Ravi ki duniya

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Wednesday, February 3, 2010

यू.पी. बिहार ले लो

वो भी क्या दिन थे जब हम सिनेमा देखने जाया करते थे. आज की तरह नहीं कि दिन में पाँच फिल्में अपने छोटे से बुद्धू बक्से पर घर बैठे ही देख लीं और अगले दिन सब गडमड हो जाता है. कारण सब की कहानी लगभग एक सी होती है. न फिल्मों का वो पर्दा रहा न फिल्मों में वो पर्दादारी. मेरी पत्नी तो घर के अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य सब्जी काटने से लेकर कान काटने तथा बाई की बुराई से लेकर पड़ोसन की लगाई-बुझाई तक बड़े कौशल के साथ टी.वी. पर फिल्में देखते-देखते ही निपटा लेती है.

मेरे शहर में फिल्म देखने का मज़ा ही कुछ और होता था. अगर आपने कोई फिल्म फ़र्स्ट डे फ़र्स्ट शो नहीं देखी तो आपकी ज़िंदगी बेकार है. ये जनम व्यर्थ गया. अक्सर जो यह नहीं कर पाते थे समाज में उनकी साख गिर जाती थी. वह शख्श या तो अमुक फिल्म पर बात करने से कतराता था या फिर कोई बहाना तलाश लेता था. तब फिल्म देखना अपने आप में एक अस्तित्व की लड़ाई जीतना होता था. मेरे माता-पिता को उस दौर के अन्य माता-पिताओं की तरह ही फिल्मों और मुझे लेकर हमेशा एक अनजाना भय सताता रहता था ये छोकरा अब बिगड़ा ..अब घर से भागा.. इसके चलते उन्हें इस बात से सख्त नफरत थी कि घर में कोई फिल्मों की बात भी करे. मैं भी देव आनंद स्टाइल के हैट ,बेल्ट, कालर कहीं न कहीं से खरीद ही लाता था. मेरे पिता उन्हे देख कर सिर धुना करते. शायद उन्हें निश्चित तो पता नहीं था मगर इस बात को लेकर वे ख़ासे परेशान रहते थे कि इनका संबंध किसी न किसी रूप में फिल्मों से ज़रूर है. इसका गुस्सा वे अक्सर पढ़ाई के विषय में डाँटते वक्त निकालते थे. एक साथ तीन-चार मोरचों पर निपटा दिया. चलो अब अगले महीने देखेंगे. हम में आपस में ये आँख-मिचौनी चलती रहती थी. बाल बढ़ाने के तो वे इतने सख्त ख़िलाफ़ थे कि इसमे उन्हें नवयुवकों के पथभ्रष्ट होने का ख़तरा नज़र आता था. शायरों ने ज़ुल्फ़ पर इतना लिखा है कि मेरे पिता की यह धारणा पूरी तरह गलत भी न थी.


खैर बात फिल्मों की हो रही थी. जो अभागे फ़र्स्ट डे फ़र्स्ट शो नहीं देख पाते थे और पास आदि की जुगाड़ (पास कल्चर बहुत प्राचीन है) भी न कर पाते थे वे पहले हफ्ते में फिल्म देख कर अपनी लाज बचा पाते. पहले हफ्ते तो थिएटर पर त्योहार सा माहौल रहता था. ‘हाउस फुल’ की तख्ती टाँग दी जाती थी और बाहर सवा की दो,तीन की पाँच आवाजें कानों को मोह लेती थीं.कई थिएटर पर इन मामलों में एक प्रकार की मोनोपोली हुआ करती थी. थिएटर मैनेजर, गेट कीपर और सिपाही (ठुल्ला..मामा नाम बाद में पड़े ) इस तिकड़ी की मर्ज़ी के बिना टिकट ब्लैक करना तो दूर थिएटर के आस-पास कोई पान और चाट का ठेला भी नहीं लगा सकता था. ब्लैक तो इनकी कड़ी निगरानी में होती थी. गेट कीपर अक्सर ब्लैक करते थे.


