मुझे याद पड़ता है कि इस नाम से कोई उपन्यास पहले आ चुका है. अब जाने दीजिये. आ चुका है तो आ चुका है. पहली बात तो यह कि मैं कोई उपन्यास नहीं लिख रहा, यह कहानी है. हो सकता है कहानी में कहानी हो. दूसरे कथानक अलग अलग हैं या शायद अलग अलग हो के भी एक हैं. प्रश्न उठता है कि अनीता ही क्यों ? वामा,वनिता,ललिता, माया,मोना या मोनिका क्यों नहीं. मुझे अनीता नाम पसंद है और मैं समझता हूँ कि इस नाम में बाकी सब नामों का ‘एसेंस’ है. यह खालिस हिंदुतानी नाम होते हुए भी देश-काल कि सीमा से परे है और आधुनिकतम है. बल्कि कहना चाहिए एवरग्रीन है. आपने किसी बूढ़ी स्त्री का नाम अनीता सुना है ?
मेरे कंपनी बदलने पर मि.सूद ने कहा था कि मैं उनके ग्रेजुएट बे-रोजगार भतीजे को कहीं चिपका दूँ. अभी वह कुछ नहीं करता है बस दोस्तों के साथ सारा दिन मटरगश्ती करता है और पूरे शिमला को सर पर उठाये घूमता है. कैथू (शिमला की एक बस्ती) में उस से बड़ा वेला(फ़ालतू) कोई नहीं. मैंने औपचारिकतावश “देखेंगे” कहा और उनसे विदा ली. थोड़े दिनों में उसका एक बायोडाटा मिला. बायोडाटा में खास कुछ नहीं था.बहुत ही मामूली किस्म का बायोडाटा था बल्कि मामूली से भी गया बीता. फोटो हाँ मगर फोटो में ग़ज़ब की बात थी. पूरा अंग्रेज लग रहा था. बाल भी उस स्टाइल के जैसे पॉप ग्रुप बीटल्स रखते थे. फोटो कुछ ऐसा दिल फरेब था कि कोई भी फोटो देखकर ही दिल हार जाए. अनीता ने हारा तो क्या गलत था.
मैंने उसे रिसेप्शनिस्ट की नौकरी दिला दी. वह लंबा,छरहरा सुदर्शन नवयुवक था तथा पहाड़ों वाला भोलापन उसके चेहरे पर था. वह फोटो से भी कहीं अधिक हेंडसम था. वह मेहनत से काम करता था. और फिर एक दिन अनीता दिल्ली उतरी. एक बच्ची को गोद में लिए रिसेप्शन पर कमरा लेने आ पहुंची. सुनील जी पूरी मुस्तैदी से ड्यूटी पर थे. अनीता ने रजिस्टर में खाना-पूर्ति की. और सुनील को कहा कि या तो वह बेबी को गोद में ले या सामान उसके कमरे में पहुँचाने में मदद करे. सुनील ने बेबी को गोद में ले लिया. वह आखिर रिसेप्शनिस्ट है. सामान को पोर्टर से उठवा अनीता को उसके कमरे तक पहुँच दिया. वह व्यावसायिक विनम्रता के साथ वापस रिसेप्शन पर आ डटा. फ़्रेश हो कर एक घंटे में अनीता जी अपनी बेटी को गोद में लिए फिर सुनील से मुखातिब थीं और दिल्ली में घूमने के स्थान शॉपिंग, के स्थान दरियाफ्त करने लगी. अनीता ने सुनील को यह भी कह दिया कि वह पहली बार दिल्ली आई है. उसके लिए दिल्ली एकदम नई जगह है और उसे उसकी मदद चाहिये. हमारा हीरो सुनील थोड़ी झिझक के बाद उसे दिल्ली भ्रमण और शॉपिंग कराने के लिए राजी हो गया. लालच कुछ नहीं था.यूँ भी सुनील का अगले दिन ऑफ था. वह भी तो दिल्ली में चार दीवारों में क़ैद रहता है. उसने हामी भर ली. इस शर्त के साथ कि होटल की मैनेजमेंट को इसकी खबर कानों कान न लगे कारण कि मैनेजमेंट ऐसी व्यवस्था को पसंद नहीं करती है और पता लगने पर उसकी नौकरी भी जा सकती है.
