"बर्फ के गोले ले लो ! बर्फ के गोले !” एक बच्चा और एक महिला कातर स्वर में चिल्ला रहे थे. बाहर देखा तो ठेले पर एक पाँच-सात साल की उम्र का लड़का व ठेले को चलाती एक महिला ये आवाज लगा रहे थे. बर्फ के गोले खरीदने वालों से कहीं अधिक भीड़ उन दोनों को घूर-घूर कर देखने वालों की थी. इसके दो कारण थे एक तो बर्फ के गोले बेचने का काम अक्सर महिलाएँ नहीं करती हैं फिर वह महिला घूंघट काढ़े यह सब कर रही थी. दूसरा कारण अधिक गंभीर,कारुणिक और सनसनीखेज था. इस महिला के पति को पिछले दिनों पुलिस एक पूरे परिवार के खून के इल्ज़ाम में पकड़ कर ले गयी थी.
अलीगढ़ कोई बड़ा शहर नहीं है. छोटा शहर भी नहीं है. विश्वविद्यालय के बाद जो चीज़ें वहाँ की मशहूर हैं उनमें चाकू-ताले व मच्छरों का नाम सूची में काफी ऊपर है. यह घटना सन 1966 की है तब मैं वहाँ के मशहूर के.पी. इंटर कॉलेज में पढ़ा करता था. बहुत ही बेहतर स्कूल था और उस से कहीं बेहतरीन वहाँ की फेकल्टी. बड़े ही कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक थे. हमसे बड़ी किसी क्लास् में एक लड़की महादेवी पढ़ा करती थी .बहुत ही खूबसूरत थी. पूरा का पूरा इंटर कॉलेज या कहना चाहिए जो उस पर मर सकने की उम्र वाले थे वे करीब करीब सभी उस पर ‘मरा’ करते थे. मगर वह किस्सा फिर कभी.
बर्फ के गोले बेचने वाली महिला इकहरे बदन की लंबी महिला थी. उसके गोरे-गोरे लंबे हाथों से यह अंदाज़ लगाया जा सकता था कि वह निहायत सुंदर होगी किन्तु अपराध की काली छाया ने उसे दर- दर की ठोकरें खाने को सड़क पर ला पटका था.
शास्त्री जी अलीगढ़ के नामी-गिरामी वैद्य थे, अपने भरे-पूरे परिवार के साथ वे रहते थे. उनकी वैद्दई बहुत अच्छी चलती थी. कुछ औषधियाँ तो उनके नाम से ही बिकती थीं.उनके एक सेवक के साथ मिलकर छोटे-मोटे अपराधियों की एक टोली ने चोरी की योजना बनाई. सेवक ने यह समाचार दिया कि वह क्योंकि अंतरंग है,घर की पूरी व्यवस्था से परिचित है वह रात को पिछवाड़े की सांकल खुली छोड़ देगा.अफवाह यह भी थी की शास्त्री जी ने हाल ही में बैंक से बहुत सा रुपिया निकाला है. कोई-कोई तो उनके यहाँ सोने के कलात्मक हाथियों के होने की बात भी करते थे. बहरहाल पूर्व निश्चित योजना अनुसार ये चारों पिछले दरवाजे से घर में जा पहुँचे. नौकर ने उनकी अगवानी की. सर्दियों की रात थी. आधी रात के बाद का समय था.
नौकर से थोड़ी देर खुसर-पुसर कर उन्होने नौकर के मुँह में कपड़ा ठूँस रस्सी से बांध दिया ताकि किसी की नज़र पड़े तो भी नौकर के बचाव का रास्ता रहे. नौकर की पार्टनर् शिप में यह सब हो रहा था अतः उसे बांध दिया गया ताकि योजना अनुसार वह पुलिस को यह बता सके की वह बंधा होने के कारण वह लाचार था. बेड रूम में चारों चोरों ने वैद्यजी को जगाया और तिजोरी की चाबी देने को धमकाया. वैद्यजी शारीरिक रूप से कमजोर भले थे मगर उनमें एक दृढ़ता थी जो परिपक्व वृद्धों में अड़ियलपन की हद तक होती है.बस ये माँगते रहे,वैद्य जी की घिग्घी बंधी ज़रूर मगर उन्होने चाबी देने से इंकार कर दिया. चारों लोगों ने वैद्यजी के गले पर लाठी रख दोनों ओर से दबाना शुरू कर दिया. यह सोच कर की शास्त्रीजी घबरा के मृत्यु के आगे चाबी सौंप देंगे. मगर ऐसा न हुआ और जोश व घबराहट में थोड़े से दबाव से शास्त्रीजी की मृत्यु हो गयी. शास्त्रीजी की मौत के साथ ही चारों पर खून सवार हो गया और उन्होने शास्त्रीजी की पत्नी,पुत्र, और पुत्रवधू को भी एक एक कर चाबी न मिलने की निराशा में आनन-फानन में गला दबा के मौत के घाट उतार दिया. हड़बड़ाहट में जो कुछ हाथ लगा उसे लेकर चलते बने.
कहते हैं बड़े से बड़ा चोर भी कोई न कोई निशान ज़रूर छोड़ जाता है. रात के अंधेरे में और घबराहट में उन्होने शास्त्री जी के पौत्र को चारपाई के नीचे दुबका देखा ही नहीं. साथ ही पुलिस को शक हुआ कि दरवाजा कैसे खुला और जहाँ चार खून किए वहाँ नौकर को क्यों कर छोड़ दिया गया. अतः जब नौकर से सख़्ती से पूछताछ की गयी तो उसने सब कुछ उगल दिया . एक बार नाम पता मालूम होने पर चोरों को पकड़ना कोई मुश्किल काम न था. कहने को केस उच्चतम न्यायालय तक गया मगर फाँसी की सज़ा बहाल ही रही राष्ट्रपति के यहाँ से खूनियों की कम उम्र, बच्चे की कमजोर शिनाख्त आदि आदि आधारों पर मर्सी अपील पर उन्हे जीवन दान मिल गया. उन चारों की सज़ा उम्र कैद में बदल गयी. सुना था सत्तर के दशक के शुरू में सभी बाहर आए तो ज़िंदा लाश से अधिक न थे. अपराध बोध और इतने बरस जेल में बिताने के बाद वे गुमनामी के अंधेरे में अलग-अलग जीवन की डोर नए सिरे से पकड़ने की कोशिश में लग गए.
इस बात को पचास साल होने को आए मगर आज भी जब मैं बर्फ के गोले बिकते देखता हूँ तो उस नवयुवती और बच्चे की तस्वीर आँखों के आगे घूम जाती है और कानों में वही कातर स्वर गूँजने लगता है “बर्फ के गोले ले लो..बर्फ के गोले” !
बहुत ही दारूण कथा है.
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