(कराची में एक सच्ची घटना
के परिपेक्ष्य में)
मॉल वाले
ग्राहक को लुभाने के लिए तरह तरह के हथकंडे इस्तेमाल करते हैं। दुनियाँ भर की छूट
घोषित होती रहती है। कभी फेस्टिवल के नाम पर कभी क्लियरेंस के नाम पर। ग्राहक भी
बेचारा कब तक अपनी और अपनी जेब की इज्ज़त बचाए। आखिर रज़िया फंस ही जाती है गुंडन
में। एक मॉल ने तो हद कर दी जब घोषित किया कि अपने घर का कूड़ा-कबाड़ा लाओ और उसके
वज़न के हिसाब से कूपन लो जो अंदर कैश हो जाएँगे। मुझे बहुत ताज्जुब हुआ जब लोग
वाकई अपनी कार की डिक्की में कूड़ा-करकट ले कर पहुंचे हुए थे। एक सज्जन तो अपने घर
का टूटा कोमोड और वाश-बेसिन तक उठा लाये थे। बिलकुल त्योहार सा माहौल था, चारों ओर
गहमागहमी, अफरातफरी थी। एक
माॅल ने अपने बेसमेंट में कार पार्किंग की फीस 500/- रखी और ये 500/- आपको मॉल में
ख़रीदारी में एडजस्ट हो जाता था। कैश बैक भी कुछ कुछ इसी तरह का हथियार है। एक के
साथ दो फ्री आदि आदि। कुछ 'एड' आते थे कि मिल बंद कर रहे
हैं, कुछ कहने लग पड़े मिल में आग लग गई बस जो बचा है वो आपकी
सेवा में ले आए हैं। हमारा उद्देश्य मुनाफा कतई नहीं है। कुछ कहते 'भाईयों में झगड़ा
हो गया है।' यह सुनते ही बीवी अपने शौहर से झगड़ पड़ती और पैसे ले, जा पहुँचती 'सेल' वाले की सुलह
कराने।
जब
दुकानदार/मॉल चिल्ला-चिल्ला कर आपको बुलाते हैं कि सेल लगी है सेल। दो हज़ार की
जींस दो सौ में ले जाओ। पाँच हज़ार की साड़ी तीन सौ में ले जाओ तो ग्राहकों खासकर
ग्राहिकाओं के पैर बरबस ही मॉल की तरफ मुड जाते हैं। वो कौन सा गाना है “जाम जब
सामने आ जाये तो मुकरना कैसा...” जब लफ्ज ‘सेल’ अपना अर्थ खो चुका तो बाज़ार में चिंता होना स्वाभाविक
थी और नए शब्द, नई टैग लाइन पर 'ब्रेन स्टाॅर्मिंग' होने लग पड़ी।
दरअसल दुकानदार भाईयों ने सेल को बारामासी बना दिया। पूरे बारह महीने तीसों दिन
सेल ही चलती रहती। अगलों ने सेल के पक्के बोर्ड ही लगा छोड़े। धीरे-धीरे ही सही मगर ग्राहक समझ गए ऐसी सेल का
फंडा। अब अगर दुकानदार की ट्रिक ग्राहक समझने लग जाएँ तो समय आ गया है कि दुकानदार
अपनी ट्रिक बदल दे।
एक बात तो
यह है कि हम लोग दीवाने हो जाते हैं अपना आपा खो देते हैं जब देखते हैं- फ्री है, डिस्काउंट पर है, एक के साथ एक
फ्री है। कैश-बैक है, ई.एम.आई. है। फेस्टिवल ऑफर है, स्कीम चल रही है।
हम ऐसी चीजों पर दिलो-जेब से फिदा हैं। फिर हम आगा-पीछा नहीं देखते। टूट ही पड़ते
हैं।
ये बदली
हुई ट्रिक ही है जिसका नाम दिया गया ‘लूट’। बस कुछ बेहद अनुपयोगी, पुराने, डिफ़ेक्टिव पीस को
लेकर ये व्यूह संरचना की जाती है। नाम दिया जाता है लूट। लूट लो। आपके शहर में आ
गयी साल की, शताब्दी की सबसे बड़ी लूट। कोई भी टी-शर्ट मात्र पचास रुपये
में। प्लाजो डेढ़ सौ रुपये में इत्यादि इत्यादि घोषणा की जाती है। ऐसे ही एक मॉल ने
घोषणा की कि हमारे मॉल में फलां दिन लूट होगी। इसे ग्राहकों ने सच मान लिया और हुआ
यूं कि मॉल खुलने के बाद हजारों ग्राहकों की इतनी भीड़ अंदर आ गई कि संभालना
मुश्किल हो गया। एक तो लूट, दूसरे ड्रीम बाज़ार। ये क्या सपना सच होने जा
रहा था। लोग टूट पड़े और मॉल को देखते देखते लूट ही ले गए। तोड़-फोड़ अलग कर गए। भगदड़
सी मच गई। ड्रीम बाज़ार मॉल सोच रहा होगा कि उनसे गलती कहाँ हुई? नाम ज़रूर ड्रीम
बाज़ार मॉल था मगर उन्हें ऐसे रिसपाॅन्स की कतई सपने में भी उम्मीद नहीं थी। उधर
ग्राहक जो लूट कर लाये थे वो झूम रहे थे “सच हुए...सच हुए सपने मेरे...झूम रे मन
मेरे”।
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