Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Saturday, September 14, 2024

व्यंग्य: बाइक-चोर कहने पर सिर में मारी ईंट

 



          अब आप किसी बाइक चोर को बाइक चोर नहीं कहें। इसमें आपकी जान को खतरा हो सकता है। देखिये भारत संस्कारी लोगों का देश है हमारे यहाँ अंधे को अंधा नहीं कहा जाता उसे सूरदास कहा जाता है। अतः; आप भूल कर भी बाइक चोर को बाइक चोर नहीं कहें इसी में आपकी सेफ़्टी है। ऐसा न हो की बाइक तो गई गई आप अपने सिर पर ईंट और मरवा लें। सच है शालीनता का दामन नहीं छोड़ना है। मेरी परेशानी दूसरी है, हम बाइक चोर को फिर क्या कहें ? अंधे का तो आपने कह दिया सूरदास। इसी तर्ज़ पर अब बताएं बाइक चोर को क्या कहा जाये ? 

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                            एक सुझाव तो यह है कि जैसे आजकल सेकेंड-हेंड कार को अब प्री-ओंड कार कहा जाता है अतः ऐसे ही बाइक चोर भाईसाब के लिए भी समुचित आदरसूचक सम्बोधन होना चाहिए। ‘प्रेसिंग बाइक नीड’ मैन कहा जा सकता है। अँग्रेजी में बोलने से वैसे ही एक रिस्पेक्टेबिलिटी आ जाती है। कम से कम बाइक चोर से तो बेहतर है और आपका सिर भी ईंट से सुरक्षित रहेगा। इसी तरह के अन्य सम्बोधन दिये जा सकते हैं। आजकल वैसे भी नए नाम देने का रिवाज चल रहा है। इससे उनमें एक आत्मसम्मान की भावना आएगी। वे अपने काम को गंभीरता से लेंगे और कोई सस्ती चालबाजियाँ नहीं करेंगे।

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कुछ सुझाव हैं: 

1. जेबकतरे = पॉकेट फ़्रेंड्स 
2. चोर = प्रेसिंग नीडर (नीड से ) 
3. डाकू = ग्रुप नीड लीडर्स
4. कार चोर = वीकल फेसिलिटेटर 
5. उठाईगीरे = शॉप एलीवेटर्स
6. बाइक चोर = बाइक फेसिलिटेटर 
7. मोबाइल चोर = सेलुलर आर्टिस्ट 
8. साइबर क्राइम = कम्प्युटर आर्टिस्ट 
9. नकल कराने वाले = एस.डब्लू.एस. (सिंगल विंडो सॉल्वर्स)
10. बेंक वाले फ्रॉड = बेंक आर्टिस्ट

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              मैं समझता हूँ ये सम्बोधन सम्मानजनक हैं। आखिर ये भी हमारे समाज के अभिन्न अंग हैं। एक कहावत है कि समाज अपराधी बनाता है और फिर अपराधी अपराध करता है। अतः ज़रूरी है कि उनमें सम्मान के साथ साथ संभावनाओं की एक लहर, एक उमंग का संचार हो। आखिर तो ये हमारे ही राष्ट्र के 'असेट' हैं। हमारी समावेशी योजनाओं का लाभ उन तक पहुंचना ज़रूरी है। हम उन्हें 'नेगलेक्ट' नहीं कर सकते। दंड, जुर्माना, जेल, मुक़दमेबाज़ी किसी समस्या का हल नहीं है। ज़रूरत है उनके हृदय परिवर्तन की। ताकि उनको समाज का एक उपयोगी सदस्य के रूप में 'ग्रूम' किया जा सके। आजकल उनके लिए एक नया शब्द चला है डेमोग्राफिक डिविडेंट बस तो वो ही हैं ये लोग। हमें इस मामले में दूरदृष्टि रखनी चाहिए। उनके अहम को चोट नहीं पहुंचानी है वे सेंसिटिव होते हैं और उन से ज्यादा आपका सिर सेंसिटिव होता है वो ईंट की मार नहीं सह पाएगा। हमारे लिए तो वो बाइक चोर ही नहीं आपका सिर भी राष्ट्र का असेट है ।

व्यंग्य: पैरों से गूँथा जाता है मोमोज़ का आटा

 


 

             अखबार में ये खबर सुर्खी बन कर छायी है कि मोमोज का आटा पैरों से गूँथा जाता है। अब इसमें नया क्या है ? या फिर बोलें तो ताज्जुब की क्या बात है ?  यह बात सर्वविदित है कि ब्रेड हो, रस्क हों, यहाँ तक कि होटलों और ढाबों में जहां भी बड़ी मात्रा में आटा लगता है वहाँ उसे पैरों से ही गूँथा जाता है।

 

                   यह बात छापी तो इस तरह से है, न जाने कितनी बड़ी खोज करी गई है। मुझे लगता है इस खबर का तअल्लुक इस बात से ज्यादा है कि पाठक लोग मोमोज न खाएं और जब भी वो मोमोज खाएं उन्हें आटा गूँथते मजदूरों के पाँव याद आयें। मात्र मजदूरों के गंदे पाँव ही न याद आयें वरन पसीने से लथपथ मजदूरों की छवि भी उनके जहन से गुजरे। तभी ये मोमोज खाना छोड़ेंगे। दरअसल मोमोज के मार्किट में आ जाने से बाकी फास्ट फूड पर इसकी गाज़ गिरी है। इन दिनों आपने ऐसी खबरें खूब पढ़ी होंगी कि मोमोज में फलां जानवर का मीट मिला, मोमोज में कीड़े मिले, मोमोज में मीट कच्चा था, मोमोज खा के 50 बीमार। यह सब एंटी-मोमोज लॉबी की चालें हैं। आजकल नुक्कड़-नुक्कड़ आपको मोमोज की गाड़ी (कार्ट) खड़ी दिख जाएंगी जहां प्राइवेट में, मल्टी नेशनल्स में और कॉल-सेंटर में रात की शिफ्ट में काम करने वाले रात्रि-कर्मी श्रमिक, मेनेजर, इंचार्ज, रीजनल मेनेजर (होते सब साइबर-कुलीहैं) लोग भुक्खड़ की तरह टूट पड़ते हैं। मोमोज की हाथगाड़ी को अधिक ऑथेन्टिक बनाने को इसको कोई महिला खासकर नॉर्थ ईस्ट वाली चलाती होतीं हैं। सभी लड़के-लड़कियां “आंटी ! आंटी !” कर के झुंड लगा लेते हैं। ऐसी गाड़ी में आपको मटन वाले मोमोज, चिकन वाले मोमोज और वैज़ मोमोज मिलते हैं। इन सबसे अलग एक श्रेणी स्पेशल मोमोज की भी होती है। इन सब में अंदर की   फिलिंग की अभी बात नहीं हो रही। अभी तो इस बात का रोना है कि इन्होने हमें समझा क्या है ? हमें अपने और अपने मजदूरों के गंदे-संदे पाँव से गूँथे हुए आटे के बने मोमोज खिलाते हैं। तभी न समाज में धरम-करम का इतना क्षरण हो रहा है।

