Ravi ki duniya

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Tuesday, February 9, 2010

चाँदनी रात में नौका-विहार


इस शीर्षक के निबंध ने हमारा पीछा स्कूल से जो शुरू किया तो कॉलेज तक न छोड़ा. बड़ा ही सुंदर वर्णन चाँदनी रात में नौका विहार का किया जाता. कैसे मधु ने अपने मधुर कण्ठ से मधुरतम गाना गाया. कैसे राकेश ने माउथ ऑर्गन पर दर्द भरी धुन छेड़ी आदि आदि. सब काल्पनिक होता था और रोमांटिक किस्म के लोग इस कोरी कल्पना में अपनी दबी ढँकी इच्छाओं का छौंक लगा देते थे तथा नख-शिख का सुंदर वर्णन करते थे.
एक बार ऐसा अवसर आया कि हमें ये कल्पना साकार करने का अवसर मिला. सात-आठ मित्र निकल पड़े. यह तय पाया गया कि  शाम तक झील पर पहुँच जायेंगे. नौका-विहार का असली मज़ा तो चाँदनी रात में ही है. झील का रास्ता सिवाय एक आदमी के किसी को पता न था. वह भी इस से पूर्व बचपन में ही यहाँ आया था. सारे रास्ते वह हमें यही बताता रहा कि कैसे यह सारा तब जंगल था और ये बिल्डिंग, ये मकान, ये बाज़ार कुछ भी नहीं था. इस पीढ़ी के लोगों में एक और मर्ज होता  है-- तब ज़मीन आठ आने गज मिल रही थी, फलां ने बहुत ज़िद की ले लो, आज फलां फलां करोड़पति हो गए आदि. उसकी बातों में हम रास्ता भी भटक गए. मूर्ति जिसे सब शिट-मूर्ति कहते  थे उसके तकिया कलाम की वजह से, सलखड़े जो बचपन में वहाँ आया था या फिर हमारे साथ आ रहा था. नंदिशय्या, उसके दो दोस्त और नंदा तथा मैं. 
बातों-बातों में हम दो बार रास्ता भटक गए थे. कारण कि सलखड़े की याददाश्त उसे दगा दे रही थी. हम सब एक दूसरे को कोस रहे थे कि  सलखड़े जिसे सुबह की बात शाम को और शाम की बात सुबह तक याद नहीं रहती उसके कहने में हम सब लोग कैसे बेवकूफ बन गए और घरों से 100  किलोमीटर दूर जंगल में निकल आए. पता चला कि  सलखड़े ने ही अपनी जान-पहचान से झील स्थित वी.आई.पी. डाक बंगले की बुकिंग  कराई थी. अतः सब उसका ज्यादा मुखर विरोध भी नहीं कर रहे थे. 
खैर दिन छुपे हम लोग डाक बंगले पहुँच गए. इतने सारे लोगों को आता देख चौकीदार भागा आया. वो  न किसी उपन्यास के पात्र की तरह रहस्यमयी था और न ही किसी भूतहा फिल्म की तरह बूढ़ा, बल्कि हट्टा-कट्टा जवान था. हम लोगों ने उसे आदेश दिया कि  वह तुरंत हमारे कमरे खोले. वह हमें ऐसे देख रहा था मानो हम किसी अन्य ग्रह के वासी हैं. किसी उड़न तश्तरी से उतरे हैं. उसने हमें साफ़ हिन्दी में बताया कि  हमारा वहाँ कोई रिजर्वेशन ही नहीं है. हम सब लोगों को मानो काठ मार गया. ग्रुप पेरलसिस नाम की अगर कोई बीमारी होती, तो हमें वह हो गयी थी. हम सब सलखड़े की ओर मुड़े जो सदेव की भाँति कन्फ्युज और सिरियस खड़ा था. उसने हकलाते हुए बनावटी क्रोध से चौकीदार से कहा : हमारा टेलीग्राम क्या हुआ ? ढेकुने साब ने तुम्हें नहीं कहा ? जगताप ने हमको कन्फ़र्म किया था. अब तक हम और चौकीदार दोनों समझ चुके थे कि  सलखड़े ने गड़बड़ कर दी है. शिट मूर्ति का कहना था कि सलखड़े कोई भी काम सीधे कैसे कर सकता है. और हम सब सलखड़े से भी बड़े बेवकूफ हैं जो उस पर यकीन किया. सलखड़े, एक 50-55 वर्षीय गंजा व्यक्ति था जो सदेव एबसेंट माइंडड रहता था. बात हो रही हो खेत की तो वह बात करता खलिहान की. बात करते करते वह बड़े जोश में आ जाता. इस से उसकी छोटी छोटी आँखें और भी छोटी हो जातीं. होंठ के दोनों किनारों पर थूक जम जाता. ऐसी दशा में वह और भी फनी लगने लगता था.
