Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Monday, September 30, 2024

व्यंग्य: गर्लफ्रेंड को घर लाये, पत्नी से मारपीट

 


 

              देखिये अब आपने अगर गर्लफ्रेंड बना ही ली है तो उसके लिए पत्नी से मारपीट करने की क्या ज़रूरत थी। गर्लफ्रेंड पर आपका क्या इम्परेशन पड़ेगा। कल को ये बांदा मेरे साथ भी यही करेगा। कोई अच्छा काम नहीं किया आपने। यूं हो सकता है जब आप गर्लफ्रेंड को लेकर गए हों तो पत्नी आप पर ही पिल पड़ी हो और आपने जो भी हाथापाई करी हो वो महज़ अपनी और अपनी गर्लफ्रेंड की रक्षा में करी हो।

 

            ये आइडिया आपको आया कहाँ से कि गर्लफ्रेंड को घर ले जाया जाये। ये कोई गफलत हुई है या आपको पंगे लेने का शौक रहा है। आपने क्या सोचा था बीवी बहुत खुश होगी ? या तो आपको खुद पर ज़रूरत से ज्यादा आत्मविश्वास है या फिर आपने अपनी पत्नी जी को अंडर-एस्टीमेट किया है। आप सोच रहे थे की बीवी दहलीज़ पर खड़े हो आप दोनों की आरती उतारेगी। फिर प्यार मुहब्बत से आकी गर्ल फ्रेंड को भीतर ले जाएगी और दोनों हंसी-खुशी सुख से रहने लगेंगी। पर ये क्या ये तो एंटी-क्लाइमेक्स हो गया। मुझे पता नहीं आप गर्ल फ्रेंड को क्या कह कर अपनी बीवी से मिलाने ले गए थे। वो आपके बारे में क्या सोचती होगी और आपकी आगे भी लाइन बंद कर दी। उधर बीवी अलग आपको अपने कमरे से बाहर कर देगी। दूसरे शब्दों में नाम कट गया और कहीं जुड़ा भी नहीं। खाया-पीया कुछ नहीं, गिलास तोड़े बारह आने।

 

              मुझे पता नहीं हो सकता है पहले आपको अपनी पत्नी जी से भी प्यार रहा हो बोले तो आपने लव मेरीज की हो। अब न जाने लव का कहाँ वाष्पीकरण हो गया। यह बात गर्ल फ्रेंड ने भी नोट कर ली होगी।

 

           न खुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम

 

गली-मोहल्ले में आपकी अलग थू-थू हो रही होगी। कैसे तो भी आप आँख मिला पाएंगे? मुझे यह सोच कर हंसी आ रही है आपने अपनी गर्ल फ्रेंड का परिचय कराया होगा। या इसकी नौबत ही नहीं आई और पत्नी जी ने तड़ातड़ मार-कूट शुरु कर दी। एक बात है जो बीवी ने तलाक का कहा तो सोचो आपकी आधी आमदनी भी मेंटीनेंस में गई अब आधी आमदनी में तो गर्लफ्रेंड आने से रही। मतलब बहुत नुकसान का सौदा आप कर बैठे। मुंबई में एक प्रेमी जी जब प्रेमिका से मिलने आए, तभी अचानक पति महोदय आ गए। पति को देखते ही प्रेमी जी को छुपा दिया पर पति ने देख लिया तभी पत्नी “चोर ! चोर !” चिल्लाने लगी। पति ने प्रेमी को जकड़ लिया और पुलिस बुला ली। पुलिस चोर को पकड़ के ले गई। फिर पति को लगा बंद फ्लैट में चोर आया कहाँ से। उसे लगा पत्नी जी कुछ छुपा रही हैं।  दो-चार सवाल-जवाब में असलियत सामने आ गई। अंततः पत्नी जी, पति को छोड़ कर प्रेमी के पास ही चलीं गईं।

  आप शायद सुने नहीं है:

 

             प्रेम गलि अति सांकरी जा में दो न समाय

 

               कुछ भी था आपको पत्नी जी से मारपीट नहीं करनी चाहिए थी। यह बहुत खराब उदाहरण आपने पेश किया। प्रेमी के ये लक्षण नहीं। सुना आपने अपने पिता के साथ भी मारपीट की। अभी भी आप में इतना क्रोध, इतना कलुष इतना द्वेष मौजूद है, जिसे न बीवी समाप्त कर पायी, न प्रेमिका। न अच्छे पति ही बन पाये न अच्छे प्रेमी। दोनों फ्रंट पर फेल। 

Sunday, September 29, 2024

व्यंग्य: सिर में ही गोली क्यों मारी?

 


                कचहरी में पूछ रहे हैं आखिर भागते हुए आरोपी को पुलिस ने सिर में ही गोली क्यों मारी। अब इस बात का क्या उत्तर हो सकता है। आजकल ट्रेंड ही कुछ ऐसा चल पड़ा है। जैसे कि जिस गाड़ी में आरोपी को ले जाया जा रहा हो उसका पलट जाना या फिर अपराधी का ट्रांसफर के दौरान भागने का प्रयास करना और मुठभेड़ में आरोपी को गोली लगना और मर जाना। केस क्लोज़।

 

              कोई कचहरी नहीं पूछती थी कि आरोपी की ही गाड़ी क्यों पलटती है। किसी भी मुठभेड़ में पुलिस का बाल-बांका भी नहीं होता और आरोपी को ही गोली लगती है। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे सत्तर के दशक में स्टोव से सिर्फ बहुएँ ही जलतीं थी। सास को कभी कोई आंच नहीं आई। लोग-बाग तब भी ताज्जुब  करते थे: स्टोव को कैसे पता चलता है कि ये बहू है... ये सास।

 