 

             बताओ तो ! सुन के कैसा तो भी लगता है। यूं वाइन भी पाँव से मसले गए अंगूरों से बनती है मगर वाइन की बात और है उसके अंगूरों को लड़कियां अपने नाज़ुक पाँवों से गूँथती हैं। कमसेकम फ़ोटोज़ में तो ऐसे ही दिखाते हैं। वाइन का टार्गेट ग्रुप और उद्देश्य कुछ और होता है। मैं भी कहूँ लोग ज्यादा वाइन पीकर इसके-उसके पाँव पर गिरते-लड़खड़ाते क्यूँ फिरते हैं।

 

                 पर फिर भी ! घी-मक्खन के इस देश में जहां दूध की नदियां बहती थीं। जहां “पानी मांगो दूध देंगे....” कहावतें थीं वहाँ सड़े-गले मोमोज खा-खा कर नई पीढ़ी बड़ी हो रही है और तरह तरह बीमारियों का शिकार हो रही है। लोगबाग जूस तो अब तभी पीते हैं जब बीमार होते हैं या जब डॉक्टर कहता है। मोमोज खा-खा कर बढ़ती हुई ये पीढ़ी क्या आश्चर्य है कि मोमोज की तरह ही लुजलुजी और नाज़ुक हो गई है। ऊपर से सिगरेट-तंबाकू ने रही-बची कसर पूरी कर दी है। साथ में अपनी एक्स... वाई... ज़ेड का भी ख्याल रखना है। ज़िंदगी ई.एम.आई. पर चल और पल रही है। ऐसे में दोनों टाइम मोमोज और मोमोज वाली आंटियों का ही भरोसा है।

 

            मोमोज वाली आंटी ज़िंदाबाद ! जब तक सूरज चाँद रहेगा....' मोमोज अमर रहें

Friday, September 13, 2024

व्यंग्य: जल-भराव के कारण रिश्तेदार घर आने से कतरा रहे

 


 

                  लोग भी अजीब हैं। जहां उनको खुश होना चाहिए और इंद्र देव का शुक्रिया अदा करना चाहिए वहाँ वे शिकायत भरे लहजे में कह रहे हैं की उनके इलाके में जल भराव हो गया है और उनके रिश्तेदार उनके घर आने से कतरा रहे हैं। भाई साब ! आप खुशनसीब हैं जो ऐसे इलाके में रह रहे हैं जहां जल भराव हो रखा है। बाकी इलाकों में देखो कैसे रिश्तेदार टूटे पड़ते हैं। वो किसी न किसी बहाने से लिस्ट बना कर अपने-अपने रिश्तेदारों के यहाँ जाने की प्लानिंग करते रहते हैं। प्लानिंग ही नहीं करते बल्कि आ भी धमकते हैं। कई-कई दिन रह कर जाते हैं, कारण कि कोई जल भराव नहीं। ये आपके देखने पर है कि आप जल भराव एक समस्या है या फिर एक वेलकम ईवेंट। सच तो यह है कि जहां जल भराव नहीं है वहाँ रहने वालों के दुख की कोई सीमा नहीं।

 

        एक जाता है तो आता है मकान में दूसरा

       मेहमानों से खाली उसका मकां रहता नहीं 

 

वो तो भला हो नई सरकार का कि नौकरियाँ लगभग-लगभग खतम ही कर दीं हैं। नहीं तो पहले इतनी भरमार इन्हीं लोगों की रहती थी। कोई लिखित परीक्षा देने आ रहा है, कोई किसी पोस्ट का इंटरव्यू देने आ रहा है। सब मुंह उठाए अपने दिल्ली, मुंबई, कोलकाता के चाचा-ताऊ-फूफा जी को ढूंढते ढूंढते आ पहुँचते।

 

              भला हो जल भराव का। यूं ही नहीं कहावतें बनीं हैं जल ही जीवन है। निसंदेह जल भराव है तो हमारा जीवन भले इंडोर ही सही, बड़ा आरामदायक हो रखा है।

 

           घर नहीं आते हैं वो कीचड़ के डर से

          इलाही ये कीचड़ दो-चार माह तो जाये न घर से

 