एक दिन का ऑफ.. दूसरे दिन का दूसरा ऑफ...तीसरे दिन की केजुयल लीव, चौथे दिन की बीमारी पाँचवे दिन... ऐसे पूरा एक हफ़्ता गुजर गया. रोज़ सुबह वे निकलते, कभी शॉपिंग, कभी कुतुब मीनार, सैर-सपाटा, कभी हुमायूँ टोम्ब कभी ताज महल.. मौज-मस्ती. सच तो यह है सुनील भी दिल्ली पहली बार अनीता के साथ घूम रहा था. उसकी बेटी को गोद में लिए या फिर सामान से लदा-फदा. टेक्सी, होटल, खाना, शॉपिंग सारे बिल अनीता दे रही थी. बल्कि अनीता ने कुछ पैसे सुनील को दिये थे कि वह बिल अदा किया करे. रोज़ शाम को सुनील हिसाब देना चाहे तो भी वह उसे अगले दिन का कह के बात गोलमोल कर देती.
अंग्रेजी में कहावत है कि सभी अच्छी चीज़ों का अंत आता है और एक दिन बैंग्लोर वापसी का दिन भी आ गया. अनीता ने सुनील से वादा लिया कि वह बैंग्लोर ज़रूर घूमने आएगा. अनीता वापस बैंग्लोर चली गई और सुनील वापस नौकरी पर. जीवन अपनी उसी गति से जैसा कि एक बजट होटल के रिसेप्शनिस्ट का हो सकता है चलने लगा. कभी-कभी सुनील को लगता कि यह चल नहीं रहा बल्कि घिसट रहा है.
अनीता को बैंग्लोर गए दो हफ्ते भी न हुए थे कि एक सुबह अनीता फिर रिसेप्शन पर सुनील से कमरा बुक करा रही थी और उसने उसे हाफ़ डे लेने को कह दिया था, सुनील कुछ भयभीत, कुछ रोमांचित था. चटपट हाफ़ डे की अर्ज़ी दे वह और अनीता साथ थे. अनीता ने सुनील को कहा कि वो एक हफ्ते कि छुट्टी ले ले और उसके साथ बैंग्लोर चले. सुनील का कहना था कि चार दिन तो बैंग्लोर आने-जाने में ही लग जायेंगे. सुनील ने ट्रेन में कम ही यात्रा की थी. दिल्ली-शिमला वो बस से आया-जाया करता था. कश्मीरी गेट बस अड्डे से,सस्ती रोडवेज़ सेवा थी. उसे ट्रेन का ज्यादा कोई ज्ञान न था. अनीता हँस पड़ी और कहा कि “ बुद्धू न बस .. न ट्रेन “ और अपने पर्स से दो हवाई जहाज के टिकट सुनील के सामने रख दिये जो शाम की फ्लाइट के थे.
सुनील को लगा वो कोई सपना देख रहा है. सच ही तो है. सच कल्पना से कहीं ज्यादा अदभुत होता है. सुनील ने अनीता की दरियादिली दिल्ली में देखी थी. अब बैंग्लोर में वह दरिया तथा दिल दोनों देखने वाला था. उसका हाल ‘एलिस इन वंडरलेंड’ जैसा था.
एयरपोर्ट पर लंबी गाड़ी अनीता और सुनील को लेने आई थी. बंगला कहना गलत होगा , अनीता का घर मानो महल था.
वह एक बहुत ही अमीर,सफल राजनीतिज्ञ की बेटी थी. पैसे की कोई कमी न थी. पति कुछ अपने कम्प्लेक्स के चलते ऐसे किनारा कर गया कि दुबारा दिखा ही नहीं और हमारे हीरो हीरालाल श्री श्री सुनील जी को बैंग्लोर का यह रिसेप्शन ऐसा भाया.. ऐसा फला कि वो दुबारा न बजट होटल के रिसेप्शन पर आ पाये और न दुबारा दिल्ली ही आ पाये....
अब आप ही बताइये क्या इसका शीर्षक ‘एक था सुनील’ रखा जा सकता था. नहीं न. ? इसका शीर्षक ‘एक थी अनीता ‘ के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता.