               देखिये अगर पुलिस कहीं और गोली मारती तो पूछा जा सकता था कि आपने दायें पैर की कन्नी उंगली में ही गोली क्यों मारी अथवा आपने बाएँ कंधे पर ही गोली क्यों मारी देखते नहीं हो वहाँ दिल होता है। और दिल में और भी बाशिंदे रहते हैं, मसलन उसके बीवी-बच्चे उसकी गर्ल फ्रेंड आदि आदि। गोया कि आप कहीं भी गोली मारते सवाल आप ही से पूछे जाते। मज़े की बात ये है कि यदि आप गोली चलाते ही नहीं तो भी बच नहीं सकते थे। आप पर डिपार्टमेंटल एक्शन हो सकता है । रिवॉल्वर क्या आपको देखने के लिए दी गई है? आपकी ये रिवॉल्वर क्या खिलोना रिवॉल्वर है ? क्या आपको रिवॉल्वर चलाना नहीं आता ? ये आपराधिक लापरवाही का केस है। आपने जानबूझ कर आरोपी को फरार होने में मदद की है। बेचारों की दोनों तरफ से मुश्किल है।

 

               इस बीच अगर आरोपी कुछ दंद-फंद करके निकल भागने में वाकई कामयाब हो जाता है और उल्टे पुलिस को ही कुछ जान-माल का नुकसान पहुंचाता है तो और भी बड़ी मुश्किल। हैड लाइन ही छाप देते है कि आरोपी जाते-जाते पुलिस की बंदूक भी ले गया। और लो ! मुंह दिखाने लायक भी न रहे।

 

          अंग्रेजी फिल्मों में भी ऐसा ही कुछ दिखाते हैं एक जेल से दूसरी जगह पर ट्रांसफर करने में ही खेला हो जाता है। फिर पूरी कि पूरी फिल्म इसी के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। हमारे यहाँ ऐसा नहीं है। हममें से ज्यादातर बेलेन्स डाइट नहीं लेते हैं हमारी यादगार बहुत शॉर्ट-लिव्ड होती है। हम आज जो हुआ उसे कल भुला देते हैं। परसों कोई और वारदात हो जाती है उसकी चर्चा होने लगती है। जनता की मेमोरी वैसे भी बहुत कमजोर होती है। उसे बार-बार याद दिलाना पड़ता है उसके बाद भी यह जनता पर है कि वो किसी प्रकरण को याद रखना भी चाहती है या नहीं। तभी कहा गया है की इतिहास अपने आप को दोहराता है, क्यों दोहराता है ? क्यों कि हम इतिहास से सीखते नहीं हैं और भुला देते हैं।

 

             पहले एक जोक चला करता था कि ह्यूमन-राइट्स वालों ने सख्त ऑबजेक्शन लिया कि आरोपी/अपराधियों के प्रति सम्मानजनक, स्नेहिल व्यवहार करना चाहिए और कोई सख्ती, मार-पीट या थर्ड डिग्री बिलकुल नहीं होना चाहिए। आखिर उसके भी कुछ मानवाधिकार हैं। थोड़े दिनों बाद उनके ही घर में चोरी हो गई। अब लगी पुलिस पूछने: “क्या आपने चोरी की है ? यदि हाँ ? तो हमें सच सच बता दें ?  हो सकता है आप गलती से उसे अपना घर समझ उसमें घुस गए हों या वहाँ रखी संपत्ति को अपनी संपत्ति समझ उठा ले गए हों। हो सकता है आपकी संपति और वहाँ रखी संपति मिलती जुलती हो। अक्सर इंसान से ऐसा हो जाता है। मानवाधिकार वाले जिनके घर चोरी हुई थी ये सब सुन रहे थे उनका सब्र जवाब दे गया। बोले “अरे ! ये ऐसे नहीं बताएगा। दो डंडे लगायेँ, सब सच सच उगल देगा। मैंने इसे खुद देखा है”। तब पुलिस ने कहा “नहीं हुज़ूर आपके ही कथानुसार हम इनके साथ तनिक भी सख्ती नहीं कर सकते। यह कोर्ट की अवमानना तो होगी ही कानून का उल्लंघन भी होगा। हम कानून के रक्षक है हम कानून नहीं तोड़ सकते। फिर आपने ही कहना है देखो देखो रक्षक ही भक्षक बन गए हैं”।


            

                 जब एक अपराधी की माथे में आँख के  ऊपर गोली लगने से मौत हो गई तो किसी ने टिप्पणी की: “अच्छा हुआ आँख बच गई”। तो सर जी भले गोली सिर में लगी है मगर आँख तो बच गई है। वह है लाचार समाज की आँख जो आपके और पुलिस की तरफ बहुत आशा-प्रत्याशा से सतत देख रही है। उन्हें कब तक निराशा ही हाथ लगती रहेगी। ऐसा नहीं होता तो क्यों आज भी एक आम आदमी थाना-कचहरी से ताउम्र सम्मानजनक दूरी बनाए रखना चाहता है ? 

