Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Friday, February 5, 2010

फ़ॉरेन रिटर्न


हमारे पड़ोसी का एक लड़का दुबई में है. वह था तो इंजीनियर लेकिन जब कहीं बात नहीं बनी तो वह रेडीमेड कपड़े एक्सपोर्ट करने लगा और एक दिन खुद ही एक्सपोर्ट हो गया. पड़ोसी का कहना तो यह है कि वह वहाँ चीफ इंजीनियर है जानकी अन्य कुछ लोग उसे मकेनिक बताते हैं. बहरहाल वह दुबई में है. हिदुस्तानी जेहन में दुबई से जो तस्वीर बनती है वह धन-वैभव से सराबोर शेख कि होती है. बनियान से लेकर बिस्कुट तक मेरे पड़ोसी अब दुबई से लाये हुए ही बरतते हैं. वे बता रहे थे कि इंडियन बनियान और बिस्कुट दोनों ही किसी दीन के नहीं हैं और सेहत को उल्टा नुकसान करते हैं ऐसा आबूधाबी में बस गए एक हिंदुस्तानी डॉक्टर ने उन्हें बताया था.
एक समय था जब गंडीजी को विदेशगमन पर बहुत कठिन प्रतिज्ञाएँ करनी पड़ी थीं जाति के होल सेलर्स ने उनके परिवार को अलग कर दिया था. अब गांधी जी रहे न उस समय के मूल्य. अलबत्ता विदेशगमन पर प्रतिज्ञा अब भी कि जाती  हैं जैसे मैं भूख-रूखा रह कर भी दोनों हाथों से धन बटोरुंगा. विदेश  में विवाह करूँगा व एक पत्नी हिंदुस्तान से फर्जी विज्ञापन के जरिये भी ले जाऊँगा. (दोहरी ज़िंदगी.. दोहरी नागरिकता ) आदि आदि. आज यदि आपका कोई ब्रदर या बेटा विदेश  में न हो तो आपको ऐसे देखा जाता है जैसे आप पापी हैं  और आपकी मुक्ति कपाल-क्रिया के बाद भी मुमकिन नहीं है. मेरे दफ़्तर में एक बुरहानपुरकर नाम के सज्जन थे जो परिचय में अपना नाम बता कर दूसरे के नाम बताने से पहले ही उस से पूछते कि वह विदेश  गया है या नहीं ? यदि उत्तर हाँ में होता तो वे ठंडी साँस लेकर बताते कि कैसे हिंदुस्तान और फलां मुल्क में ज़मीन आसमान का अन्तर है. यदि उत्तर न में होता तो विजयी मुस्कान के साथ उन मुल्कों की फेहरिस्त बताते जहाँ वो गए थे.( वे तीन महीने किसी रेल्वे प्रोजेक्ट में बग़दाद रहे थे ) हमारे प्रोफेसर दीन दयाल चतुर्वेदी जब विदेश गए तो धोती-चोटी पालम पर ही छोड़ गए थे. दस माह बाद लौटे तो सफारी सूट में थे और नाम हो गया था डी.डी. हर समय नाक पर रुमाल रखते थे, बता रहे थे कि इंडिया में पौल्युशन बहुत हो गया है. मेरे एक दोस्त ने तो वहाँ जाते ही रामायना’, गीटा और महाभारता की  छह छह प्रतियां अंग्रेजी में मंगवाईं थीं. बता रहा था कि सब उसके इंडियन होने की बात जानकर इन्ही पर बात करना चाहते हैं और उसे ज्यादा नॉलेज नहीं है,
पहले सैयां रंगून जाते थे और वहाँ से टेलीफ़ून करते थे. आज सैयां स्टेट्स जाते हैं और वहाँ से फैक्स करते हैं. देश आज़ाद होने से पहले हमारे भारतीय भाई बहन फ़िज़ी, मारिशस, और अफ्रीका में थे मगर उस प्रवास में 'ग्लैमर' नहीं था. देश आज़ाद होने के बाद जहाज़ के जहाज़ भर कर लोग इंगलेंड, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा चले गए. डाइरैक्ट लुधियाना टू लंदन, अहमदाबाद टू ओटावा, केरल टू कैनबरा.