पुनश्च : सुनील जी ने अनीता को संभाला..उसकी सभी देशी-विदेशी गाडियाँ संभालीं
फेक्टरियाँ संभालीं..यहाँ तक कि अनीता और बेबी को भी संभाला, बाई दी
वे ‘बेबी’ आजकल हिन्दी सिनेमा की एक चोटी की एक्ट्रेस है.
मेरे कंपनी बदलने पर मि.सूद ने कहा था कि मैं उनके ग्रेजुएट बे-रोजगार भतीजे को कहीं चिपका दूँ. अभी वह कुछ नहीं करता है बस दोस्तों के साथ सारा दिन मटरगश्ती करता है और पूरे शिमला को सर पर उठाये घूमता है. कैथू (शिमला की एक बस्ती) में उस से बड़ा वेला(फ़ालतू) कोई नहीं. मैंने औपचारिकतावश “देखेंगे” कहा और उनसे विदा ली. थोड़े दिनों में उसका एक बायोडाटा मिला. बायोडाटा में खास कुछ नहीं था.बहुत ही मामूली किस्म का बायोडाटा था बल्कि मामूली से भी गया बीता. फोटो हाँ मगर फोटो में ग़ज़ब की बात थी. पूरा अंग्रेज लग रहा था. बाल भी उस स्टाइल के जैसे पॉप ग्रुप बीटल्स रखते थे. फोटो कुछ ऐसा दिल फरेब था कि कोई भी फोटो देखकर ही दिल हार जाए. अनीता ने हारा तो क्या गलत था.
मैंने उसे रिसेप्शनिस्ट की नौकरी दिला दी. वह लंबा,छरहरा सुदर्शन नवयुवक था तथा पहाड़ों वाला भोलापन उसके चेहरे पर था. वह फोटो से भी कहीं अधिक हेंडसम था. वह मेहनत से काम करता था. और फिर एक दिन अनीता दिल्ली उतरी. एक बच्ची को गोद में लिए रिसेप्शन पर कमरा लेने आ पहुंची. सुनील जी पूरी मुस्तैदी से ड्यूटी पर थे. अनीता ने रजिस्टर में खाना-पूर्ति की. और सुनील को कहा कि या तो वह बेबी को गोद में ले या सामान उसके कमरे में पहुँचाने में मदद करे. सुनील ने बेबी को गोद में ले लिया. वह आखिर रिसेप्शनिस्ट है. सामान को पोर्टर से उठवा अनीता को उसके कमरे तक पहुँच दिया. वह व्यावसायिक विनम्रता के साथ वापस रिसेप्शन पर आ डटा. फ़्रेश हो कर एक घंटे में अनीता जी अपनी बेटी को गोद में लिए फिर सुनील से मुखातिब थीं और दिल्ली में घूमने के स्थान शॉपिंग, के स्थान दरियाफ्त करने लगी. अनीता ने सुनील को यह भी कह दिया कि वह पहली बार दिल्ली आई है. उसके लिए दिल्ली एकदम नई जगह है और उसे उसकी मदद चाहिये. हमारा हीरो सुनील थोड़ी झिझक के बाद उसे दिल्ली भ्रमण और शॉपिंग कराने के लिए राजी हो गया. लालच कुछ नहीं था.यूँ भी सुनील का अगले दिन ऑफ था. वह भी तो दिल्ली में चार दीवारों में क़ैद रहता है. उसने हामी भर ली. इस शर्त के साथ कि होटल की मैनेजमेंट को इसकी खबर कानों कान न लगे कारण कि मैनेजमेंट ऐसी व्यवस्था को पसंद नहीं करती है और पता लगने पर उसकी नौकरी भी जा सकती है.
एक दिन का ऑफ.. दूसरे दिन का दूसरा ऑफ...तीसरे दिन की केजुयल लीव, चौथे दिन की बीमारी पाँचवे दिन... ऐसे पूरा एक हफ़्ता गुजर गया. रोज़ सुबह वे निकलते, कभी शॉपिंग, कभी कुतुब मीनार, सैर-सपाटा, कभी हुमायूँ टोम्ब कभी ताज महल.. मौज-मस्ती. सच तो यह है सुनील भी दिल्ली पहली बार अनीता के साथ घूम रहा था. उसकी बेटी को गोद में लिए या फिर सामान से लदा-फदा. टेक्सी, होटल, खाना, शॉपिंग सारे बिल अनीता दे रही थी. बल्कि अनीता ने कुछ पैसे सुनील को दिये थे कि वह बिल अदा किया करे. रोज़ शाम को सुनील हिसाब देना चाहे तो भी वह उसे अगले दिन का कह के बात गोलमोल कर देती.