व्यंग्य: ट्रेन के ए.सी. कोच में साँप

 

                                         

 

 

               मुझे साँपों से कोई वैर नहीं है। डर ज़रूर लगता है। आप कितने ही कहते रहें इतने प्रतिशत साँप भारत में बिना ज़हर के होते हैं परंतु भाई साब सब साँप डराने का तो फुल-फुल माद्दा रखते हैं। और मेरे जैसे बाबू को डराने को किसी भी प्रजाति का साँप पर्याप्त होगा। मैंने ज़िंदगी भर बाबूगिरी की है मेरी तो बॉस की एक झिड़की से ही घिग्घी बांध जाती थी। यूं मुझे आदत पड़ जानी चाहिए थी किन्तु साँप फिर भी साँप होता है। चलती ट्रेन में उसकी बर्थ शिफ्ट भी नहीं हो सकता कि टी.टी. आए और चार्ट देख कर बताए आप की बर्थ यहाँ नहीं आप ब्रेक-वैन में जाएँ।  मैं बस ये कह रहा था की साँपों को भी हक़ है कि वे ए.सी. में यात्रा करें। कोई कब तक रेंगता रहे। अब सभी तो फ्लाइंग स्नेक नहीं न होते हैं। मेरा कहना है कि क्या साँप के पास वैलिड टिकट था ? यदि था तो क्या सीट का रिज़र्वेशन था? जिस तरह से वो ए.सी. डक्ट से लटक रहा है यह पक्का है कि उसकी सीट ‘साइड-लोअर’ रही होगी। आपने अब तक अंग्रेजी फिल्म ‘स्नेक इन फ्लाइट’ देखी थी जिससे पूरे विमान में अफरा-तफरी मच जाती है वो भी जब विमान में आसमान में है। यहाँ तो एक साँप ने ही यात्रियों में ऐसा बावेला मचाया कि सबने तड़ातड़ी पूरा कोच खाली कर दिया। वे दूर से देख रहे थे कि साँप अब क्या करता है अब क्या करता है। यात्रियों के पास साँप से बचने का कोई रक्षा कवच नहीं था।

 

                 रेल ने बहुत तरक्की की है। कहाँ पहले आप रेल में केवल जूं, खटमल, कॉकरोच और चूहे देख पाते थे अब भारतीय रेल आपके लिए शोकेस कर रही है भारतीय साँपों की भिन्न-भिन्न प्रजाति बोले तो स्नेक-सफारी। आखिर हमारे देश को ‘स्नेक-चार्मर’ का देश यूं ही तो नहीं कहा जाता। हम साँपों की पूजा करते हैं। हमने बीसियों फिल्में साँपों को लेकर बनाईं हैं। मदारी, सपेरों से लेकर फिल्म प्रोडक्शन तक साँप हमारे लिए सदैव नफे का सौदा रहे  हैं। नागमणि से लेकर ज़हर तक के लिए साँप हमारा साथी है, नाग-देव है। देवता क्या करते हैं? देवता देते हैं सो हम ले रहे हैं। पहले दफ्तरों में चूहे फाइल कुतर जाते थे अतः बिल्ली पाली जाती थीं ताकि वह चूहों का सफाया कर सके। हो सकता है इसी तर्ज़ पर चूहों का सफाया करने साँप ड्यूटी पर हो।

 

           अब रेलवे को चाहिए कि साँपों के लिए अलग से एक ‘स्नेक-स्पेशल’ चलाये। जैसे हॉलिडे स्पेशल चलती है, वैसे ही।  क्या पता ये साँप बेचारा, समस्त साँप-समाज की तरफ से वो ही केस रखने आया हो। हमारे लिए भी एमू, डेमू, मेमू नहीं सर्पू ट्रेन चलाई जाये। नागिन-एक्स्प्रेस, साँप-मेल अथवा सर्प-भारत चलाई जाएं। मेरी पूरी हमदर्दी साँपों के साथ है। खासकर नागपंचमी के त्योहार के अवसर पर इस तरह की ट्रेन चलाई जाया करें। आखिर आप अन्य त्योहारों पर श्रद्धालुओं के लिए ट्रेन चलाते ही हो। मैंने सुना है पालतू शिकारी बाजों के लिए शेख लोग पूरी कि पूरी फ्लाइट बुक कर लेते हैं। एक हमारे साँप हैं बेचारों की सुधि लेने वाला कोई नहीं।

 

          साँप अब रेगेंगे नहीं वक़्त आ गया है कि वे भी सम्मानपूर्वक ट्रेन में, विमान में यात्रा करें। आप सम्मान देंगे तो सम्मान पाएंगे।

 

                

Saturday, September 28, 2024

व्यंग्य: दरोगा की बंदूक और लाखों चुराये

 


       एक खबर है कि दरोगा जी जब अस्पताल गए तो पीछे से चोर उनके घर में घुस कर उनकी बंदूक और लाखों रुपये लेकर ये जा वो जा। दूसरे शब्दों में उनकी दौलत और दबदबे दोनों का इलाज़ उन्होने एक झटके में कर दिया। असल में ये दरोगा साब रिटायर्ड थे और इलाज़ को एम्स गए थे। बजाय अपने घर लौटने के वो वहीं अपने भाई के घर रुक गए। दो-चार दिन बाद लौटे तब तक ये कांड हो चुका था।

 

        इससे एक तो हमें चोरों की साइकीका पता चलता है वे असली धर्म निरपेक्ष हैं। वो ये नहीं देखते कि आप किस धर्म के हैं ? कौन से भाषा-भाषी हैं ? आप वर्किंग हैं या रिटायर्ड हैं ? इस केस में ये दरोगा महाशय रिटायर्ड थे। वो ज़रूर ओवर-कॉन्फ़िडेंसका शिकार होंगे। हम दरोगा हैं ! चोर हमारे नाम से थर-थर काँपते हैं। हमें देख कर मील भर दूर से ही भाग जाते हैं। छुप जाते हैं। उन्हें पता नहीं है कि बहुत सी अन्य चीजों की तरह अब ये काम भी ऑन-लाइन हो गया है बोले तो फेसलैस। फिर ब्रादर ! आप रिटायर हैं। अब रिटायर तो आप दरोगा हो, या कप्तान हों या फिर आई.जी. ही क्यों न हो। चोर तो अभी वर्किंग है न, वो रिटायर नहीं हुआ है। पहले तो आपको इतनी दूर इलाज़ कराने जाना नहीं था, जाना था तो इलाज़ के बाद सीधे घर आना था। भाई के पास जाना था तो चाय पीकर उल्टे पाँव आ जाना चाहिए था। पर नहीं आप तो दरोगा हैं और बाहर तो कोई सुनता-सुनाता नहीं चलो भाई के यहाँ ही खातिरदारी का लुत्फ उठाया जाये ।