देखिये ये कोई शिकायत करने जैसी बात नहीं है। ये तो खुश होने वाली बात है। इस बात का तो उत्सव मनाना चाहिए। इसकी शिकायत करे तो वो रिश्तेदार करे जिनकी दुकान इस जल भराव के कारण बंद हो गई। कहीं आने-जाने के लायक नहीं रहे। हमारे देश में अतिथि देवो भव: की एक दीर्घ परंपरा रही है। इस परंपरा में जल भराव से डेंटज़रूर लगा है। मगर परम्पराएँ टूटती-जुड़ती रहती हैं। क्या पता जल भराव एक नई परम्परा बन जाये। जब पता चले कोई आने वाला है आप जल्दी से अपने घर के आसपास कीचड़ कर लें, बहुत आसान है, नल खुला छोड़ दें या फिर पाइप लेकर पानी इधर-उधर बेतरतीब फैला दें। आप चाहें तो डिस्कवरी चेनल के कुछ फोटो अपने पास स्टॉक में रख लें जब किसी के आने की आहट हो फौरन एक फोटो निकाल चस्पा कर दें। और बता दें कि अभी बहुत संगीन हालत है और जब हालात सुधरेंगे आप इत्तिला कर देंगे। बस चेप्टर क्लोज़। अगर आपके इलाके में पानी की किल्लत हो तो वांदा नहीं, पैसे देकर पानी का टेंकर मंगा लें, सौदा फिर भी सस्ता पड़ेगा, यकीन जानें ! मेरा आज़माया हुआ फार्मूला है।   

Wednesday, September 11, 2024

व्यंग्य: सूबे में बाढ़, नेताजी हीरोइन के साथ बिज़ी

 

                     


 

            सूबे में बाढ़ को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। सब ओर त्राहि-माम व्याप्त है। बाढ़ के हालात होते ही ऐसे हैं। चारों ओर पानी ही पानी दिखाई देता है और सबसे पहला संकट पेय जल पर ही आता है। वो कहावत है न “वाटर वाटर एव्रीवेयर नॉट ए ड्रॉप टु ड्रिंक” जब पानी को लेकर ऐसा गदर मचा हुआ हो तो हमारे देश में मंत्री जी की तरफ देखने का एक रिवाज है। वो क्या कहते हैं ? क्या करते हैं ? कैसे केंद्र सरकार से रिलीफ़ या रिलीफ़ का वायदा लेकर आते हैं ? कैसे कमसेकम पचास हज़ार करोड़ के पैकेज की घोषणा होती है। और फिर सब अपने-अपने तीये-पाँचे में बिज़ी हो जाते हैं। बाढ़ गौण हो जाती है। पानी उतर जाता है।

 

                मगर यह क्या ? यहाँ तो मंत्री जी ही नदारद मिले। न कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस, न हवाई दौरा, न कोई ट्विटर, न केंद्र को कोई चिट्ठी-पत्री।  सब एक दूसरे से पूछते फिर रहे हैं मंत्री जी कुठे आहे ? मंत्री जी बगितले काय?  पता चला मंत्री जी एक फिल्मी हीरोइन के साथ बिज़ी हैं। दरअसल उस हीरोइन को बाढ़ के पानी की रोक-थाम का बहुत तजुरबा है। कोई कैसी भी बारिश हो, बाढ़ हो ये अभिनेत्रियाँ पानी को भी पानी-पानी कर देने में सक्षम होती हैं।

 

               अब आलोचकों को तो कोई मुद्दा चाहिए होता है वो इस बात को ही ले उड़े। गोया मंत्री जी हीरोइन के साथ राज्य की गंभीर बाढ़ की स्थिति पर चर्चा और बाढ़ की रोकथाम की योजना को अंतिम रूप नहीं दे रहे थे बल्कि कोई ऐश मज़ा कर रहे थे। हमारे देश में लोगों की मानसिकता कितनी संकीर्ण है। अब हीरोइन भी आखिर भारत की सम्मानित नागरिक होती है। आयकर, जी.एस.टी. सब देती हैं अतः यह उनका अधिकार और कर्तव्य दोनों है कि वे राज्य की प्रगति में सहायक हों अपने अमूल्य विचार और सुझाव आलाकमान के समक्ष प्रस्तुत होकर रखें।

 

        लोगों को इसमें भी पॉलिटिक्स करनी है अरे भई ! कोई तो क्षेत्र हो जिसमें आप पॉलिटिक्स न करें। मैं हीरोइन के साथ अपने कॉन्फ्रेंस रूम में गहन चिंतन में लीन था। इतनी गंभीर चर्चा को आप पब्लिक में ऐसे उछाल रहे हैं कि जैसे आपने हमें कॉन्फ्रेंस-रूम में नहीं बल्कि बेड-रूम में देख लिया हो। अरे भई ! राज्य के कल्याण की बात होगी तो आप मुझे कभी पीछे नहीं पाएंगे।

                 कौन है ये लोग ? कहाँ से आते हैं ऐसे लोग ? जो एक मंत्री को सिने-अभिनेत्री के साथ देख लें तो अपने वन-ट्रेक माइंड से सिर्फ उल्टा ही सोचते हैं। ये ही हैं वो लोग जो नारी को महज़ एक वस्तु, एक चीज़ समझते हैं, उसका कमर्शियलाइजेशन करते हैं । मैं तो सिने-अभिनेत्री से वो गुर पूछ रहा था कि कैसे वो अपनी फिल्मों में गहरे पानी के झरने में उतर जाती है, गाने गाती है और हँसते-गाते वापिस निकल आती है जबकि ये हमारे सूबे के लोग हैं सब कोरस में बचाओ-बचाओ के अलावा और कुछ बोल नहीं पाते। आप इतने प्यारे-प्यारे गीत गाती हैं और गाने में इतनी व्यस्त हो जाती हैं कि आपको अपने वस्त्रों तक की सुधि-बुधि नहीं रहती। एक ये सूबे के लोग हैं कि बाढ़ आई नहीं और ये चिंता से भर उठते हैं कि उनके कच्चे मकान का क्या होगा ? उनकी फसल का क्या होगा ? उनके बच्चे के स्कूल का क्या होगा ? उनके मवेशियों का क्या होगा ? उनकी रोटी-पानी का क्या होगा ? कैसी मानसिकता है ये ? मैं इन्हीं बातों को लेकर चिंतित हूँ कि कैसे मेरे लोग भी इस सिने-अभिनेत्री के माफिक बारिश को, बाढ़ को एंजॉय कर सकें। और एक ये विपक्ष वाले हैं जो हम दोनों को लेकर देवा रे देवा ! कैसी-कैसी बातें करते हैं। कोई शर्मदार इंसान हो तो ऐसी बातें सुनकर शर्म से डूब कर ही मर जाये।   

