माहौल था. तभी पता चला कि मेरी मामी की सहेलियाँ 'दूल्हे' को देखने आ रही हैं. झांसी की जानलेवा गर्मी की परवाह न करते हुए मामाजी को फिर सूट टाई में डाट दिया गया.मुझे आश्चर्य हुआ जब आँगन में चारपाई बिछाई जाने लगी. मैंने सोचा शायद अधिक लोग आ रहे होंगे. लेकिन पता चला यहाँ तो सामान सजाया जायेगा. लोग दूल्हे को देखने तो आ ही रहे हैं लगे हाथों क्यों न उन्हें दहेज का सामान भी दिखा कर धाक जमा दी जाये. देखते-देखते थाली-कटोरे, टी सेट से लेकर लैंप, प्रैस, सूट लेंथ, गहने आदि सभी सज़ा दिये गए. अब शुरू हुआ 'शो'. पड़ोसनें और सहेलियाँ इठलाती अकेली-दुकेली गोद में बच्चे लिए हँसती-मुस्कराती आती जा रहीं थीं.कहा नहीं जा सकता कि वे दहेज को ज़्यादा ध्यान से देख रहीं थीं कि दूल्हे को. मामा का ये हाल था कि ऐसे शरमा, सकुचा रहे थे कि मैं उनके साथ न होता तो मूर्छित ही हो जाते.


तभी यकायक शोर हुआ की एक थाल कम पड़ रहा है. सभी बता रहे थे की कैसे सुबह तक 36 थे और अब 35 ही रह गए हैं. कोहराम माच गया. नथ गिरने जैसा अपशकुन हो गया था. आगंतुक भद्र महिलाएँ ज़ो अभी तक बात बात में खिलखिला रहीं थीं ऐसे चुप पड गयीं जैसे किसी ग़मी में आई हैं. जिनके बच्चे सामान छू रहे थे वे अपने अपने बच्चों को डाँट कर घसीटते हुए सामान से दूर ले जा रही थीं. मामा की अलग भृकुटी तन रही थी. रंग में भंग ज़ो पड़ गया था ससुर साहब समझदार थे उन्होने तुरंत बात संभाली अरे भाई एक पीस डिफ़ेक्टिव था मैंने सुबह ही बदलने के लिए दिया है. तब कहीं जान में जान आई. मगर वायुमंडल में थाली उड़नतश्तरी की तरह घूम रही थी. सहेलियाँ नाक भों सिकोड़ते हुए कुछ न कुछ काम का बहाना बना चलती बनी. हम लोग अब घरवाले ही रह गए थे. सब सामान समेटा जाने लगा. सासूजी लड़कियों को डांट रही थीं. और करो सामान की नुमायाश मैंने कितना मना किया कोई मेरी सुने तब न. कोई कुछ गहना दबा कर ले ज़ाती तो ? और ये मालती कैसे दामाद ज़ी से नैन मटका मटका कर बातें कर रही थी. इसे किसने बुलाया था ?


शाम को फिल्म देखने जाना था. दो घंटे पहले से ही तैयारी शुरू हो गयी थीं. थिएटर पर खबर करा दी गयी थी. सीपरी बाज़ार से साले-सालियों के लश्कर का नेतृत्व करते मामाजी किसी सुल्तान से कम न लग रहे थे. सब हमी को देख रहे थे या फिर संकोचवश मुझे ही ऐसा लग रहा था. सालियों वाले जीजा लोग इस बात को भालिभांति जानते हैं कि ससुराल में वे कभी बोर नहीं हो सकते. हज़ारों बातें होती हैं सालियों के पास जीजाजी को कहने सुनाने के लिए. अब कोई जीजा ही इतना अभागा हो कि सुनना न चाहे तो उसकी क्या बात करें. इंटरवल में हम सबके हाथों में इतनी खाद्य सामग्री थी कि ऐसा लग ही नहीं रहा था हम फिल्म देखने आए हैं. ऐसे लग रहा था जैसे हम डिनर खाने निकले थे मेरे मामा ने दिल और पर्स दोनों खोल दिये थे. वो इस विजिट को यादगार विजिट बनाना चाहते थे. पहले प्यार की तरह पहली बार ससुराल जाना भी आदमी कभी नहीं भूलता.

दूसरे दिन सवेरे-सवेरे खजुराहो की बस पकडनी थी. तरोताजा होकर पर्वतारोहण की सी तैयारी कर हम सब लोग बस में जा बैठे. इधर बस चली उधर मामी ने उल्टियाँ शुरू कर दीं. नववधू उल्टी कर रही है. बस में स्त्रियाँ मुस्करा रही हैं. मामा का बुरा हाल था. खजुराहो से लौटते समय की यात्रा सदैव याद रहेगी. दल में सब 'सिक फील' कर रहे थे. दल के सदस्य प्रस्तर मूर्तियों का न तो शिल्प पक्ष न कोई अन्य पक्ष 'एप्रीसिएट' कर पाये. खासी बोरियत रही.कहते हैं मेहमान और मछली दो दिन के बाद असहनीय हो जाते हैं. बस, मामा को जितने जोक्स और शेर याद थे वो सुना चुके थे.सालियाँ सब अपने अपने करतब यथा पेंटिंग तथा एंब्रायडरी से लेकर नृत्य-गायन तक दिखा चुकी थीं. प्रवास समाप्ती की ओर था.जैसे-जैसे गाड़ी का समय नज़दीक आता था मामा संजीदा होते होते दुखी हुए जाते थे (मामी साथ नहीं आ रहीं थी) एक दूसरे को अपना ख्याल रखने का प्यार भरा इसरार हो रहा था. चिठ्ठियों को लेकर तकरार हुई ज़ाती थी. मामी एक दिन छोड़ कर एक दिन लिखने को कह रहीं थीं मामा रोज़ाना लिखने की ज़िद किए थे.वो दो महीने का एक ऐसा फ़ेज़ मेरे मामा की ज़िंदगी में आया था जिसमें उन्होने कविताएँ और शेर लिख-लिख कर न जाने कितनी डायरियाँ भर दीं थीं. हर शेर और कविता में या तो मामी की सुंदरता का वर्णन होता था या फिर उनकी कही किसी बात (गद्य ) को पद्य रूप दिया गया होता था .

कालांतर में मामी के आ जाने के बाद मामा का कविता लिखना बंद हो गया. तीन बच्चों के बाद एक दिन मैंने पूछा तो उनकी डायरियाँ स्टोर की परछत्ती पर भी नहीं मिलीं.उनका कहना है कि शायद या तो मामी ने चूल्हा जलाने के काम में ले ली हैं या फिर बच्चों ने रफ काम के लिए इस्तेमाल कर ली. बहरहाल हम लोग जब भी बैठते हैं मामे दी ससुराल का ज़िक्र ज़रूर करते हैं.

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