 

           चोर धन-दौलत के साथ साथ आपकी बंदूक भी ले गए। कैसा तो भी लगा होगा आपको। सारी उम्र भर जिस बंदूक के दिखाने भर से आपका काम चल जाता होगा वो सहारा ही न रहा। अब आप भले दूसरी बंदूक खरीद लें पर वो बात नहीं आएगी। गली-मोहल्ले में लोग उपहास अलग करेंगे “वो देखो वो वाले दरोगा जी जा रहे हैं जिनकी रिवॉल्वर और रुपये चोर ले गया” चलो चिंता छूटी। जब तक ये दौलत और बंदूक रहती है आदमी को चिंता ही रहती है वह मोहपाश में ही जकड़ा रहता है। अब आप समदर्शी हो ! प्रभु से लौ लगा सकते हैं इसी के बारे में कबीर ने बहुत पहले लिखा था:

    

               कबिरा खड़ा बाज़ार में लिए मुराडा हाथ

               जो घर जारै आपाना, चले हमारे साथ

 

              दरोगा जी को इसका ग़म नहीं करना चाहिए बल्कि इसे ऐसे लेना चाहिए जिसका था वो ले गए। आप क्या लेकर आए थे (दरोगा बनने) क्या लेकर जाएँगे।

              

             मेरा मुझमें कुछ नहीं जो है सो तोर

            तेरा तुझको सौंपते क्या लागे मोर

 

              ये तो भला हो आप रिटायर्ड हैं जो कहीं अभी नौकरी में होते तो और फजीहत होती। आप अपनी बंदूक की रक्षा नहीं कर सकते अपने इलाके (जहां भी आपकी ड्यूटी रही होती) उसकी क्या करेंगे। ये बताओ ये इतने पैसे आपके पास आए कहाँ से ? बोले तो आय के ज्ञात सोर्स से कहीं अधिक। उधर चोरों का अपने समूह-समाज में कितना रुतबा बढ़ गया होगा। वाह! दरोगा जी को भी नहीं छोड़ा। यह वैसे ही है जैसे चिड़ीमारों ने शेर मार लिया हो। उनका प्रमोशन पक्का है। एक पॉज़िटिव यह है कि आप कह सकते हैं कि जब मैं सर्विस में था तो मजाल है शहर में किसी चोर की हिम्मत होती जो किसी के घर के बाहर पड़ी चीज़ भी कोई उठा सकता था। ये तो अब मैं रिटायर हो गया तब से सारे इलाके में यही अराजकता चल रही है। पता नहीं ये आजकल की पुलिस को क्या हो गया है इनका वो रौब-दाब ही नहीं रह गया। हमारे जमाने में..... और नयी नयी कहानियाँ जोड़ते रहें।

Friday, September 27, 2024

व्यंग्य: पैराशूट एंट्री आई.पी.एस.

 


 

              अब आप ही बताइये क्या आपने कभी कल्पना की थी कि ऐसे दिन भी आएंगे जहां न कोई कोचिंग, न कोई पढ़ाई-लिखाई, सीधे आई.पी.एस. किसी फिल्म में संवाद था “न वकील, न जज, सीधे-सीधे फैसला और मुकदमा खारिज” सच तो यह है की यदि आप आई.पी.एस. का सोचेंगे तो आपको कमसेकम ग्रेजुएशन तक पढ़ना होगा। पढ़ाई में बहुत अच्छा होना होगा। फिर अपनी सेहत का बहुत ध्यान रखना होगा। उसके बाद लाखों रुपये लगा कर कोचिंग लेनी पड़ेगी। वहाँ अलग परिश्रम करना ही करना है। उसके बाद चयन की न जाने कितनी दुरूह सीढ़ियाँ प्रेलिम, मेन, इंटरव्यू, मेडिकल, पार करते हुए जाकर कहीं ये सिद्धि प्राप्त होती है। 'रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी। इनसे बचे तो सेवे काशी

 

      पिछले कई सालों से असल में भर्ती बंद प्रायः है। जहां छिटपुट-छिटपुट भर्ती हो भी रही है वहाँ रिक्ति इतनी कम हैं कि अब अनुपात लगभग 1:1000 का है। बाकी जो बचा तो लेटरल एंट्री मार गई। चयन के बहुत सारे तरीके होते हैं। लेटेस्ट थी लेटरल एंट्री। लेकिन दो लाख में जब आई.पी.एस. का मामला प्रकाश में आया तो एक और नई प्रणाली चल पड़ी है इसको कहते हैं पैराशूट एंट्री। यह लेटरल एंट्री के बाद का सोपान है।

      

        मैं सोच रहा हूँ कि इस चयन प्रणाली को मजबूत बनाया जाये। ताकि घर-घर, गाँव-गाँव से आई.पी.एस. निकल सकें। वैसे देखा जाये तो दो लाख क्या होता है। बेंक से आसान किश्तों पर अथवा इंटरेस्ट फ्री लोन मिल सकता है। एक पोस्टिंग और सारे लोन साफ। वर्दी पहनिए और पिस्टल/तमंचा खोंसिए और काम पर चलिये। हम कितना सुनते हैं कि पुलिस बन कर रास्ते में आगे डर दिखा कर महिला से गहने उतरवा लिए। अब पता नहीं ये कौन से वाले पुलिस वाले हैं ?