 

 

व्यंग्य: गंगाजल का प्रेशर लो , तीन हज़ार परिवार परेशान

 


            बरसों तक हमें यह कह-कह कर बहलाया गया कि जल्द ही आपका भाग्य खुलने वाला है। आपका गंगाजल आपकी ड्योड़ी पर ही आपको मिलेगा। अब आपको ये जमुना और ताल-तलैया का पानी पीने की कोई ज़रूरत नहीं। 


             हम सब खुशी के मारे किलकारियाँ भरने लगे। गंगा मैय्या हमारी कुटिया में पधार रहीं हैं। कहाँ तो लोग मृत्यु के समीप होते हैं तब बूंद दो बूंद गंगाजल को तरसते हैं और यहाँ हमारे जीते जी ही गंगा हमारे आँगन में !  खूब पियो ! नहाओ ! छपाक-छपाक करो। वांदा नहीं। मगर हमारी खुशी शॉर्ट लिव्ड बनके रह गयी पहले तो इतनी दिलासा दी। अब कह रहे हैं कि प्रेशर लो है अब हम क्या करें। हो न हो हमारी सोसाइटी में ही कोई पापी रहता है जो गंगा मैय्या अपना प्रेशर लो कर दी हैं। गंगा मैय्या आप तो अपने पूरे रौद्र रूप में आइये और पापियों का नरसंहार कीजिये। ये कौन है जिसकी वजह से आप झिझक रही हैं और अपने फुल प्रेशर में नहीं आ रही हैं। अखबार में आया है कि तीन हज़ार परिवार परेशान हैं। हे माते ! तीन हज़ार परिवार का अर्थ है लगभग 15 हज़ार परिवार करुण क्रंदन कर रहे हैं आपके वास्ते। मैय्या जल्दी आओ। ये 'लो-हाई' हम नहीं जानते। हम तो इस इलाके में फ्लैट ही इसलिए खरीदे कि प्रातः नित-प्रतिदिन आपके दर्शन हुआ करेंगे। आचमन आप के पवित्र जल से ही हुआ करेगा।

 

         देखिए माते ! ये जो बोतल में भर-भर के पानी बेच रहे हैं। सब नकली है। आपके नाम पर कितना छल-प्रपंच हो रहा है आप को खबर भी नहीं। जब इन पापियों की अस्थियां  विसर्जन को आपके पास आयें, आप देख लेना। आपको स्वच्छ करने को इतने फंड आबंटित हुए हैं, इतने फंड आबंटित हुए हैं कि आप अंदाज़ नहीं लगा सकतीं और दुष्ट पापी आपके फंड के नाम से अपनी-अपनी पॉलिटिक्स चमका रहे हैं। आप भी कब तक इनके पाप धोएंगी। अभी तो तीन हज़ार परिवार परेशान हैं एक समय आयेगा जब इनको अपनी गलती का एहसास होगा कि इन्होंने आपको केवल और केवल लिप-सर्विस दी है। फिल्मों में, समाज में आपकी तारीफ में सैकड़ों गीत हैं मगर आपकी खोज खबर लेने वाले कोई नहीं। आप जस की तस हैं। मैं समझ सकता हूँ आप कितनी परेशान होगी।

 

इन्सानों ने आपके स्वरूप को गंदा करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है। कैमिकल फैक्ट्री हो या शहर की समस्त गंदगी, क्या जीवित क्या मृत सब आपको गंदा करने में लगे हैं। कहाँ गए वो दिन जब लोग आपकी कसम उठाते थे। घर में पूजा गृह में आपको रखते थे। आपकी कुछ छींटे ही अपवित्र को पवित्र करने को पर्याप्त होते थे। अब तो लोग कसम झूठी खाते हैं, गंगा जल के नाम पर सादा दूषित पानी बेच रहे हैं। अब ये जो 'प्रेशर लो' हुआ है इसमें भी उन्होने अपनी कमाई का कोई न कोई साधन ढूंढ लेना है। आपका प्रेशर 'लो' नहीं हुआ इन लोगों ने आपकी प्रेस्टीज़ 'लो' की है। आगे आप देख लेना ! इनको मुक्ति नहीं मिलनी चाहिए ! इन्हें भी आप 'लो' से 'लो' कीटाणु बनाने का उपक्रम करना।

व्यंग्य: नेता जी का पी.ए. बनाने को ठगे 14 लाख

 


 

           अखबार में खबर है किसी ने एक बंदे को यह कह कर 18 लाख ठग लिए कि उसको वह नेता जी का पी.ए. लगवा देगा। मैं सोच रहा हूँ जिसका पी.ए. बनने को इंसान 18 लाख देने को तैयार हो गया उस नेता ने खुद नेता बनने को  कितने लाख या कितने करोड़ दिये होंगे। ये प्रकरण इस बात को भी साबित करता है कि लोग पी.ए. जैसी नौकरी पाने को 18 लाख दे रहा है उसके मन में क्या रहा होगा। उसने भी तो कोई योजना बनाई होगी कि कैसे कितने वक़्त में ये 18 लाख वसूल करने हैं। अर्थात कब कितने समय में ब्रेक ईवन हो जाएगा। उसके बाद कितने और कमाने हैं। बहुत महत्वाकांशी मंसूबे रहे होंगे। मगर सब जाली निकला। यह प्रकरण आईना है हमारे समाज का।

 

                  मैं सोच रहा हूँ उसने ये 18 लाख क्या कह कर इस इंसान से ऐंठे होंगे। किसको देने हैं ? कौन लेगा ? क्या ये किश्तों पर दिया है या एक मुश्त। ज़ाहिर है कैसे-कैसे सब्ज़बाग़ देखे-दिखाये गए होंगे। यूं लगता है ये बंदा जिसने 18 लाख दिये हैं वो भी कोई पहुंचा हुआ ही होगा। मगर ये तो बहुत बुरा हुआ। शराफत का ज़माना ही नहीं। अब वो कैसे कैसे लौटाएगा या फिर किसी और का पी ए बनाने का अरमान रखेगा। क्या पता अब वो खुद किसी को अपना पी ए रख ले खासकर जो उसके 18 लाख उसको वापिस दिलवा सके। मोडस-ऑप्रेंडी तो पता चल ही गई है। आगे वह खुद मार्ग प्रशस्त कर लेगा। कर लेना चाहिए। कैसा पी.ए. है जी ? क्या पता ये उसका प्रेक्टिकल टेस्ट हो ! क्या कहते हैं उसे ? हाँ ट्रेड टेस्ट !

