(कहावत है कि किसी भी काम को करने के दो तरीके होते हैं राईट वे,राँग वे, गलत ! तीन तरीके होते हैं. तीसरा है रेल-वे)
बहुत से लोग रेलवे को रेलवाई कहते हैं.इसका एक कारण तो मेरी समझ में यह आता है कि हम हिंदुस्तानी लोग मधुमेह की हद तक मिठाई खाते हैं और रेलवाई,हलवाई से बहुत मिलता जुलता है. दरअसल हलवे वाले कालांतर में हलवाई हो गए व रेलवे वाले रेलवाई कहलाए जाने लगे. जब हम उम्र में छोटे थे तो स्कूल में एक निबंध रेलवे से संबंधित ज़रूर रटाया जाता था. कक्षा के अनुसार शीर्षक बदल जाता था.जैसे रेलवे स्टेशन, प्लेटफार्म का दृश्य, भारत में रेलवे, एकता का प्रतीक रेलवे, अर्थव्यवस्था में रेलवे का योगदान आदि आदि.इनमें सबसे लोकप्रिय या कहें पिटा-पिटाया विषय था 'मेरी प्रथम रेल यात्रा'. तब क्योंकि वातानुकुलित श्रेणियाँ नहीं थीं अतः आपसे अपेक्षा इस प्रथम यात्रा में यह की जाती थी कि आप अनारक्षित थर्ड क्लास डिब्बे में यात्रा करेंगे. आगे का वर्णन टिकट खरीदने के संघर्ष और जद्दोजहद से लेकर विकट भीड़भाड़,दमघोंटू वातावरण का होता था.
इन दिनों इतनी सारी रेल दुर्घटनाओं को देख मुझे लगता है की रेलवे न केवल आवागमन का साधन है बल्कि अब इन्होने यात्रियों को जीवन के आवागमन चक्र से मुक्ति दिलाने का गुरुत्तर भार भी अपने सर ले लिया है.पीछे विज्ञान के आम आदमी को नींद की गोलियाँ,रसोई गैस और किरोसीन सुलभ करा देने से आत्महत्या करने वालों में रेल की लोकप्रियता बहुत घटी है.सिने तारिका हो या रेलगाड़ी अपनी लोकप्रियता घटना किसे नहीं अखरता. अतः अब रेल की छत पर यात्रा करने वालों के लिए बिजली के तारों का विशेष प्रबंध किया गया है तथा स्टीम इंजन को तिलांजलि दे दी गयी है. ऐसी चीज़ ढोने से क्या फायदा जो समय के साथ न चल सके. रेलवे जितने लोगों को यात्रा कराती है उस से कहीं अधिक को आश्रय देती है.यकीन नहीं आता तो हमारे प्लेटफार्म, वेटिंग-रूम,पटरियों से सटे घर देखें.
समतावादी समाज की स्थापना में सबसे बड़ा योगदान भारतीय रेलवे का है.हर मज़हब,हर तबके का आदमी रेल से जुड़ा है.किसी भी सेकंड क्लास् जनरल कम्पार्टमेंट में यात्रा करेंगे तो आपको यकीन आ जाएगा कि भिखारी हो या जेबकतरा,टिकटधारी हो या बेटिकट, रेलवे भेदभाव नहीं करती है. अपनी पर आए तो टी.टी. बेटिकट को पूरी बर्थ पर 'स्टाफ' कह के सुला सकता है व टिकटधारी को पायदान पर लटका सकता है. चाहे तो वह नीचे भी उतार सकता है. कई बार मन में ख्याल आता है कि रेलवे ने टी.टी. के कोट का रंग 'काला' ही क्यों चुना ? कोई तो बात होगी. खैर जाने दीजिये.वैसे काले कपड़े में एक सिफ़त है कि मैला हो जाए या दाग लग जाए तो भी दिखता नहीं है.टी.सी. की नज़दीक की नज़र अक्सर कमजोर होती है. इसलिये प्लेटफार्म पर वे हमेशा यात्रियों से घिरे रहते हैं. बिल्कुल उसी भाव से जैसे गोपियाँ उद्धव को घेर लेती थीं और पंजों के बल उचक उचक कर पूछती थीं की श्रीकृष्ण ने पाती में उनका नाम भी लिखा कि नहीं. उद्धव बने टी.सी. चार्ट में से नाम पढ़ते जाते हैं. नाम सुन यात्री हर्षाते हैं या नाम न पा निराश हो उठते हैं तथा कुछ और जुगाड़ लगाते हैं.