 

     ऐसे लोग बहुत बढ़िया रोल-मॉडल साबित हो रहे हैं। पुलिस में कैरियर के प्रति समाज में जागृति ला रहे हैं। स्पोर्ट्स वाले बहुधा सुदूर ग्रामीण इलाके में जाकर रुरल प्रतिभाओं का चयन करते हैं बोले तो कैच देम यंग। उसी तरह आई.पी.एस. के लिए हमें दूर-दराज इलाकों में जाकर आई.पी.एस. बनाए जाएँ। जिस गाँव से बल्क भर्ती हो वहाँ कुछ डिस्काउंट दिया जा सकता है बोले तो कैश-बैक।  

 

               लोगों की माई एम्बीशन इन लाइफ होती है पुलिस में जाना। सबके अपने अपने कारण होते हैं। उन्हें कुछ तूफानी करना होता है ज़िंदगी में। अब वक़्त आ गया है कि पी.एस.सी. का तुरंत गठन किया जाये। नहीं समझे ? पैराशूट  सर्विस कमीशन। बाद में आप समुचित ट्रेनिंग देते रहना। यकीन जानिए कोई बहुत ज्यादा फर्क न पाएंगे। हमारे पास टर्निंग सेंटर में ऐसे-ऐसे उस्ताद ट्रेनिंग इंचार्ज हैं जो रंगरूट को बंदा बना देते हैं। बाकी तो नौकरी सब सिखा देती है। वो कहते हैं न कुर्सी सब सिखा देती है। वैसे ही वर्दी सब सिखा देगी। ये भी लाठी भाँज पाएंगे, एक्स-वाई सिक्यूरिटी के लिए मुस्तैद रहेंगे, एन्काउंटर कर पाएंगे। ड्रग्स रख कर गिरफ्तार कर पाएंगे। और क्या बच्चे की जान लोगे ?

व्यंग्य: लंगूर की आवाज और ताजमहल

 



                  अक्सर सरकारों पर यह आरोप लगता है कि सरकार बहुत फिजूलखर्ची करती है। सरकारी योजनाएँ बहुधा सफ़ेद हाथी की तरह खर्चीली होती हैं। इस मामले में ताजमहल की देखभाल में लगे लोगों ने बचत का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया है। उन्होने ताजमहल प्रांगण में बंदरों के आतंक को समाप्त करने और बंदर-दल को परिसर से दूर भगाने के लिए स्पीकर्स लगा दिये हैं। अक्सर लोग ऐसे में लंगूर की मदद लेते हैं। लंगूर में ऐसी कोई बात है कि उनको देखते ही बंदर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। अब अगर ताजमहल में इस युक्ति को इस्तेमाल में लाते तो एक अन्य प्रॉबलम ये पेश आती है कि न केवल बंदर बल्कि मनुष्य भी लंगूर से अच्छे खासे डरते हैं। आदमी, भले बंदर से विकसित होते-होते मानव बन गया मगर उसके दिल से लंगूर का डर गया नहीं। फिर लंगूर का क्या भरोसा कब आदमी को बंदर समझ उसी से दो-चार हाथ करने लग जाये। बेचारे देखने आए हैं प्रेम की निशानी और साथ लेकर जाएँ चोट,घाव और खरोंचें। बाद में 25 साल बाद भी चोट के निशान देख कर अपने दिन याद करें। ताजमहल से जुड़ी यह कोई सुखद स्मृति तो नहीं न हुई।

 

      इन सब को देखते हुए ताजमहल के प्रशासकों ने यह तय पाया है कि वे लंगूर की आवाज बोले तो खों खों को रिकॉर्ड कर के रख लेंगे। जहां बंदरों का झुंड दिखाई दिया वहीं का स्पीकर चला दिया बंदर भागते नज़र आएंगे। कितना सुंदर, सरल और शाश्वत उपाय है। इसे कहते हैं रचनात्मकता जो हमारे देश में कूट-कूट कर भरी हुई है, बस अवसर की कमी है।

 

             अभी कुछ दिन पहले ही जब पुलिस के पास कारतूस खत्म हो गए तो उन्होने डकैतों को मुंह से बंदूक की आवाज निकाल कर ही गुंडे-बदमाशों को भागने पर मजबूर कर दिया था। देखी है आपने विश्व में कहीं इससे अधिक क्रिएटिविटि ? अब मुझे पक्का यकीन हो चला है कि सभ्यता सबसे पहले भारत में ही आई थी। ज़ीरो का आविष्कार भी सर्वप्रथम भारत में ही हुआ था। वो यूं है कि जहां देखो वहीं सभी मामला ज़ीरो ही तो है।

 

           ज़ीरो देखन मैं गया मैं भी हो गया ज़ीरो

           ज़ीरो अपने देश का जित देखूँ तित ज़ीरो    

 

                    


                ऐसा हो ही नहीं सकता था कि ज़ीरो का आविष्कार कोई और कर लेता। हमें इसके लिए चुना गया है। अब सिर्फ ये ही भानगढ़ है कि कहीं बंदरों को कभी ये न पता चल जाये कि कोई लंगूर-वंगूर नहीं हैं बस उनकी आवाज भर है। फिर कैसे वो आपके स्पीकर्स पर झपटेंगे। मेरा सुझाव है कि लंगूर के बड़े बड़े लंगूर-साइज़ के लाइफ-लाइक कट-आउट बिठा दें उनके पास ही स्पीकर्स रख छोड़ें। दूसरे, यह भी हो सकता है कि जैसे वेलंटाइन डे में टैडी-बेयर चलते हैं ऐसे ही बड़े-बड़े लंगूर वाले टैडी-लंगूर जगह-जगह मुंडेर पर बिठा दें। बस ये देखना कहीं बंदरों का कोई बुद्धिमान दल इस टैडी-लंगूर को घेर कर आक्रमण न कर दे और उसके सब चिथड़े-चिथड़े कर के पूरे ताजमहल में रुई-रुई बिखेर दे। यह बहुत ही क्रिएटिव आइडिया है। आइडिया देने में तो हमारा कोई मुक़ाबला नहीं है। आखिर हमने जुगाड़ का आविष्कार किया ही है।  अभी दुनियाँ को टैम लगेगा हमारी प्रतिभा को पह्चानने में, हम अपने वक़्त से आगे की सोच रखते हैं। इन शॉर्ट, कैसे हमने एक ही झटके में बंदरों और लंगूर दोनों को धता बता दी। हमारा कोई सानी नहीं। हम छंटे-छंटाए हैं। 


