अक्सर सरकारों पर यह आरोप लगता है कि सरकार बहुत फिजूलखर्ची करती है। सरकारी योजनाएँ बहुधा सफ़ेद हाथी की तरह खर्चीली होती हैं। इस मामले में ताजमहल की देखभाल में लगे लोगों ने बचत का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया है। उन्होने ताजमहल प्रांगण में बंदरों के आतंक को समाप्त करने और बंदर-दल को परिसर से दूर भगाने के लिए स्पीकर्स लगा दिये हैं। अक्सर लोग ऐसे में लंगूर की मदद लेते हैं। लंगूर में ऐसी कोई बात है कि उनको देखते ही बंदर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। अब अगर ताजमहल में इस युक्ति को इस्तेमाल में लाते तो एक अन्य प्रॉबलम ये पेश आती है कि न केवल बंदर बल्कि मनुष्य भी लंगूर से अच्छे खासे डरते हैं। आदमी, भले बंदर से विकसित होते-होते मानव बन गया मगर उसके दिल से लंगूर का डर गया नहीं। फिर लंगूर का क्या भरोसा कब आदमी को बंदर समझ उसी से दो-चार हाथ करने लग जाये। बेचारे देखने आए हैं प्रेम की निशानी और साथ लेकर जाएँ चोट,घाव और खरोंचें। बाद में 25 साल बाद भी चोट के निशान देख कर अपने दिन याद करें। ताजमहल से जुड़ी यह कोई सुखद स्मृति तो नहीं न हुई।
इन सब को देखते हुए ताजमहल के प्रशासकों ने
यह तय पाया है कि वे लंगूर की आवाज बोले तो खों खों को रिकॉर्ड कर के रख लेंगे।
जहां बंदरों का झुंड दिखाई दिया वहीं का स्पीकर चला दिया बंदर भागते नज़र आएंगे।
कितना सुंदर, सरल और शाश्वत उपाय है। इसे कहते
हैं रचनात्मकता जो हमारे देश में कूट-कूट कर भरी हुई है, बस अवसर की कमी है।
अभी कुछ दिन पहले ही जब पुलिस के
पास कारतूस खत्म हो गए तो उन्होने डकैतों को मुंह से बंदूक की आवाज निकाल कर ही
गुंडे-बदमाशों को भागने पर मजबूर कर दिया था। देखी है आपने विश्व में कहीं इससे अधिक
क्रिएटिविटि ? अब मुझे पक्का यकीन हो चला है कि
सभ्यता सबसे पहले भारत में ही आई थी। ज़ीरो का आविष्कार भी सर्वप्रथम भारत में ही
हुआ था। वो यूं है कि जहां देखो वहीं सभी मामला ज़ीरो ही तो है।
ज़ीरो देखन मैं गया मैं भी हो गया ज़ीरो
ज़ीरो अपने देश का जित देखूँ तित ज़ीरो
ऐसा हो ही नहीं सकता था कि
ज़ीरो का आविष्कार कोई और कर लेता। हमें इसके लिए ‘चुना’ गया है। अब सिर्फ ये ही भानगढ़ है
कि कहीं बंदरों को कभी ये न पता चल जाये कि कोई लंगूर-वंगूर नहीं हैं बस उनकी आवाज
भर है। फिर कैसे वो आपके स्पीकर्स पर झपटेंगे। मेरा सुझाव है कि लंगूर के बड़े बड़े लंगूर-साइज़
के लाइफ-लाइक कट-आउट बिठा दें उनके पास ही स्पीकर्स रख छोड़ें। दूसरे, यह भी हो सकता है कि जैसे वेलंटाइन डे में टैडी-बेयर
चलते हैं ऐसे ही बड़े-बड़े लंगूर वाले टैडी-लंगूर जगह-जगह मुंडेर पर बिठा दें। बस ये
देखना कहीं बंदरों का कोई बुद्धिमान दल इस टैडी-लंगूर को घेर कर आक्रमण न कर दे और
उसके सब चिथड़े-चिथड़े कर के पूरे ताजमहल में रुई-रुई बिखेर दे। यह बहुत ही क्रिएटिव
आइडिया है। आइडिया देने में तो हमारा कोई मुक़ाबला नहीं है। आखिर हमने ‘जुगाड़’ का आविष्कार किया
ही है। अभी दुनियाँ को ‘टैम’ लगेगा हमारी
प्रतिभा को पह्चानने में, हम अपने वक़्त से
आगे की सोच रखते हैं। इन शॉर्ट, कैसे हमने एक ही
झटके में बंदरों और लंगूर दोनों को धता बता दी। हमारा कोई सानी नहीं। हम छंटे-छंटाए
हैं।
No comments:
Post a Comment