अखबार में ये खबर सुर्खी बन कर छायी
है कि मोमोज का आटा पैरों से गूँथा जाता है। अब इसमें नया क्या है ? या फिर बोलें तो ताज्जुब की क्या बात है ? यह बात
सर्वविदित है कि ब्रेड हो, रस्क
हों, यहाँ तक कि होटलों और ढाबों में
जहां भी बड़ी मात्रा में आटा लगता है वहाँ उसे पैरों से ही गूँथा जाता है।
यह बात छापी तो इस तरह से है, न जाने कितनी बड़ी खोज करी गई है। मुझे लगता है इस
खबर का तअल्लुक इस बात से ज्यादा है कि पाठक लोग मोमोज न खाएं और जब भी वो मोमोज
खाएं उन्हें आटा गूँथते मजदूरों के पाँव याद आयें। मात्र मजदूरों के गंदे पाँव ही
न याद आयें वरन पसीने से लथपथ मजदूरों की छवि भी उनके जहन से गुजरे। तभी ये मोमोज
खाना छोड़ेंगे। दरअसल मोमोज के मार्किट में आ जाने से बाकी फास्ट फूड पर इसकी गाज़
गिरी है। इन दिनों आपने ऐसी खबरें खूब पढ़ी होंगी कि मोमोज में फलां जानवर का मीट
मिला, मोमोज में कीड़े मिले, मोमोज में मीट कच्चा था, मोमोज खा के 50 बीमार। यह सब एंटी-मोमोज लॉबी की
चालें हैं। आजकल नुक्कड़-नुक्कड़ आपको मोमोज की गाड़ी (कार्ट) खड़ी दिख जाएंगी जहां
प्राइवेट में,
मल्टी
नेशनल्स में और कॉल-सेंटर में रात की शिफ्ट में काम करने वाले रात्रि-कर्मी श्रमिक, मेनेजर, इंचार्ज, रीजनल मेनेजर (होते सब ‘साइबर-कुली’ हैं) लोग भुक्खड़ की तरह टूट पड़ते हैं। मोमोज की हाथगाड़ी को
अधिक ऑथेन्टिक बनाने को इसको कोई महिला खासकर नॉर्थ ईस्ट वाली चलाती होतीं हैं।
सभी लड़के-लड़कियां “आंटी ! आंटी !” कर के झुंड लगा लेते हैं। ऐसी गाड़ी में आपको मटन
वाले मोमोज, चिकन वाले मोमोज और वैज़ मोमोज
मिलते हैं। इन सबसे अलग एक श्रेणी ‘स्पेशल मोमोज’ की भी
होती है। इन सब में अंदर की ‘फिलिंग’ की अभी बात नहीं हो रही। अभी तो इस बात का रोना है कि इन्होने हमें समझा क्या
है ? हमें अपने और अपने मजदूरों के
गंदे-संदे पाँव से गूँथे हुए आटे के बने मोमोज खिलाते हैं। तभी न समाज में धरम-करम
का इतना क्षरण हो रहा है।
बताओ तो ! सुन के कैसा तो भी लगता
है। यूं वाइन भी पाँव से मसले गए अंगूरों से बनती है मगर वाइन की बात और है उसके
अंगूरों को लड़कियां अपने नाज़ुक पाँवों से गूँथती हैं। कमसेकम फ़ोटोज़ में तो ऐसे ही
दिखाते हैं। वाइन का टार्गेट ग्रुप और उद्देश्य कुछ और होता है। मैं भी कहूँ लोग
ज्यादा वाइन पीकर इसके-उसके पाँव पर गिरते-लड़खड़ाते क्यूँ फिरते हैं।
पर फिर
भी ! घी-मक्खन के इस देश में जहां दूध की नदियां बहती थीं। जहां “पानी मांगो दूध
देंगे....” कहावतें थीं वहाँ सड़े-गले मोमोज खा-खा कर नई पीढ़ी बड़ी हो रही है और तरह
तरह बीमारियों का शिकार हो रही है। लोगबाग जूस तो अब तभी पीते हैं जब बीमार होते
हैं या जब डॉक्टर कहता है। मोमोज खा-खा कर बढ़ती हुई ये पीढ़ी क्या आश्चर्य है कि
मोमोज की तरह ही लुजलुजी और नाज़ुक हो गई है। ऊपर से सिगरेट-तंबाकू ने रही-बची कसर
पूरी कर दी है। साथ में अपनी एक्स... वाई... ज़ेड का भी ख्याल रखना है। ज़िंदगी ई.एम.आई.
पर चल और पल रही है। ऐसे में दोनों टाइम मोमोज और मोमोज वाली आंटियों का ही भरोसा
है।
मोमोज वाली आंटी ज़िंदाबाद ! जब तक सूरज चाँद रहेगा....' मोमोज अमर रहें
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