      जितनी भी ठग विद्याएँ हैं सबके मूल में है इंसानी लालच। पैसे दुगने- तिगुने करने का भ्रम और वो भी जल्द से जल्द। अब वो ज्यादा शोर मचाएगा तो हो सकता है पुलिस उसी को रिश्वत देने के जुर्म में गिरफ्तार कर ले। अब तो पुलिस जानती भी है कि ये जब पी.ए. बनने को 18 लाख दे सकता है हमारे से छूटने को नौ लाख तो देगा। कई बार मैं सोचता हूँ ये सज्जन क्या रोल- मॉडल प्रस्तुत कर रहे हैं अपने बच्चों को। उस पर तुर्रा ये कि जब ऐसे लोग पकड़े जाते हैं तो सब तोहमत अपने बीवी-बच्चों पर ही डाल देते हैं “ये सब मैं तुम्हारे लिए ही तो कर रहा हूँ”।

  

       यह जो एक क्लास पैदा हो गई है “मैं तुम्हारा काम करा दूंगा...इतना लगेगा”। आप खुश ! घर बैठे-बैठे काम हो जाता है। ड्राइविंग लाइसेन्स हो, राशन कार्ड हो, आधार कार्ड हो, पैन कार्ड हो। बीमा हो, टेक्स हो। बस एक फीस, एक गुडविल मनी लगेगी। मुंबई की भाषा में जिसे गुड लक मनी बोलते हैं। बस अब पूरे समाज का दारोमदार इसी बात पर है कि आप अपने लक को गुड बनाने को कितना गुड़ डालने को तैयार हो। आपको तो पता ही है गुड़ एक खाने वाली विशुद्ध भारतीय वस्तु है और गुड़ खाने से डायबिटीज़ भी नहीं होती।

Tuesday, September 10, 2024

व्यंग्य: 10 कि.मी. की दौड़ घटा कर की 1.6 कि.मी.

 


                         कांस्टेबल की भर्ती हमारे यहाँ ऐसे होती है जैसे कांस्टेबल नहीं ब्लैक-कैट कमांडो भर्ती हो रहे हैं या फिर अगली ‘मिशन इम्पॉसिबल’ के लिए टॉम क्रूज भर्ती किए जा रहे हों। इस चक्कर में एक दो नहीं, दो-चार नहीं पूरे एक दर्जन उम्मीदवार 10 कि.मी. लंबी रेस में ही जान से हाथ धो बैठे। तब कहीं जाकर अधिकारियों के कान पर जूं रेंगी और 10 किलोमीटर की रेस को घटा कर 1.6 किलोमीटर किया गया।

 

           पहले ही क्यूँ नहीं इस रेस को 1.6 कि.मी. रखा गया ?  ये 10 कि.मी. किसने और कब निर्धारित किया ? पुलिस के लिए भर्ती हो रही है या चोरों के लिए। कांस्टेबल को आपका माल लेकर नहीं भाग छूटना है। यह रेस का चक्कर बहुत पुरातन और आउटडेटेड है। अब चोर पैदल नहीं भागते। वो बाइक से आते हैं, कार से आते है, कितनी बार पढ़ने में आता है कि फ्लाइट  से आते-जाते हैं। आपको बाइक की रेस करानी चाहिए, आड़ी-तिरछी बाइक चलाना जो जानता हो। स्पोर्ट्स-बाइक, सुपर-बाइक के गियर सिस्टम से वाकिफ है कि नहीं। उसी तरह कार रेस में माहिर होना चाहिए। भई आप कॉन्स्टेबल के लिए भर्ती कर रहे हैं या अगले जेम्स बॉन्ड का चयन कर रहे हैं।

 

       अब क्राइम बहुत हाई-टैक हो गया है। यह साइबर क्राइम का ज़माना है आप कुत्ता घसीटी में लगे हैं। अब अपराधी बहुत सोफिस्टीकेटेड हो गए हैं। वो राजकुमार साब का डाॅयलाॅग सुने हैं कि नहीं “जानी ! हम आँख से सुरमा नहीं चुराते, हम पूरी आँख ही चुरा लेते हैं” तो आजकल बिना आउटडोर आए ही पूरा का पूरा खाता साफ किया जा सकता है। आप इनका रिटन टेस्ट लीजिये। आप इनको लाइव-सिचुएशन दीजिये, आप इनका प्रेक्टिकल लीजिये। ये क्या कि आव देखा न ताव दौड़ा दिया बेचारों को। आपका क्या ख्याल है ? नौकरी लग जाने के बाद ये ऐसे दौड़ेंगे ? दौड़ पाएंगे ?