यह तय पाया गया की चौकीदार को पटाया जाए. नंदिशइया ने उसे हड़काते हुए कहा कि  भाई हमने तो टेलीग्राम भी भेजा था. एडवांस बुकिंग की थी. जगताप ने कनफर्म भी किया था. तभी तो हम इतने लोग इतनी दूर से आए हैं. लेकिन चौकीदार  जो एक एक्स सर्विसमेन था बिल्कुल भी प्रभावित न हुआ. उसने साफ़ साफ़ मना कर दिया. नंदिशइया नरम पड़ गया. अब हम सब लगभग घिघियाते हुए चौकीदार से विनती करने लगे. अब रात में हम कहाँ जायेंगे. शहर से बहुत दूर आ गए हैं, हम तो आते आते भी तीन चार बार खो गए थे. (दो बार को बढ़ा दिया था ) भैया कुछ तो करो, भूख भी लग रही है. चौकीदार ने निर्विकार भाव से बताया कि  डाक-बंगले के सभी कमरे बुक हैं. नंदा और मेरी राय यह थी कि  किसी और मुसीबत में फँसें, उस से अच्छा है कि  विहारी हो लिया जाए. नाहक ही फजीहत क्यों कराई जाए, शिटमूर्ति  वगैरा सभी थके हुए थे और भूख के मारे कुलबुला रहे थे. नंदिशय्या जो पेशे से इंजीनियर था उसने कुछ स्विच, कुछ तार, कुछ फ्यूज उखाड़ कर चौकीदार की नज़र बचा कर दूर झाड़ियों में फेंक दिये. अगर हम नहीं रह सकते तो कोई और भी कैसे रहे, और रहे भी तो आराम से क्यूँ रहे, मरे अंधेरे में, बिना पंखे के. 
शिटमूर्ति क्यों कि हमारे ग्रुप में सबसे बुजुर्ग था उसने कमान संभाली, वह चौकीदार के पास गया और उसे कुछ रुपये देकर डरते डरते रिक्वेस्ट की हम लोगों ने सुबह से कुछ नहीं खाया है. हमें बस कुछ खाना खिलवा दो और पानी पिलवा दो. हम बरामदे में बैठ कर खा-पी लेंगे और बिना शोर-शराबा करे लौट जायेंगे. चौकीदार को हम पर दया आ गयी और हमारी खुशी का ठिकाना न रहा जब उसने हमें बरामदे में ज़मीन पर बैठ कर खाना खाने कि इजाज़त दे दी. वह पानी ले आया, पीने वालों ने दो-चार पैग बरामदे में बैठ कर लिए. सब पीते जाते और सलखड़े को गाली देते जाते. थोड़ी देर बाद खाना आ गया. हम लोग खाने को ऐसी ललचाई नज़र से देख रहे थे कि जैसे न जाने कितने दिनों बाद खाना नसीब हुआ है. हम खाने पर टूट पड़े. सलखड़े बेचारा, खाने के साथ साथ हम सबकी गालियाँ भी खाता रहा. चौकीदार ने खबर दी पार्टी अभी तक नहीं आई है तो पूरी संभावना है कि अब नहीं आएगी. अतः हम लोग चाहें तो उसके कमरे (आउट हाउस ) में आज की रात बिता सकते हैं. तब भी वह मैं बंगला खोलने का रिस्क नहीं ले रहा था. ऐसा उसने दृढ़तापूर्वक कह दिया. अब परेशानी दूसरी आ खड़ी हुई. लाइट नहीं थी.  गर्मी के मारे जान निकली जा रही थी. सब नंदिशय्या की ओर लपके. वह अपने आपको बड़ा इंजीनियर समझता है, अक्ल उसे धेले की नहीं है. अरे अगर फिटिंग, फ्यूज, स्विच वगैरा उखाड़ने ही थे तो ऐसे तो उखाड़ता कि  दुबारा लग सकते. अगर उखाड़े ही थे तो झाड़ियों में फेंकने की क्या ज़रूरत थी. मैदान में फेंकता  तो ढूँढ तो सकते थे. अगर झाड़ियों में भी फेंकने थे तो पूरा दम लगा कर फेंकने की क्या ज़रूरत थी. बहरहाल कुछ तार वगैरा जोड़ कर पंखा चलाया गया जो कि  हर चकार पर आवाज करता था. जिसे वह कमरा कह रहा था वह कोठरी थी. मैं मेज़ पर लेट गया. कोई कुर्सी पर बैठ कर सोने लगा. दो लोग खाट शेयर कर रहे थे. यद्यपि वह खाट एक के लिए भी छोटी थी. सलखड़े के हिस्से में जो कुर्सी आई उसमें एक हत्था नहीं था.सभी सलखड़े को फाइनली कोसते हुए सो गए. अचानक धड़-धड़ की आवाज आने लगी. हम सब ने सोचा ले बेटा अब नयी मुसीबत आन खड़ी हुई. सब स्विच की ओर लपके. मगर सब सोते हुए सोच रहे थे जैसे अपने घर में सो रहे हैं.अतः विभिन्न स्थानों पर स्विच ढूँढ रहे थे और एक दूसरे से टकरा रहे थे. तभी किसी को सूझ आई और उसने लाइटर जलाया. लाइटर से स्विच ढूँढा गया. लाइट जली तो सलखड़े चुपचाप कुर्सी पर बैठा ऊंघ रहा था और वह कह रहा था कुछ नहीं, कुछ नहीं हुआ. दरअसल वह सोते सोते कुर्सी से लुढ़क गया था और उठने और दुबारा  बैठने की प्रक्रिया में वह फिर टकरा गया था. जिस से कुर्सी भी गिर गयी थी, लेकिन सलखड़े हमें बार बार यकीन दिला रहा था कि  कुछ नहीं हुआ है. हम सब पुनः सलखड़े के वारि वारि गए और फिर सोने का उपक्रम करने लगे. चौकीदार ने हमें बिना चाय सुबह सुबह विदा कर दिया. हाँ झील, झील की ओर जाने की न किसी को सुधि रही और न किसी की इच्छा ही हुई.
इस पिकनिक पर 1980 में हम लोग गए थे. उसके बाद अनेक पिकनिकों  पर गए मगर वैसा मज़ा, वैसा एडवेंचर नहीं मिला कारण वैसा सलखड़े जो न था.
(व्यंग संग्रह 'तिहाड़ क्लब' 1999 से)

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