Ravi ki duniya

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Sunday, September 29, 2024

व्यंग्य: सिर में ही गोली क्यों मारी?

 


                कचहरी में पूछ रहे हैं आखिर भागते हुए आरोपी को पुलिस ने सिर में ही गोली क्यों मारी। अब इस बात का क्या उत्तर हो सकता है। आजकल ट्रेंड ही कुछ ऐसा चल पड़ा है। जैसे कि जिस गाड़ी में आरोपी को ले जाया जा रहा हो उसका पलट जाना या फिर अपराधी का ट्रांसफर के दौरान भागने का प्रयास करना और मुठभेड़ में आरोपी को गोली लगना और मर जाना। केस क्लोज़।

 

              कोई कचहरी नहीं पूछती थी कि आरोपी की ही गाड़ी क्यों पलटती है। किसी भी मुठभेड़ में पुलिस का बाल-बांका भी नहीं होता और आरोपी को ही गोली लगती है। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे सत्तर के दशक में स्टोव से सिर्फ बहुएँ ही जलतीं थी। सास को कभी कोई आंच नहीं आई। लोग-बाग तब भी ताज्जुब  करते थे: स्टोव को कैसे पता चलता है कि ये बहू है... ये सास।

 

               देखिये अगर पुलिस कहीं और गोली मारती तो पूछा जा सकता था कि आपने दायें पैर की कन्नी उंगली में ही गोली क्यों मारी अथवा आपने बाएँ कंधे पर ही गोली क्यों मारी देखते नहीं हो वहाँ दिल होता है। और दिल में और भी बाशिंदे रहते हैं, मसलन उसके बीवी-बच्चे उसकी गर्ल फ्रेंड आदि आदि। गोया कि आप कहीं भी गोली मारते सवाल आप ही से पूछे जाते। मज़े की बात ये है कि यदि आप गोली चलाते ही नहीं तो भी बच नहीं सकते थे। आप पर डिपार्टमेंटल एक्शन हो सकता है । रिवॉल्वर क्या आपको देखने के लिए दी गई है? आपकी ये रिवॉल्वर क्या खिलोना रिवॉल्वर है ? क्या आपको रिवॉल्वर चलाना नहीं आता ? ये आपराधिक लापरवाही का केस है। आपने जानबूझ कर आरोपी को फरार होने में मदद की है। बेचारों की दोनों तरफ से मुश्किल है।

 

               इस बीच अगर आरोपी कुछ दंद-फंद करके निकल भागने में वाकई कामयाब हो जाता है और उल्टे पुलिस को ही कुछ जान-माल का नुकसान पहुंचाता है तो और भी बड़ी मुश्किल। हैड लाइन ही छाप देते है कि आरोपी जाते-जाते पुलिस की बंदूक भी ले गया। और लो ! मुंह दिखाने लायक भी न रहे।

 

          अंग्रेजी फिल्मों में भी ऐसा ही कुछ दिखाते हैं एक जेल से दूसरी जगह पर ट्रांसफर करने में ही खेला हो जाता है। फिर पूरी कि पूरी फिल्म इसी के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। हमारे यहाँ ऐसा नहीं है। हममें से ज्यादातर बेलेन्स डाइट नहीं लेते हैं हमारी यादगार बहुत शॉर्ट-लिव्ड होती है। हम आज जो हुआ उसे कल भुला देते हैं। परसों कोई और वारदात हो जाती है उसकी चर्चा होने लगती है। जनता की मेमोरी वैसे भी बहुत कमजोर होती है। उसे बार-बार याद दिलाना पड़ता है उसके बाद भी यह जनता पर है कि वो किसी प्रकरण को याद रखना भी चाहती है या नहीं। तभी कहा गया है की इतिहास अपने आप को दोहराता है, क्यों दोहराता है ? क्यों कि हम इतिहास से सीखते नहीं हैं और भुला देते हैं।

 

             पहले एक जोक चला करता था कि ह्यूमन-राइट्स वालों ने सख्त ऑबजेक्शन लिया कि आरोपी/अपराधियों के प्रति सम्मानजनक, स्नेहिल व्यवहार करना चाहिए और कोई सख्ती, मार-पीट या थर्ड डिग्री बिलकुल नहीं होना चाहिए। आखिर उसके भी कुछ मानवाधिकार हैं। थोड़े दिनों बाद उनके ही घर में चोरी हो गई। अब लगी पुलिस पूछने: “क्या आपने चोरी की है ? यदि हाँ ? तो हमें सच सच बता दें ?  हो सकता है आप गलती से उसे अपना घर समझ उसमें घुस गए हों या वहाँ रखी संपत्ति को अपनी संपत्ति समझ उठा ले गए हों। हो सकता है आपकी संपति और वहाँ रखी संपति मिलती जुलती हो। अक्सर इंसान से ऐसा हो जाता है। मानवाधिकार वाले जिनके घर चोरी हुई थी ये सब सुन रहे थे उनका सब्र जवाब दे गया। बोले “अरे ! ये ऐसे नहीं बताएगा। दो डंडे लगायेँ, सब सच सच उगल देगा। मैंने इसे खुद देखा है”। तब पुलिस ने कहा “नहीं हुज़ूर आपके ही कथानुसार हम इनके साथ तनिक भी सख्ती नहीं कर सकते। यह कोर्ट की अवमानना तो होगी ही कानून का उल्लंघन भी होगा। हम कानून के रक्षक है हम कानून नहीं तोड़ सकते। फिर आपने ही कहना है देखो देखो रक्षक ही भक्षक बन गए हैं”।


            

                 जब एक अपराधी की माथे में आँख के  ऊपर गोली लगने से मौत हो गई तो किसी ने टिप्पणी की: “अच्छा हुआ आँख बच गई”। तो सर जी भले गोली सिर में लगी है मगर आँख तो बच गई है। वह है लाचार समाज की आँख जो आपके और पुलिस की तरफ बहुत आशा-प्रत्याशा से सतत देख रही है। उन्हें कब तक निराशा ही हाथ लगती रहेगी। ऐसा नहीं होता तो क्यों आज भी एक आम आदमी थाना-कचहरी से ताउम्र सम्मानजनक दूरी बनाए रखना चाहता है ? 

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