सन सत्तर के दशक में अमरीका का सातवाँ बेड़ा हिन्द महासागर पर मंडराया था. उसके साथ ही स्टेट्स बूम आया. जिसे देखो वह अमरीका जा रहा था. अमरीका के दूतावास तीर्थस्थान बन गए थे. अमरीका तो साक्षात बैकुंठ था ही. हमारे एक परिचित वहाँ से ऐसा हेलमेट ले कर आए थे जिसमें हेडफोननुमा ट्रांजिस्टर इनबिल्ट था. ऐसा लगता था जैसे यह वही हेलमेट है जो नील आर्मस्ट्रांग ने पहना था. हम सब उतने ही कौतूहल से उसे देखते थे जितना हमने दिल्ली में चंद्रमा से लाया पत्थर देखा था. वह भी अमरीका वालों ने भेजा था. बेचारे गरीब हिंदुस्तानी इन्होने तो चाँद केवल आकाश में देखा है. भूखे को चाँद में रोटी दिखाई देती है. सन सत्तर के दशक में एक लतीफ़ा चला था कि अब हिदुस्तान अमरीका हो जाएगा, कारण कि अमरीका वाले सब चाँद पर चले जायेंगे और खाली पड़े अमरीका को हिन्दुस्तानी घेर लेंगे. घेरने में तो हम माहिर हैं ही. रेल की बर्थ हो, फुटपाथ हो, बम्बई का समंदर, रेल्वे प्लेटफ़ॉर्म या मकबरा हमसे कुछ भी अछूता नहीं.
जब इंग्लैंड, अमरीका में बहुत हिंदुस्तानी हो गए तो इंग्लैंड वालों की आँखें खुली और उन्होने रोकना -टोकना शुरू कर दिया. उन्हें पता था, नहीं तो ये हिंदुस्तानी अपनी जनसंख्या से इंग्लैंड को टेक ओवर ही कर लेंगे. अमरीका को भी ख़तरा हुआ कि ब्राउन इंडियन ओर रेड इंडियन मिल कर कहीं न्यूयॉर्क को न्यू दिल्ली ही न बना लें. और उसने भी हरे लाल कार्ड सख़्ती से लागू कर दिये.
सन अस्सी का दशक बैंकॉक और दुबई के नाम था. नर्स,डॉक्टर,मैकेनिक हो या एक्टर सभी जा पहुँचे बैंकॉक और दुबई. आज़ाद मुल्क के हमारे नागरिक आजादपुर टू सिंगापुर ऐसे आने जाने लगे जैसे इंडिया गेट आइस क्रीम खाने जा रहे हों. बाद में पता चला कि अधिकांश तो बेचारे केरियर भर थे. साइकल में जैसे एक केरियर होता है जिस पर सामान रख कर इधर उधर ले जाते हैं, यू नो . उनके लौटने पर जो धूमधाम होती थी. वह देखते ही बनती थी. त्रिवेन्द्रम से टैक्सी मे लड़े-फदे सीधे गाँव पहुँचे. बंबूकाट टू-इन-वन, वी.सी.आर. ढेर कपड़े, ढेर सा रुपया और सोना. देखने वालों कि भीड़ लग जाती थी. इस तरह के पैसों में कुछ ऐसी सिफ़त थी कि धड़ाधड़ शादियाँ और बंगले बनने लग गए. शादियों में मुह मांगी कीमत पर दूल्हे खरीदे बेचे जाने लगे . इस से मेसन और दूल्हों के रेट आकाश छूने लगे. जो दुबई  जाने से रह गए उनके घरों में बहन-बेटियों की शादी की भी खासी किल्लत रही
कहते हैं कि जर्मनी के एकीकरण में हिंदुस्तानियों का बहुत बड़ा हाथ रहा है. पश्चिम जर्मनी वालों ने जब हिंदुस्तानियों को इतनी तादाद में अपने मुल्क में आते देखा तो उन्हें अक्ल आई कि इस से उनके पूर्वी जर्मनी में रह रहे भाई ही क्या बुरे हैं. 
इधर सुना है नब्बे के दशक में हिंदुस्तान में विदेशियों की आमद ज्यादा है और साथ में हैं  माइकल जैकसन, कोकाकोला और ए.के. 47 . इनका ज़िक्र फिर कभी.

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