('आयुर्वेदिक' व 'हर्बल' का मजेदार मिसयूज देखते ही बनता है)
एक जमाना था जब ‘भारत एक कृषि प्रधान देश है’ का पूरा का पूरा निबंध हमें स्कूल में याद करना पड़ता था. इस निबंध में अन्य बातों के अलावा भारत की पावन नदियों,पर्वतों, संस्कृति की उदारता व विविधता का बखान खूब बढ़ा-चढ़ा कर किया जाता था. हमारी हालत उस नालायक भतीजे की तरह थी जो बात-बात में अपने संभ्रांत चाचा/ताऊ का ज़िक्र करता है. धीरे-धीरे दबे स्वर में मज़ाक के तौर पर और फिर बाद में चिल्ला चिल्ला कर व काफी गंभीरता से यह कहा जाने लगा कि भारत दरअसल एक ‘कृषि’ प्रधान देश नहीं बल्कि एक ‘कुर्सी’ प्रधान देश है. कुर्सी की होड़ या कहें ‘म्यूज़िकल चेयर’ का ये खेल कुछ ऐसी प्रतिद्वंदिता से खेला जाने लगा कि लोग अपनी-अपनी एक बार हथियाई कुर्सियों पर लेई, गोंद, सिलोसन,फेविकोल,एरल्डाइट और न जाने क्या क्या अपनी सामर्थ्य अनुसार लगा कर चिपकने लगे.बढ़ते-बढ़ते यह मोह यहाँ तक पहुँचा कि लोगों ने बिना कुर्सी बुढ़ापा काटने वे मरने से भी इंकार कर दिया. तब अनेक निगमों,सांस्कृतिक निकायों,प्रतिष्ठानों, जाँच समितियों,वन मैन कमेटीयों का आविष्कार हुआ. आखिर ज़रूरत ईज़ाद की माँ है.
एक जमाना था जब ‘भारत एक कृषि प्रधान देश है’ का पूरा का पूरा निबंध हमें स्कूल में याद करना पड़ता था. इस निबंध में अन्य बातों के अलावा भारत की पावन नदियों,पर्वतों, संस्कृति की उदारता व विविधता का बखान खूब बढ़ा-चढ़ा कर किया जाता था. हमारी हालत उस नालायक भतीजे की तरह थी जो बात-बात में अपने संभ्रांत चाचा/ताऊ का ज़िक्र करता है. धीरे-धीरे दबे स्वर में मज़ाक के तौर पर और फिर बाद में चिल्ला चिल्ला कर व काफी गंभीरता से यह कहा जाने लगा कि भारत दरअसल एक ‘कृषि’ प्रधान देश नहीं बल्कि एक ‘कुर्सी’ प्रधान देश है. कुर्सी की होड़ या कहें ‘म्यूज़िकल चेयर’ का ये खेल कुछ ऐसी प्रतिद्वंदिता से खेला जाने लगा कि लोग अपनी-अपनी एक बार हथियाई कुर्सियों पर लेई, गोंद, सिलोसन,फेविकोल,एरल्डाइट और न जाने क्या क्या अपनी सामर्थ्य अनुसार लगा कर चिपकने लगे.बढ़ते-बढ़ते यह मोह यहाँ तक पहुँचा कि लोगों ने बिना कुर्सी बुढ़ापा काटने वे मरने से भी इंकार कर दिया. तब अनेक निगमों,सांस्कृतिक निकायों,प्रतिष्ठानों, जाँच समितियों,वन मैन कमेटीयों का आविष्कार हुआ. आखिर ज़रूरत ईज़ाद की माँ है.
भारत मे सत्तर के दशक कि शुरुआत डिस्को कल्चर से हुई. डिस्को म्यूजिक, डिस्को रेस्तरां उतरते उतरते हमारे दैनिक जीवन में अंदर तक प्रवेश कर गया. और जनसाधारण को भी इसकी झलक चाहे वह कस्बे में थे या गाँव में, देखने को मिली. डिस्को बिंदी, डिस्को जूते,डिस्को चप्पल,डिस्को सिगरेट आदि में. इस दशक कि दो और उपलब्धियाँ थीं. बौबी (फिल्म) और बैल-बॉटम. उनका ज़िक्र फिर कभी.
अस्सी के दशक में यातायात के साधन व पैकेजिंग में क्रांति आई.जिन वाहनों को हासिल करने के लिए पाँच-पाँच साल प्रतीक्षा करनी पड़ती थी व जिनकी बुकिंग मात्र ही एक प्रकार के सोशल स्टेटस का प्रतीक थी आज उनको पूछने वाला कोई नहीं रहा व उन्हें भी पत्रिका के अंदर-बाहर अपने विज्ञापन देने पड़ गए. दुपहिया वाहनों की इतनी किस्में मार्किट में आ गयीं कि वे खरीदार को ‘कन्फ्युज’ करने में सफल रहीं. भला हो इन जापान वालों का.