 

              

Thursday, September 26, 2024

व्यंग्य: इंडिया में पाकिस्तान

 


 

               न्यायपालिका ने इस बात का सख्त ऑबजेक्शन लिया है कि उनका कोई सदस्य यह कहे कि इंडिया का कोई भाग पाकिस्तान हो गया है या पाकिस्तान जैसा लग रहा है। सुना है जिस सदस्य ने यह कहा उन्होने माफी भी मांग ली है। भई ! सीधी-सीधी बात है क्या पाकिस्तान में भी कोई किसी इलाके को लेकर कहता होगा कि इंडिया जैसा लग रहा है अथवा ये इंडिया हो गया है। हालांकि यह बात लोग-बाग कनाडा के लिए और इंगलेंड के लिए कहते रहे हैं कि वहाँ किसी-किसी इलाके में जाओ तो लगता है पंजाब के किसी शहर में आ गए है।

 

      इतनी मशक्कत के बाद आज़ादी मिली है। पाकिस्तान अपने में खुश है। हमें अपने में खुश रहना चाहिए। हम पता नहीं क्यों अपनी खुशी को उनसे जोड़ लेते हैं, खासकर उनकी गुरबत से। मसलन हम इसी बात से खुश हो जाते हैं की वहाँ आटा इतना महंगा मिल रहा है। या फिर वह इतने विदेशी कर्ज़ के तले दबे हुए हैं। ऐसा कहने सुनने से अपने आटे का भाव हल्का हो जाता है साथ ही अपने कर्ज़-मर्ज पर ध्यान नहीं जाता।

 

                  वैसे भी भारत के कौन से शहर की यूरोप के किस शहर से तुलना करनी है अथवा भारत के कौन से शहर को यूरोप के किस शहर जैसा बनाना है यह नेता लोग डिसाइड करते हैं। इसमें न तो कार्यपालिका का और ना ही न्यायपालिका का कोई दखल है। नेता लोग ही अपनी सभा में यह डिस्क्लोजर देते हैं कि मुंबई को वेनिस बनाना है या वाराणसी को टोकियो। जिस तरह से शहर-शहर सड़कों पर जरा सी बारिश से पानी भर जाता है और बोट चलाने की नौबत आ जाती है अतः आप कह सकते हैं कि नेता जी ने तो एक शहर को वेनिस बनाने का वादा किया था यहाँ हर सूबे में न जाने कितने वेनिस हैं।

 

          यह घेटो मानसिकता ह्यूमन है। अल्पसंख्यक अपने समूह में रह कर सुरक्षित महसूस करते हैं। एक-दूसरे की मदद को तैयार रहते हैं। सबके सुख-दुख में शामिल रहते हैं। ये नामकरण भी अजीब है दिल्ली में एक बंगाली मार्किट है। मगर उसका बंगाल से कोई लेना देना नहीं है। इसी तरह चितरंजन पार्क है जहां बहुत से बंगाली भद्र लोक रहते हैं। तो क्या हम उसे मिनी बांग्लादेश कह दें ? ये सब नेता लोग का विशेषाधिकार है। ये उनको देखना है इस निर्वाचन क्षेत्र में बिहार के प्रवासी अधिक संख्या में हैं तो यहाँ से बिहार बैकग्राउंड के उम्मीदवार को उतारा जाये। यह वहाँ के लोगों को अधिक आकर्षित कर पाएगा। यहाँ से वैश्य समुदाय के लोकप्रिय व्यक्ति को टिकट देनी है तो यहाँ से किसी ब्राहमण को तो यहाँ से राजपूत को।

 

                अतः इसमें न तो न्यायपालिका को न कार्यपालिका को पड़ना चाहिए। पता नहीं दिल्ली को क्या बनाने का प्लान चल रेला है। लंदन अथवा न्यूयोर्क ? उस से कम में जमेगा नहीं। कहावत है जिसने लाहौर नहीं देखा वो जन्मया ही नहीं। हमारे यहाँ एक घरेलू काम के लिए महिला रखी गई।  वह मध्य प्रदेश के किसी सुदूर इलाके से थी उसने एक बार भोपाल देखा था। अब वो हमें खासकर पत्नीजी को दिन में चार बार भोपाल की बातें कर उलाहना दे देती थी। “आप ने भोपाल ही नहीं देखा ! आपको क्या बताना”। उसकी नज़र में मेरी थोड़ी-बहुत इज्ज़त थी क्यों कि मैंने भोपाल देखा था और दो एक जगहों के नाम लेकर अपने मार्क्स बढ़ा लिए थे।

 

            हाँ तो यह कहना कि फलां जगह पाकिस्तान है गलत है। अरे भाई कहना हो तो कहें फलां जगह न्यूयोर्क है, अथवा फलां जगह पेरिस है। टोकियो और वेनिस तो पहले ही क्लेम कर लिए गए हैं। अब विदेश के दूसरे शहर ढूँढने पड़ेंगे। जैसे कि रियो डि जिनेरो, बीजिंग, शिकागो, ग्रीनलेंड, ब्रूनाई, हमें अपना विज़न बड़ा रखना है अतः सभी शहर यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया के देखने और नामकरण के लिए अपनी लिस्ट में रखने हैं।

 

   आप भूल गए शायद ! थिंक ग्लोबल !  