 

            खंजर थामने के काबिल नहीं

           ये बाजू हमारे आज़माये हुए हैं

 

         एक दफ्तर में अगलों ने क्लास फोर के सलेक्शन में एक बोरी मँगवा कर रखी हुई थी हरेक से उसको उठाने को कह रहे थे। एक अन्य अधिकारी ने देखा तो बरबस ही कह उठा “अभी तो आप बोरी-बोरा जो कहोगे, सब उठा लेगा, एक बार नौकरी लग जाये फिर उस से झाड़न भी नहीं उठने का। एक क्लास फोर की लिखित परीक्षा में प्रश्न पूछा गया ‘गांधी जी का राजनैतिक गुरु कौन था?’ इसका कर्मचारी यूनियन ने बहुत ऑबजेक्शन लिया उनका कहना था “साब ! आप इनसे मजदूरी करवाओगे, फांवड़ा-गैती चलवाओगे या राजनीति करवाओगे? दरअसल यह सब इसलिए होता है कि एक रिक्ति के लिए 500 उम्मीदवार आवेदन देते हैं। अब कोई तो कसौटी रखनी ही पड़ेगी। लिखित परीक्षा के साथ ट्रेजेडी यह है कि कितना ही टाइट बनाओ 10 में से 10 परीक्षा में पेपर लीक कर जाता है। अब आप ही बताओ क्या किया जाये ? दौड़ाओ नहीं। कठिन पेपर मत बनाओ। फिर ? उम्मीदवार की हाइट-वेट के आधार पर सलेक्ट कर लें ?  या काले-काले ले लें और गोरियां नू दफा करें ! गरीब को लेने लगोगे तो आपके पास इतने गरीब आ जाएँगे अपने-अपने सार्टिफिकेट लेकर कि आपको लगेगा पूरा देश ही गरीब हो गया है। इस प्राॅसस में सर्टिफिकेट बनाने वाले बाबू की गरीबी जरूर हट जाएगी। सब तरह के सर्टिफिकेट अब सुलभ शौचालय से भी अधिक सुलभ हैं। आप कुछ भी करो पर बेचारे कॉन्स्टेबल उम्मीदवारों को दौड़ाओ मत। दौड़ा भी रहे हो तो सिर्फ क्वालिफ़ाइंग रखो। वे पहले ही कुपोषण के शिकार हैं, किस के घर में क्या समस्या चल रही है। दो जून की रोटी नसीब हो रही है कि नहीं ? उसने कब से पेट भर खाना खाया है, क्या खबर ? 

 

          आप गरीब को दस किलोमीटर दौड़ा दिये। उसके लिए तो ये ज़िंदगी की दौड़ साबित हो रही है और इसी प्रपंच में एक दर्जन उम्मीदवार चल बसे हैं और ये पहली बार नहीं हुआ। कुछ करें सर जी ! भले आपके पहले ही उस से इंडेमिनिटी बॉन्ड साइन कराने से कि आपको ट्रायल के दौरान चोट लगने / मृत्यु होने पर आप ज़िम्मेवार नहीं अपना दामन बचा लेते है पर क्या अपनी आत्मा बचा पाते हैं ?

Sunday, September 8, 2024

व्यंग्य: नौयडा का अपना कल्चरल कैलेंडर होगा

 


 

(नौकरशाही ने फैसला लिया है नौयडा का पृथक कल्चरल कैलेंडर अपनाने का)

 

         

      एक कहावत है ‘जब मैं कल्चर शब्द सुनता हूँ तो अपनी बंदूक की ओर बढ़ता हूँ’। पहले ऐसा कहा जाता था कि भारत में एक ही कल्चर जानी जाती है और वह है एग्रीकल्चर (इसे प्रायः पंजाब के लिए भी विनोद में कहा जाता रहा है) अब देखिये कल्चर बहुत ही मज़ेदार टर्म है। यह कभी पुराना नहीं पड़ता। जब कुछ नहीं था तब कल्चर थी, आज जब लगता है सब कुछ है, भले ई.एम.आई. पर सही, यह भी कल्चर का हिस्सा है। भूख भी कल्चर है, ठूंस-ठूंस कर खाना भी कल्चर है। गोया कि कोई एक रिवाज कल्चर है तो ठीक उसका उलट भी कल्चर ही कहलाता है।

 

        अब आप देखिये पहले होटल/रेस्टोरेंट में खाना ऐश और लक्जरी का प्रतीक था।  मजबूरी अथवा बतौर अय्याशी होटलों में खाया जाता था। जबकि आजकल बात-बात पर या कहिए हर बात पर होटल याद आता है। उसी तरह पहले ट्यूशन पढ़ना अच्छा नहीं माना जाता था। ऐसे बच्चों को  अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। आज अगर आप अपने बच्चे को कोचिंग नहीं कराते हैं तो आप अपने ही बच्चों के दुश्मन हैं।

 

          एक क्षेत्र विशेष की कल्चर  दूसरे हलके में भी कल्चर मानी जाये ऐसा जरूरी नहीं। बहुत कन्फ़्यूजन रहता है। इसी कन्फ़्यूजन में इजाफा करने को अब तय किया है कि नौयडा का अपना अलग कल्चरल कलेंडर बनाया जाएगा। नौयडा की ट्रेजिडी ये है कि यह यू.पी. में है या दिल्ली में है। यहाँ दिल्ली की कल्चर चलेगी/मनाई जाएगी या फिर यू.पी. के रीति-रिवाज मान्य होंगे। मनाए जाएँगे।

 

           अब सवाल ये है कि मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं। इसका हल नौयडा ने निकाल लिया। नौयडा ने डिक्लेयर किया है कि हम अपना अलग ही कल्चर रखेंगे...हम अपना अलग ही कल्चरल कलेंडर रखेंगे। ये हुई न बात। इस कलेंडर में मैं चाहूँगा कि सभी वर्गों का ख्याल रखा जाये। जैसे कि आटो वालों का, उन्हें वहीं नहीं जाना होता जहां आप जाना चाहते हो। अगर जाना भी पड़ जाये तो वह दुगना किराया मांगता है कारण कि बक़ौल उसके, लौटते में सवारी नहीं मिलती। जो आपका मोबाइल छीन कर ले भागते हैं उनके लिए भी एक दौड़ का आयोजन (क्रीडा दिवस) पर किया जाया करेगा। पुरस्कार स्वरूप तरह-तरह के मोबाइल रखे जाया करेंगे यथा फर्स्ट प्राइज़ लेटेस्ट आई-फोन बाकियों को अन्य ब्रांड के फोन दिये जाएँगे और सांत्वना पुरस्कार में ईयर-पॉड दे दिये जाएँ।  कार छीन कर भागना, साथ-साथ लंबी कूद, ऊंची कूद, लिफ्ट ले कर लूटने की प्रतियोगिता भी कराई जाएँ। आए दिन किसी न किसी की सवारी गाजे-बाजे और फुल वॉल्यूम डी.जे. के साथ जुलूस की शक्ल में निकाले जाती है इस बात को भी कल्चरल कलेंडर में शामिल करना चाहिए।  