अंग्रेजी में कहावत है कि सभी अच्छी चीज़ों का अंत आता है और एक दिन बैंग्लोर वापसी का दिन भी आ गया. अनीता ने सुनील से वादा लिया कि वह बैंग्लोर ज़रूर घूमने आएगा. अनीता वापस बैंग्लोर चली गई और सुनील वापस नौकरी पर. जीवन अपनी उसी गति से जैसा कि एक बजट होटल के रिसेप्शनिस्ट का हो सकता है चलने लगा. कभी-कभी सुनील को लगता कि यह चल नहीं रहा बल्कि घिसट रहा है.
अनीता को बैंग्लोर गए दो हफ्ते भी न हुए थे कि एक सुबह अनीता फिर रिसेप्शन पर सुनील से कमरा बुक करा रही थी और उसने उसे हाफ़ डे लेने को कह दिया था, सुनील कुछ भयभीत, कुछ रोमांचित था. चटपट हाफ़ डे की अर्ज़ी दे वह और अनीता साथ थे. अनीता ने सुनील को कहा कि वो एक हफ्ते कि छुट्टी ले ले और उसके साथ बैंग्लोर चले. सुनील का कहना था कि चार दिन तो बैंग्लोर आने-जाने में ही लग जायेंगे. सुनील ने ट्रेन में कम ही यात्रा की थी. दिल्ली-शिमला वो बस से आया-जाया करता था. कश्मीरी गेट बस अड्डे से,सस्ती रोडवेज़ सेवा थी. उसे ट्रेन का ज्यादा कोई ज्ञान न था. अनीता हँस पड़ी और कहा कि “ बुद्धू न बस .. न ट्रेन “ और अपने पर्स से दो हवाई जहाज के टिकट सुनील के सामने रख दिये जो शाम की फ्लाइट के थे.
सुनील को लगा वो कोई सपना देख रहा है. सच ही तो है. सच कल्पना से कहीं ज्यादा अदभुत होता है. सुनील ने अनीता की दरियादिली दिल्ली में देखी थी. अब बैंग्लोर में वह दरिया तथा दिल दोनों देखने वाला था. उसका हाल ‘एलिस इन वंडरलेंड’ जैसा था.
एयरपोर्ट पर लंबी गाड़ी अनीता और सुनील को लेने आई थी. बंगला कहना गलत होगा , अनीता का घर मानो महल था.
वह एक बहुत ही अमीर,सफल राजनीतिज्ञ की बेटी थी. पैसे की कोई कमी न थी. पति कुछ अपने कम्प्लेक्स के चलते ऐसे किनारा कर गया कि दुबारा दिखा ही नहीं और हमारे हीरो हीरालाल श्री श्री सुनील जी को बैंग्लोर का यह रिसेप्शन ऐसा भाया.. ऐसा फला कि वो दुबारा न बजट होटल के रिसेप्शन पर आ पाये और न दुबारा दिल्ली ही आ पाये....
अब आप ही बताइये क्या इसका शीर्षक ‘एक था सुनील’ रखा जा सकता था. नहीं न. ? इसका शीर्षक ‘एक थी अनीता ‘ के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता.
पुनश्च : सुनील जी ने अनीता को संभाला..उसकी सभी देशी-विदेशी गाडियाँ संभालीं
फेक्टरियाँ संभालीं..यहाँ तक कि अनीता और बेबी को भी संभाला, बाई दी
वे ‘बेबी’ आजकल हिन्दी सिनेमा की एक चोटी की एक्ट्रेस है.
यह कहानी है न ...
ReplyDeleteकृपया वर्ड वेरीफिकेशन हटा लें। यह न केवल मेरी उम्र के लोगों को तंग करता है पर लोगों को टिप्पणी करने से भी हतोत्साहित करता है। आप चाहें तो इसकी जगह कमेंट मॉडरेशन का विकल्प ले लें।