Wednesday, September 25, 2024

व्यंग्य: वन नेशन-वन लड्डू

 


 

 

      आजकल वन नेशन-वन फलां-वन ढिकाना चल रहा है। वन नेशन के बाद कुछ भी लगा दो। जैसे वन नेशन-वन पार्टी। वन नेशन-वन नेता आदि आदि। इसी श्रंखला में लेटेस्ट है वन नेशन-वन लड्डू। यूं तो कहने को इस देश में भांति-भांति के लड्डू चलते आए है। यही हमारी आज की सबसे बड़ी राष्ट्रीय समस्या है। हमारे सारे देश का एक बहुत विशाल प्रॉबलम अगर आप पूछें तो बेरोजगारी नहीं, शिक्षा नहीं बस एक ही है वो है हम सत्तर साल में वन नेशन-वन लड्डू अचीव नहीं कर पाये हैं।

 

          आज भी देश में तरह तरह के लड्डू चल रहे हैं। कहीं बड़ी बूंदी के लड्डू हैं तो कहीं छोटी-महीन बूंदी के नायलॉन लड्डू हैं। कहीं बेसन के लड्डू हैं। कोटा शहर वालों से पूछोगे तो वो कहेंगे म्हारे राजस्थान में मलाई के लड्डू सुप्रीम हैं। पधारो म्हारे देश। लड्डू हमारी सशक्त और समृद्ध संस्कृति का प्रतीक है। हमारी ऐतहासिक धरोहर है। हमारी अस्मिता, हमारा धर्म लड्डू में निहित है। मन का लड्डू, मन में लड्डू फूटते हैं। शादी का लड्डू। पास होने पर लड्डू। चुनाव जीतने पर लड्डू। प्रसाद में लड्डू। दोनों हाथों में लड्डू। लड्डू के बिना भारतीयों के नित प्रतिदिन के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। लड्डू हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग है।

 

               चाँद पर पानी है या नहीं इस पर वैज्ञानिक न जाने कब से अनुसंधान कर रहे हैं। आपको रिसर्च करनी चाहिए लड्डू के बिना भारत में जीवन संभव है क्या? बेबी-शॉवर, हिन्दी में बोले तो गोद-भराई से शुरू कर दो लड्डू ही लड्डू। हर जन्म दिन पर। मुंडन-नामकरण पर। परीक्षा में पास होने पर। नौकरी लगने पर। शादी होने पर, पिता बनने पर। गोया कि उत्सव कोई हो लड्डू होना ही होना है।

 

    लड्डू नहीं जिस महफिल में वो फिर किसका निदान है ?

    लड्डू निशान खुशी का, लड्डू ईश्वर का वरदान है

 

                 अब आते हैं कि जिस देश में एक हिमालय है। एक नेता है। एक झण्डा है, एक राष्ट्रीय गान है वहाँ तरह तरह के लड्डू क्यों है ? क्या कारण है कि सबने अपने छोटे-छोटे लड्डू चला लिए। कहीं मोदक बनके सामने आता है, कहीं गोंद के लड्डू की आन-बान-शान है। प्रसूति में अलग लड्डू तो कहीं सुपर साइज़ का बोले तो आधा किलो का एक ही लड्डू। कहीं सरकारी स्कूलों के सामने बिकते राम-लड्डू हैं तो कहीं चूरन वाले खट्टे-मीठे लड्डू। इतने सारे लड्डू के चलते हमारी राष्ट्रीय एकता को बहुत हानि पहुंची है। शॉर्ट में बोले तो इतने सारे डिफरेंट लड्डूओं के चलते राष्ट्रीय एकता को बेहद खतरा है आप लोग समझ नहीं रहे हैं। जब तक आपकी समझ में आयेगा बहुत देर हो चुकी होगी। आप तब तक ये लड्डू-लड्डू खेलते रहो। 

 

           वक़्त आ गया है कि हम इस अखिल भारतीय समस्या को और न लटकाएँ और तुरंत एक हाई-पॉवर कमेटी का गठन करें। ONOL कमेटी, (वन नेशन-वन लड्डू कमेटी) इस पर एक गहन सर्वे के बाद देश का लड्डू डिसाइड किया जाये। ज़रूरत पड़े तो जनमत संग्रह कराया जा सकता है। हमें लड्डू को लेकर आपस में लड़ना नहीं है। मत भेद हो सकता है लड्डू भेद नहीं होना चाहिए। हम अपना लड्डू ले कर रहेंगे !

Tuesday, September 24, 2024

व्यंग्य: सेंट्रल विस्टा और बंदर हेंडलर्स



                                         