 

         तेज़ रफ्तार गाड़ी चलाना, आड़ी-तिरछी गाड़ी चलाना, जान हथेली पर रख कर ओवर टेक करना भी नौयडा की कल्चर का अभिन्न अंग है। इसके साथ कॉलेज फ़ेस्ट की तरह नॉन-स्टॉप गाली देने के लिए भी एक दिन तय होना चाहिए। खरी-खरी गाली देना नौयडा की कल्चर है, इसका ख्याल रखा जाये। गाली हमारे समाज का दर्पण है। उसी तरह ट्रेफिक जाम भी हमारी कल्चर है, जरा सा कुछ हो जाये और तुरंत ट्रेफिक जाम लगना तय है। हमें अपनी इस कल्चर पर गर्व है। अभी टोल-टैक्स की तो बात हुई ही नहीं है मगर हमारे टोल-टैक्स खूब ही कुख्यात हैं। टोल नाके पर  मार-पीट भी हमारी कल्चर है यह भारत खासकर उत्तर भारत की ‘जानता नहीं मेरा बाप कौन है’ के नेरेटिव का सब ग्रुप है।

      नौयडा का संधि-विच्छेद नो+आइडिया होता है। हमें अपने नौयडा की कल्चर पर गर्व है।

 

Friday, September 6, 2024

व्यंग्य: स्कूटी चोरी और एफ.आई.आर. के 75 दिन

                    

                       नौयडा पुलिस ने एक स्कूटी की चोरी की रिपोर्ट लिखने में 75 दिन लगा दिये। वह भी तब लिखी जब बंदे ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा लिया और दुनियाँ भर के दरवाजे खटका लिए। वह बेचारा डिलिवरी बॉय था स्कूटी किराये पर ली हुई थी। कहीं डिलिवरी को गया और पीछे से कोई उसकी स्कूटी ही उठा ले गया। अब शुरू हुआ उसका दर-दर, दफ़्तर-दफ्तर चक्कर थाने से थाने, पर उसको एफ. आई.आर. लिखवा पाने में सफलता नहीं मिली

 

                   अब बेचारी काम की मारी नौयडा पुलिस भी क्या करे उसकी जान को क्या एक काम है?  कभी वी.आई.पी. ड्यूटी, कभी मर्डर, कभी सुसाइड, कहीं डकैती, कहीं चोरी। कहीं ड्रग्स, कहीं छिनैती तो कहीं नाले में लाश। एक जान सौ झंझट। साला ! ये भी कोई नौकरी है ? अब आप ही बताओ इस तरह के संगीन माहौल में एक स्कूटी की रिपोर्ट लिखने में टाइम तो लगता है। शिकायतकर्ता ने जगजीत सिंह को ठीक से सुना ही नहीं। वो पहले ही कह गये थे प्यार की पहली चिट्ठी लिखने में वक़्त तो लगता है । यहाँ चोरी-डकैती और साइबर क्राइम से फुर्सत मिले तो स्कूटी की ओर ध्यान जाये। 


                           ये ऐसे ही है जैसे कोई अपनी साइकिल का रोना रोये। अरे भैया ! यहाँ देश की सुरक्षा और शहर का लॉ एंड आर्डर  देखें, नित नये वी.आई.पी. रूट देखें या स्कूटी की रिपोर्ट लिखें। न जाने कहाँ से चले आते हैं ये स्कूटी की भी रिपोर्ट लिखाने। कौन है इसका आविष्कारक ? ये क्या खिलौना सा चला दिया है, सो ईज़ी टू स्टील। और मुसीबत हमारी बढ़ा दी। अब इनकी स्कूटी पर भी नज़र रखें। भैया ! यहाँ एस.यू.वी. चोरी हो रहे हैं सोसाइटी में घुस कर लक्जरी कार उठा ले जाते हैं, वो तक तो मिलती नहीं हैं न जाने कब में वो नॉर्थ ईस्ट या नेपाल जा पहुँचती हैं। या यहाँ पड़ोस के शहर में ही ताबड़तोड़ काट दी जाती हैं। अब कोई स्कूटी को तो काटने से रहा। जितने की मेहनत लगेगी, उसकी लागत भी न निकलेगी। पता नहीं ये स्कूटी चलाई ही क्यूँ गयी है ? न ये साइकिल है, न ये स्कूटर है और इसके चोरों को पकड़ते हम फिरें। भाई अगर ये ऊटपटाँग चीज़ आपने ले ही ली है तो इसका रक्षा-कवच भी स्कूटी बनाने वालों को देना चाहिए। और नहीं तो जो खरीद रहा है ये उसकी जिम्मेवारी है- 'सवारी अपने सामान की रक्षा स्वयं करे' । पुलिस को और भी ज़रूरी काम होते हैं। जो स्कूटी से कहीं ज्यादा भारी और कीमती होते हैं। 