पेकेजिंग ने कैसे हमारे आपके दैनिक जीवन में पैठ की है वह काबिले गौर है. डोसे के लिए सांभर तो पौलिथीन में. दूध तो पॉली पेक में, दारू तो पाउच में.गोलगप्पे के पानी और घी तेल से लेकर रेल के डिब्बे जितने बड़े कंटेनर्स हमारी सेवा में आ गए हैं. इसके साथ ही पेकेजिंग हुई हमारे मूल्यों की.हमारे शादी ब्याह जनवासे से बाहर निकल कर समाचारपत्रों में आ गए. मरने का विज्ञापन हो या पैदा होने का. वर के लिए हो या वधू के लिए. उनकी बानगी पढ़ते ही बनती है. यही हाल रहा तो वर्तमान एम.आर. (मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव) की तरह ‘मैरेज रिप्रेजेंटेटिव’ घर-घर घूमेंगे व स्लिम,गोरी कान्वेंट पढ़ी लड़कियों को लंबे, हेंडसम ग्रीन कार्ड वाले कम्प्युटर से मिलवाते फिरेंगे.
नब्बे के दशक में ब्युटि पार्लर कनाट प्लेस से चल कर वाया ग्रेटर कैलाश हमारे मोहल्ले के पिछवाड़े व बरसाती तक आन पहुँचा. भारत में 16 शृंगार की सनातन परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इन पार्लरों ने ऐसे ऐसे तेल, क्रीम, लेप व टीन टप्पर जोड़े हैं कि बरबस ही किसी पंक्चर लगाने वाले या टायर रिट्रीडिंग करने वाले कि दुकान कि याद आ जाती है. जब इस फील्ड में गला काट प्रतियोगिता हो गयी तो जड़ी बूटीयाँ सेवा में ली जाने लगीं. बी इंडियन बाई इंडियन कि तर्ज़ पर भारत में ही भारतीय वस्तुओं कि खोज शुरू हुई ताकि कुछ वस्तुएं 136 तरह के शेम्पू व 256 तरह के नहाने के साबुन की रेल-पेल में भी अलग दिखाई दें और फिर आया हर्बल . हर्बल मंजन, हर्बल काजल, हर्बल पाउडर, हर्बल क्रीम, हर्बल साबुन, हर्बल तेल कहाँ कहाँ तक गिनाऊँ. आज हालत यह है कि हर्बल के नाम पर आप अपने बाग की मिट्टी खोद कर ग्लिसरीन के साथ लगाने को कहें तो खरीददारों की कमी न रहेगी. बशर्ते कि पेकेजिंग की तरकीब भी आपको आती हो.
सुनने में आया था कि अब मुरगियाँ वेजिटेरियन अंडे भी देने लगी हैं ताकि शाकाहारी लोग भी इनका रसास्वादन कर सकें और मुर्गियों पर पक्षपात का आरोप न लग सके. इसी श्रंखला में अब लेटेस्ट हर्बल चिकन चलाने का विचार है. आप सोचते होंगे कि हर्बल चिकन कैसे हो सकता है. अजी क्यों नहीं हो सकता ? वह चिकन जो हर्ब और हर्ब से बनी वस्तुएं खा के पला बढ़ा हो वह हर्बल नहीं तो क्या आम चिकन कहलाएगा.
भारत सन 1947 से लंबी यात्रा कर इस मुकाम तक पहुँचा है. यह आसान नहीं और न ही एक रात में यह क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ कि कल की एग्रिकल्चर आज की सूटकेस कल्चर में पराभूत हुई है.(नरसिंह राव-हर्षद मेहता प्रकरण) प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हम सभी का इस कल्चर के गर्भधारण में योगदान है व आज हम सभी इस के ‘फ़ौस्टर ब्रदर व फादर’ भी हैं. घड़ी की सूइयों ने ‘फुल सर्कल’ ले लिया है. कल यदि ये बात गर्व से कही जाती थी कि यह मेरे दादा की घड़ी है और पिछले पचास वर्ष से बे-रोकटोक चल रही है तो आज यह बात कहीं ज्यादा गर्व से कही जाती है कि यह लेटेस्ट मॉडल की ‘थ्रो अवे’ घड़ी है, रुके तो फेंक दो. दूसरी हाज़िर है. यही तो है प्यारे हर्बल कल्चर,
(व्यंग संग्रह ‘मिस रिश्वत’ 1995 से)
बढ़िया हर्बल कल्चर..शानदार कटाक्ष!
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