देश की आज़ादी में रेलें जन आंदोलन का साधन रहीं हैं.शहर शहर अलख जगाने का काम नेताओं ने रेल की खिड़की,दरवाजों से ही किया है. देश आज़ाद होने के बाद रेलें जन-आंदोलन के साधन से जन आंदोलन का निशाना बन गयी. फिशप्लेट उखाड़ना,बम रखना, आग लगाना आदि आदि . अप और डाउन ट्रेन रेलवे कैसे बनाती है पता नहीं पर जनता तो यही जानती समझती है कि जो भरकर जाए वो अप ट्रेन,जो खाली खाली जाए वो डाउन ट्रेन.
एक टी.सी. ने रिटायरमेंट के बाद घर बनाया. घर क्या पूरी कोठी थी. अब कोठियाँ कोई क्वार्टर तो हैं नहीं कि उनके ब्लॉक या नंबर हों. इसलिये उनके नाम रखे जाते हैं.यथा विजय निवास,लाल कोठी,सात बंगला. कुछ साहित्यिक रुझान के लोग नशेमन,आशा, विश्रांति आदि नाम भी रख लेते हैं इस से अलग पहचान रहती है व 'एक्सक्लूसिव' बने रहने के अहं का पोषण होता है. हाँ तो जिन टी.सी. की मैं बात कर रहा था उन्होने अपनी नवनिर्मित आलिशान कोठी का नाम रखा 'यात्री कृपा' इस से अधिक सटीक नाम मैंने कोई और नहीं देखा सिवाय व्हाइट हाउस के.
भगवान न करे आपको कभी थाने जाना पड़े. अगर आप जाए तो वहाँ एक अपराध चार्ट टंगा होता है. इस चार्ट की यह खूबी है की इसके आँकड़े कम हों या ज्यादा, जाते पुलिस के फ़ेवर में ही हैं. जैसे कम हों तो पुलिस कहती है हमारी मुस्तैदी से कम हो गए. ज्यादा हों तो कहेंगे हमने गश्त बढ़ा दी हैं. पिछले वाले तो पकड़ते ही नहीं थे. हमने अपराध और अपराधी दोनों का सफाया कर दिया है. इसी तर्ज़ पर जब रेल की नयी लाइन पड़ती है तो नेताजी गाँव वालों को बताते हैं कि कैसे उनका इस गाँव को यह सुविधा देने का सपना साकार हो गया. अगले गाँव में जहाँ लाइन नहीं बिछी थी लोगों ने टोका तो बोले मैंने खुद मना कर दिया हमारे गरीब किसान के खेतों से लाइन जाएगी फसल नष्ट हो जाएगी. गाय-भैंसों के दूध तक सूख जायेंगे . देखते नहीं न मक्खन मिल रहा है न पनीर. लोगों को अन्न नहीं मिल रहा है मजबूरन उन्हें 'फास्ट फ़ूड' से गुजारा करना पड़ रहा है.
रेल जिस क्षेत्र से गुजरती है बहुत कुछ सुविधा वहाँ के वासियों के लिए उपलब्ध कराती है. पटरी के आस-पास के घरों में तो रेल की बर्थ के सोफे, गद्दियाँ आम मिल ही जायेंगे. सीटों की रेक्सीन झोले आदि बनाने के काम आती है. इसके अलावा कॉलेज के छात्रों में भावी नेतागिरी,गुंडागर्दी की ट्रेनिंग का केंद्र भी उपलब्ध कराती है. इलाक़े के जेबकतरों,भिखारियों व उठाईगीरों के लिए कार्यक्षेत्र भी रेल प्रदान करती है. रेल पिया मिलन कराती है तो प्रिया को मैके से लाने ले जाने का काम भी करती है.
सरकार हर साल दो चीज़ों के दाम बजट में ज़रूर बढ़ाती है. सिगरेट और रेल किराया. दोनों धुआँ छोड़ती हैं. यह सरकार का हमें संदेश है की सब धुआँ है. यह दुनिया फ़ानी है. तुझे कोई और नहीं मुझे कोई ठौर नहीं. बेचारा यात्री फिर भी रेल में ही 'सफर' करता है. वो दिन दूर नहीं जब रेल यात्रा इतनी महंगी हो जाएगी कि आम लोग फिर इक्के तांगे से काफ़िलों में चला करेंगे. इस से बचत है. जान-माल के बात न भी करें तो ईंधन बचता है,पैसे और विश्व पर्यावरण बचता है.
(व्यंग संग्रह 'मिस रिश्वत' 1995 से )
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