                         फिर मैंने सोचा ये बेचारा डिलिवरी बॉय एफ.आई.आर. कराने को पीछे क्यूँ था?  वो गाना है न 'मैं तुम्ही से पूछती हूँ मुझे तुमसे प्यार क्यूँ है....कभी तुम दगा न दोगे ये ऐतबार क्यूँ है'  पता चला कि बेचारे डिलिवरी बॉय ने ये किराये पर ली, मालिक तो पैसे माँगेगा या स्कूटी माँगेगा। आप कहेंगे चोरी हो गई, तो वो कहेगा एफ.आर.आर. लिखाओ क्यों कि बीमा वाले मांगेंगे। बीमा से क्या मिलेगा ? पैसा मिलेगा !....तो वही तो एफ. आई.आर. लिखवाने में थाने की प्रत्याशा रही होगी। आप शायद ठीक से सुने नहीं- सबका साथ-सबका विकास


                                 

Thursday, September 5, 2024

व्यंग्य: ड्रीम बाज़ार मॉल में लूट

 


 

                    (कराची में एक सच्ची घटना के परिपेक्ष्य में)

 

 

          मॉल वाले ग्राहक को लुभाने के लिए तरह तरह के हथकंडे इस्तेमाल करते हैं। दुनियाँ भर की छूट घोषित होती रहती है। कभी फेस्टिवल के नाम पर कभी क्लियरेंस के नाम पर। ग्राहक भी बेचारा कब तक अपनी और अपनी जेब की इज्ज़त बचाए। आखिर रज़िया फंस ही जाती है गुंडन में। एक मॉल ने तो हद कर दी जब घोषित किया कि अपने घर का कूड़ा-कबाड़ा लाओ और उसके वज़न के हिसाब से कूपन लो जो अंदर कैश हो जाएँगे। मुझे बहुत ताज्जुब हुआ जब लोग वाकई अपनी कार की डिक्की में कूड़ा-करकट ले कर पहुंचे हुए थे। एक सज्जन तो अपने घर का टूटा कोमोड और वाश-बेसिन तक उठा लाये थे। बिलकुल त्योहार सा माहौल था, चारों ओर गहमागहमी, अफरातफरी थी।  एक माॅल ने अपने बेसमेंट में कार पार्किंग की फीस 500/- रखी और ये 500/- आपको मॉल में ख़रीदारी में एडजस्ट हो जाता था। कैश बैक भी कुछ कुछ इसी तरह का हथियार है। एक के साथ दो फ्री आदि आदि। कुछ 'एड' आते थे कि मिल बंद कर रहे हैं, कुछ कहने लग पड़े मिल में आग लग गई बस जो बचा है वो आपकी सेवा में ले आए हैं। हमारा उद्देश्य मुनाफा कतई नहीं है। कुछ कहते 'भाईयों में झगड़ा हो गया है।' यह सुनते ही बीवी अपने शौहर से झगड़ पड़ती और पैसे ले, जा पहुँचती 'सेल' वाले की सुलह कराने।

 

           

           जब दुकानदार/मॉल चिल्ला-चिल्ला कर आपको बुलाते हैं कि सेल लगी है सेल। दो हज़ार की जींस दो सौ में ले जाओ। पाँच हज़ार की साड़ी तीन सौ में ले जाओ तो ग्राहकों खासकर ग्राहिकाओं के पैर बरबस ही मॉल की तरफ मुड जाते हैं। वो कौन सा गाना है “जाम जब सामने आ जाये तो मुकरना कैसा...” जब लफ्ज सेल’ अपना अर्थ खो चुका तो बाज़ार में चिंता होना स्वाभाविक थी और नए शब्द, नई टैग लाइन पर 'ब्रेन स्टाॅर्मिंग' होने लग पड़ी। दरअसल दुकानदार भाईयों ने सेल को बारामासी बना दिया। पूरे बारह महीने तीसों दिन सेल ही चलती रहती। अगलों ने सेल के पक्के बोर्ड ही लगा छोड़े।  धीरे-धीरे ही सही मगर ग्राहक समझ गए ऐसी सेल का फंडा। अब अगर दुकानदार की ट्रिक ग्राहक समझने लग जाएँ तो समय आ गया है कि दुकानदार अपनी ट्रिक बदल दे।

 

 

         एक बात तो यह है कि हम लोग दीवाने हो जाते हैं अपना आपा खो देते हैं जब देखते हैं- फ्री है, डिस्काउंट पर है, एक के साथ एक फ्री है। कैश-बैक है, ई.एम.आई. है। फेस्टिवल ऑफर है, स्कीम चल रही है। हम ऐसी चीजों पर दिलो-जेब से फिदा हैं। फिर हम आगा-पीछा नहीं देखते। टूट ही पड़ते हैं।

 

 

          ये बदली हुई ट्रिक ही है जिसका नाम दिया गया ‘लूट’। बस कुछ बेहद अनुपयोगी, पुराने, डिफ़ेक्टिव पीस को लेकर ये व्यूह संरचना की जाती है। नाम दिया जाता है लूट। लूट लो। आपके शहर में आ गयी साल की, शताब्दी की सबसे बड़ी लूट। कोई भी टी-शर्ट मात्र पचास रुपये में। प्लाजो डेढ़ सौ रुपये में इत्यादि इत्यादि घोषणा की जाती है। ऐसे ही एक मॉल ने घोषणा की कि हमारे मॉल में फलां दिन लूट होगी। इसे ग्राहकों ने सच मान लिया और हुआ यूं कि मॉल खुलने के बाद हजारों ग्राहकों की इतनी भीड़ अंदर आ गई कि संभालना मुश्किल हो गया। एक तो लूट, दूसरे ड्रीम बाज़ार। ये क्या सपना सच होने जा रहा था। लोग टूट पड़े और मॉल को देखते देखते लूट ही ले गए। तोड़-फोड़ अलग कर गए। भगदड़ सी मच गई। ड्रीम बाज़ार मॉल सोच रहा होगा कि उनसे गलती कहाँ हुई? नाम ज़रूर ड्रीम बाज़ार मॉल था मगर उन्हें ऐसे रिसपाॅन्स की कतई सपने में भी उम्मीद नहीं थी। उधर ग्राहक जो लूट कर लाये थे वो झूम रहे थे “सच हुए...सच हुए सपने  मेरे...झूम रे मन मेरे”।