मेरे शहर के एक थिएटर में तो मेनेजर महोदय खुद ही टिकट ब्लैक करने का शौक रखते थे. टिकटों की ब्लैक को रोकने के लिए नए-नए कदम उठाये जाते. एडवांस बुकिंग, एक साइकल पर एक टिकट, एक आदमी को दो टिकट, आपकी कलाई पर सील आदि आदि. लेकिन ब्लेकिए भी तू डाल-डाल तो मैं पात-पात. कान में एक फूँक मारता,पैसे दूसरा लेता और तीसरा जो थोड़ी दूर ऐसे खड़ा रहता था जैसे उसे थिएटर में कतई दिलचस्पी नहीं है. अपने प्रोफेशनल तरीके से मुडी-तुडी टिकट आपके हवाले कर देता था. कस्बों के दादाओं की गुंडागर्दी भी ये थिएटर चमकाते थे. थिएटर पर ब्लेक करना एक किस्म से दादागिरी की अप्रेंटिस ट्रेनिंग होती थी. ये लोग आपस में थिएटर बाँट लिया करते थे . रूबी तेरा, नोवेल्टी मेरा, रोशनी इसका, प्रकाश उसका. एक बार मेरे चाचा ने मुझे देख कर ही पहचान लिया “क्यों रॉयल में फिल्म देख कर आ रहे हो” मैं हैरान, उन्होने कैसे जाना. बाद में पता चला की रॉयल की कुर्सियों का लाल पेंट दर्शकों की कमीज के पीछे लग जाता था. उन दिनों नाइट शो देखने का अपना एक मज़ा था. शनिवार का नाइट शो बहुत पॉप्युलर हुआ करता था. वे अच्छे दिन थे. न कोई आतंकवाद, न लूटपाट, और न पुलिस की पूछताछ. फिल्म देख कर पैदल ही घर चले आते थे. जो ब्लेक में दिया यहाँ बचा लिया. मगर आन रह गयी. कि हमने भी ये फिल्म फ़र्स्ट डे लास्ट शो तो देख ही डाली. इन फिल्मों पर फीडबेक भी लिया दिया जाता था. फिल्म की स्टोरी बड़े चाव से सुनी और सुनाई जाती थी. ये फ़र्स्ट डे फ़र्स्ट शो और फ़र्स्ट रो वाले फिल्म के भाग्य का निर्णय कर देते थे. पूरे शहर में खबर आग की तरह फैल जाती थी की फलां फिल्म ‘पिट’ गयी उसका ‘इंटर’ (इंटरवल में बाहर जाने का पास) तो आठ आने में बिक रहा है.


मेरी पत्नी का मानना है की फिल्म देखने जाओ तो खाना भी वहीं होना चाहिये. दूसरे शब्दों में आँख,कान, के साथ मुँह भी लगातार सक्रिय रहना चाहिए. अतः समोसे,कचौड़ी,कोल्ड ड्रिंक, कॉफी आदि सभी का रसास्वादन निरंतर चलता रहता था, इसे कहते हैं तन,मन,धन लगाकर फिल्म देखना. आज फिल्म बनाना एक प्रोफेशन हो गया है. अतः फिल्में भी प्रोफेशनल बनती हैं. वही पुलिस,अदालत,जेल, कैबरे,गाँव,गाँव में गोरी, गोरी की ज़िदगी में दो काम नदी से पानी लाना और नाचना-गाना, हीरो की एंट्री और तीसरा तथा फ़ाइनल काम—इश्क़ भी निपटा दिया. दी एंड. पहले फिल्में बहुत इमोशनल बनती थी.फिल्म के दौरान थिएटर मे रोना-धोना आम बात थी. कोई चुपके-चुपके आँसू बहाता तो कोई हिचकियों से रोता था. इस रोने-धोने में मद्रासी फिल्मों और महिला दर्शकों का बहुत योगदान रहा है. वो बात और है कि आज जो फिल्में बन रही हैं उनमें हीरोइन की खटिया,लहंगा चोली को देख प्रबुद्ध दर्शक सिर पकड़ कर रोने लगते हैं. पहले फिल्म देखने ज्वाइंट फॅमिली जाती थी. अब चूंकि ज्वाइंट फ़ेमिली नहीं रही अतः प्रोड्यूसर भी ऐसी फिल्में बनाने लग पड़े जो आप फ़ेमिली के साथ बैठ कर देख ही नहीं सकते.


पहले धार्मिक फिल्में भी खूब बनती थी. लोग बड़ी श्रद्धा और चाव के साथ उन्हें देखने जाते थे. सासें अपनी बहुओं को और बहुएँ अपनी ननदों को ज़रूर ये फिल्में दिखाने ले जाती थीं.फिल्मों में एक अदद कोढ़ी पति को ठेले में लादे-लादे तीर्थ जाने का,साँप का व भूखे बच्चे के रोने का सीन ज़रूर डाला जाता था. अक्सर सास-बहू का ऐसा मेलो-ड्रामा होता था की दोनों एक दूसरे को जी-जान से चाहने लगती थीं. मगर इसका प्रभाव एक हफ्ते भी न रह पता और दोनों पूर्व स्थिति अर्थात एक दूसरे की जान की प्यासी हो उठती थीं.


पहले लोग भाग कर फिल्मों में काम करने मुंबई जाते थे.जो कम साहसी होते थे वे भाग कर फिल्म देखने जाते थे.पहले घर से भागने वालों में बॉम्बे अत्यंत लोकप्रिय था. नोएडा में फिल्मसिटी की स्थापना तथा बांग्लादेशियों का अपना देश छोड़ कर वहाँ सेटल होने में ज़रूर कोई संबंध है. आजकल की हीरोइन यह कहते नहीं थकती कि वे अछे खानदान से हैं. शायद इसलिये वे आपको सब-कुछ अच्छे से दिखाने को तत्पर रहती हैं. मनोरंजक फिल्में तो पहले भी बनती थीं. पैसा कमाना उनका मुख्य उद्देशय नहीं था.अभी चालीस बरस पहले तक गेट कीपर विद्याथियों को दोपहर का शो नहीं देखने देते थे और आज वे ही बुला-बुला कर सुबह के शो में ‘प्यासी जवानी’ दिखा रहे हैं.


                           तुम साफ़-सुथरी फिल्मों का उपहार दे दो


                           बदले में चाहे यू.पी.,बिहार ले लो.



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