Ravi ki duniya

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Saturday, February 13, 2010

सब्जी मण्डी के नाम

(सब्जी खरीदना, अच्छी सब्जी खरीदना,सस्ती सब्जी खरीदना अगर एक कला है तो पत्नी की बनाई सब्जी की सदैव मुक्तकण्ठ से वाह! वाह! करना भी एक कला है , फ़ैसला आपके हाथ है. )

कहते है सब्जियों के भाव आजकल आकाश छू रहे हैं. यदि आज ये आसमान छू रहे हैं तो कल क्या छूएँगे. हम कहेंगे महँगाई ने आसमान भी फाड़ दिया है. बड़े बूढ़े कहते सुने जाते हैं कि जेब में पैसे ले जाते थे और बोरे में सब्जी लाते थे मगर अब उल्टा हो गया है.बोरे पर याद आया एक बुजुर्ग कह रहे थे कि उनके ज़माने में दस रुपये की गेहूँ कि बोरी आ जाती थी. एक लड़का तपाक से बोला अब भी दस रुपये की ही आती है फर्क बस इतना है खाली आती है.जब सस्ते का ज़माना था तो अधिकतर सब्जियों के रेट 10 किलो के हिसाब से होते थे. फिर घट कर 5 किलो, ढाई किलो और 1 किलो के रह गए और महँगाई बढ़ी तो एक पाव पर आ गए. आजकल फी नग के हिसाब से हैं. मसलन एक नींबू पाँच रुपये,एक टमाटर दस रुपये, एक प्याज़ बीस रुपये.
इन सबसे तंग आ कर मैंने सोचा क्यों न रविवार को सुबह-सुबह सब्जी मण्डी जा कर फ़्रेश सब्जी,सस्ती सब्जी,ज्यादा सब्जी लाई जाए. बस पूरा विश्लेषण करके और घर में जितने थैले-झोले थे ले कर जा पहुँचे मण्डी में. पास-पड़ोस में जिसने देखा तो किसी से कह दिया मॉर्निंग वाक पर जा रहे हैं. जिन्हें पता था सब्जी मण्डी जा रहे हैं उन्हें हम एक बात पर यकीन दिलाने पर तुले थे कि हम सस्ते के चक्कर में नहीं बल्कि फ़्रेश सब्जी की खोज में जा रहे हैं. असलियत यह थी कि हम सस्ते के चक्कर में ही जा रहे थे. फ़्रेश-व्रेश तो बहाना था.सुबह सुबह मण्डी का सीन बाहर से बड़ा अच्छा लग रहा था.एक उपलब्धि का भाव मन में था. वैसा ही जैसा एक तीर्थयात्री को इलाहाबाद में त्रिवेणी पर होता होगा. पहले यह तय किया कि एक सर्वे कर लिया जाए. जिससे थोड़ा बहुत आइडिया हो जाए.
सब्ज़ीमंडी हमेशा गंदे और तंग स्थान पर होती है या फिर जहाँ सब्जी मण्डी होती है वह स्थान गंदा और घिचपिच हो ही जाता है. जगह-जगह ट्रक खड़े थे. आपको पता है ट्रक वाले जैसी भाषा बोलते हैं. आप समझ ही नहीं सकते. यदि आप ट्रक वाले नहीं हैं. क्या छाबड़ी वाले,क्या दुकानदार सब अपनी भाषा में बात कर रहे थे तथा एकाग्रचित होकर काम में लगे थे. आपकी ओर देखने तक कि किसी को फुर्सत नहीं थी. मैंने एक काम करने वाले से पूछा जो बैंगन के ढेर के पास बैठा था. बैंगन किस भाव दिये है ? तो उसने मुझे सिर से पाँव तक ऐसे घूरा जैसे आश्वस्त हो जाना चाहता हो कि मैं बैंगन खरीदने कि हेसियत रखता हूँ. वह बोला "कितने ट्रक चाहिये ?" मैंने कहा नहीं नहीं ट्रक नहीं . वह बोला कितने टेम्पो चाहिये ? मैंने कहा अरे भाई मुझे बेचने थोड़े ही हैं. घर के लिए चाहिये . उसने मेरे से बात करने से साफ़ मना कर दिया और कहा कि 50-100 किलो से नीचे के ग्राहकों से वह डील ही नहीं करता.
मैं आगे बढ़ गया. यह सोचता कि बैंगन कौन ऐसी नायाब सब्जी है. आगे एक पहाड़ जैसे ढेर पर आदमी बैठे मोबाइल पर बातें कर रहे थे. थोड़ा नज़दीक जाने पर पता चला वे काशीफलों के ढेर पर बैठे थे और काशीफलों की खेप पड़ोसी राज्य में तस्करी करने की बात कोड वर्ड में कर रहे थे. मैंने वहाँ से खिसक जाने में ही बुद्धिमानी समझी. एक जगह लौकी मिल रही थी. वे थोड़ी टूटी-फूटी सी थी बहरहाल वह राज़ी हो गया कि वह मुझे, केवल मुझे, 15 किलो भी दे देगा नहीं तो 50 किलो से कम में उसे 'पड़ता' नहीं खाता. एक जगह से ऐसे ही मैंने तोरई भी दस किलो खरीद ली. भिंडी,प्याज़,और टमाटर खरीदने में मुझे कोई खास फायदा नज़र नहीं आया.मुझे बचपन की याद है. सब्ज़ीवाली हरा धनिया,हरी मिर्च आपको बिना माँगे मुफ्त ही दे दिया करती थी. उसकी सब्जी एकदम ताज़ी होती थी. वह टेर-टेर कर आज के भाव की घोषणा करती थी.तब के दुकानदार अपनी सब्जियों और फलों की तुलना किसी अन्य वस्तु से ज़रूर करते थे. जैसे सिंघाड़े और अमरूद को कहा जाता था 'मलाई' हो रहे हैं फूलगोभी 'मक्खन' हो रही होती थी. फालसे 'गुलाब' हो रहे होते थे. अंगूर,जामुन,'चमन के मोती' कहलाते तो गँड़ेरी 'शर्बत' हो जाया करती थी.