          इस इलाके में बंदरों का खूब उत्पात रहता है। ये बंदर लोग पीढ़ियों से इस इलाके में हैं। एक तरह से ये ही यहाँ के डोमिसाइल हैं। बाकी क्या नेता, क्या बाबू, सब आते-जाते रहते हैं। ऐसा कहा जाता है कि प्रथम राष्ट्रपति महोदय हनुमान-भक्त थे अतः वे अपनी पूजा-अर्चना के लिए राष्ट्रपति भवन प्रांगण में एक हनुमान मंदिर बनाना चाहते थे। तत्कालीन प्रधान मंत्री ने धर्म निरपेक्ष नीति की याद दिलाई और इस पॉइंट पर बात ठहरी कि आप बजाय हनुमान मंदिर के उनके सेनानी को फल-मिठाई खिलाएँ। इसका भी उतना ही पुण्य मिलेगा। तदुनसार बंदर-बंदरिया के एक जोड़े का प्रबंध किया गया। जब तक राष्ट्रपति महोदय रहे तब तक बंदर दंपति का गुजारा ठीकठाक चलता रहा। उनकी सेवानिवृति उपरांत इनके खाने के लाले पड़ गए। इस बीच इनका कुनबा भी बढ़ गया था। अब वो पूरे दल-बल के साथ आस-पास के भवनों में आने-जाने लगे। किसी का लंच, किसी के केले। आखिर बाबू-नेताओं  में भी तो इनके भक्त थे। जब उनको खाना नहीं मिलता तो वे क्रोधित हो फाइल फाड़ देते, नोट-शीट तार-तार कर देते। बाबू लोगों में इतना दम कहाँ कि इनका सामना कर सकते। बंदरों का खेल निर्बाध चलता रहा। बाबू लोग इनको देख कर ही भाग छूटते और सीधे अपने घर जा कर ही दम लेते। फैलते-फैलते अब उन्होने आस-पास के सारे दफ्तर, सारे भवन अपने कब्जे में ले लिए और अपने चाचा-ताऊ, भाई-भतीजों में आबंटित कर दिये। अब आपको पता चला मनुष्यों में ये भाई-भतीजावाद कहाँ से आया है। खिड़कियों में जाली-जंगले लगाए जाने लगे। ये एंट्री-पास, ये सिक्युरिटी गार्ड आदमियों के लिए है, बंदरों के लिए नहीं। अब ताज़ा खबर है यू.पी.एस.सी. को दो बंदर-हेंडलर्स चाहिए। आप पूछेंगे इतने सारे रिक्रूटमेंट करते हैं उन्हीं में से दो को डेपुटेशन पर ले लें पर पता चला है कि उन्हें ये लेटरल एंट्री के जरिये लेने हैं। हुआ क्या है कि यू.पी.एस.सी. के आसपास बहुत सारे बंदर उत्पात मचाते फिरते हैं। वे कमरों में घुस आते हैं। बेचारे अभ्यर्थी पहले ही ‘एक्जाम-एक्जाइटी’ से नर्वस होते हैं ऊपर से ये बंदर लोग भी उन्हें डराते हैं। सच है ग़रीब का कोई नहीं। देखो तो सही ! बंदर भी ग़रीब को ही सता रहे हैं। 


           परीक्षा लेने वालों को ख्याल आया कहीं किसी दिन ये बंदर लोग परीक्षार्थी को छोड़ उन्हीं पर न टूट पड़ें। अभी तक तो वो फाइल ही तितर बितर करते हैं। नोट-शीट फाड़ देते हैं। एक तरह से उनका काम हल्का कर देते हैं। दूसरे, कहने को रहता है कोई फाइल नहीं दिखानी हो, फाइल पर बैठना हो  तो कहने को रहता है “साब वो तो पिछले बंदर-अटैक में उनहोंने फाड़-फूड कर नष्ट कर दी"। अभी तक आग से फाइल, नोट-शीट आदि नष्ट की जाती थीं। अब बंदरों के चलते आपको आग लगाने की ज़रूरत ही नहीं रही।



          वानर सेना प्रभु राम के टैम से ही सदैव हमारी मदद को तत्पर रही है। कहीं पुल बनाना हो। सीते मैय्या का पता लगाना हो, संदेश पहुंचाना हो। वानर-श्रेष्ठ आपकी सेवा में हाजिर हैं। इसी श्रंखला में हो सकता है अफसरों को ये शक पड़ गया हो कि कहीं परीक्षार्थी बंदरों की मदद से नकल तो नहीं कर रहे। अब बंदरों पर तो केस भी नहीं चला सकते यहाँ तक कि कोई एफ.आई.आर. भी नहीं लिखेगा, यहाँ आदमी की एफ.आई.आर. तो लिखी   नहीं जाती तो बंदरों की कौन करेगा। लेकिन ज़रूरी था कि कमसेकम लगे तो सही कि यू.पी.एस.सी. एक्शन ले रही है।  अतः शुरुआत में दो बंदर-हेंडलर्स की रिक्ति निकाली हैं। ये कोई बेरोजगार ग्रेजुएट, एम.बी.ए. या इंजिनियर नहीं कि हजारों में आवेदन आ जाएँगे। असल में ये लंगूर के लिए है। अब लंगूर अनुबंध पर तो आने से रहे। वे कपि-वीर हैं। ज़ाहिर है इतने सारे लोग लेटरल एंट्री के जरिये लिए गए उनमें कोई नहीं मिला इसलिए अलग से ‘वांट’ निकाली है।  बंदरों ने सचिवालय देख लिया। बड़े से बड़े अफसर देख लिये। यहां तक कि मंसूरी में ट्रेनिंग भी देखी है। क्लास रुम में जाकर भी देख लिया। इस सबके बाद ये तय पाया कि जहां से ये लोग  भर्ती होते हैं वहीं जाकर नजदीक से देखा जाये। वाट्स राँग विद ब्यूरोक्रेसी ?



      मैं सोच रहा हूँ कि उनकी क्वालिफ़िकेशन क्या रखी जाएगी। तजुरबा क्या मांगा जाएगा? इंडिया में ही मिल जाएँगे या विदेश से लेने पड़ेंगे ? उनका काम आसान नहीं। कारण कि उन्हें क्रूअलटी एक्ट 1960 का पालन भी करना है:


                                अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम।।

                                सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम।।



        उधर बंदरों में अलग हलचल होगी कि हमें भगाने को हेंडलर्स आ रहे हैं। वो भी डार्विन को याद कर-कर के नयी-नयी युक्ति सोच रहे हैं।  कितनी सरकार आईं गईं आफ्टर-ऑल हम सत्तर साल से जमे हैं। 

    

                                 हमें भगा सके ये आदमी में दम नहीं 

                                आदमी हम से है, आदमी से हम नहीं