आजकल सब्जियों के भाव पूछना बैड मेनर्स में आता है.लेटेस्ट तरीका यह है कि आप एक आध सब्जी लें, सौ का नोट दें, कुछ चेंज वापस मिल जाये तो ठीक नहीं तो चलते बनें. भाव-ताव करके अपनी हँसी न उड़वाईये. कहीं ऐसा न हो सब्जी वाले आपको ब्लैक लिस्ट कर दें.
मैं ऐसी ही दो चार सब्जीयाँ ले कर घर पहुँचा तो पुलकित था कि श्रीमती जी बहुत खुश होंगी और इस बार तो शायद मेरी बुद्धि का लोहा मान जाएँगी.उन्होने सब्जी देख कर अपना सिर पीट लिया और ऐसे देखा जैसे मुझे कच्चा खा जाएँगी.उसका कहना था कि मुझे सब्जी लेना भी नहीं आता है. मैं बेमौसम की सब्जी उठा लाया हूँ. कीड़े लगे कानी सब्जी देकर मुझे अनपढ़ दुकानदारों ने भी मूर्ख बना दिया है.भाव के मामले में भी उसने निर्णय दिया कि ज्यादातर सब्जियाँ कॉलोनी में भी इसी दाम पर उपलब्ध हैं.
मैं सोच रहा था कि मेरे से गलती कहाँ हुई. पहला नियम या सच जो उस दिन उजागर हुआ आप कभी अच्छी खरीदारी कर ही नहीं सकते और कितनी ही अच्छी खरीदारी कर लें पत्नी से बेहतर नहीं कर सकते. क्योंकि वे दुकानदार को भी ठग लेने का आत्मविश्वास रखती हैं. दूसरे, जिसका काम उसी को साजे.
मुझे उन पतियों से ईर्ष्या भी है और दया भी आती है जिनकी ड्यूटी लिस्ट में सब्जी खरीदना शामिल है. क्या आप दूकानदार की  नज़र बचा कर लौकी में नाखून गड़ा कर देख सकते हैं. क्या आपको देसी आलू और पहाड़ी आलू का अन्तर मालूम है. क्या आप आलुओं के ढेर में से गोल-गोल, बड़े-बड़े फीके आलू छांट सकते हैं. क्या आप दुकानदार के मना करते करते भी सख्त टमाटर पिचका कर देख सकते हैं तथा भिंडी तोड़ कर उसके कच्ची या पक्की होने का पता लगा सकते हैं.क्या आप केले के गुच्छे में से दो गले हुए केले निकलवा कर खरीद सकते हैं. क्या आप सही माप का आम, बैंगन या टिंडा दुकानदार को दे सकते हैं ताकि तोल पूरी हो जाए. क्या आप सब्ज़ीवाले को बिना नाराज़ किए रसीले नींबू छांट सकते हैं.क्या आप दुकानदार को कल का,पिछले हफ्ते का या काल्पनिक भाव बता कर भाव कम करने को मजबूर कर सकते हैं. यदि इन सबका उत्तर हाँ में  है तो जिस प्रकार मेनेजमेंट ट्रेनी होते हैं उस तरह वेजीटेबल ट्रेनी के लिए उपयुक्त हैं. अन्यथा बेहतर यह होगा कि बीवी के सुंदर हाथों से बनी हर तरकारी को आनंदित होकर खायें " अरे ऐसी भिंडी तो मैंने ज़िंदगी में नहीं खाई " "अरे ये कटहल तो कटहल जैसी लग ही नहीं रही बिल्कुल बटर चिकन मालूम देती है " "तुम न बताती तो मुझे पता ही नहीं चलता कि ये गट्टे की सब्जी है मैं तो पनीर समझ रहा था " ये घीया-चने की दाल तो फाइव स्टार होटल को भी मात दे रही है, सच बताओ ! मशरूम तो नहीं है ? "
ऐसे ही कुछ मंत्र याद कर लें और वक्त ज़रूरत जाप करते रहने से आप सब्जीमंडी से सम्मानजनक दूरी बनाये रखने में सफल हो सकेंगे. ये बात मैं पूरे तजुर्बे के साथ कह सकता हूँ.



( व्यंग्य संग्रह 'तिहाड़ क्लब' 1999 से )





2 comments:

  1. याद कर लिया आपका पाठ बहुत बडिया है सब्जी मन्डी धन्यवाद्

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  2. बहुत बढ़िया.....आपके अनुभव से दूसरों को लाभ मिले....वैसे ये व्यंग रचना है पर कहीं ना कहीं सच भी है...हा हा हा

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