मेरे भारत महान में अनेक ऐसी खूबियाँ हैं जो
इसे महान बनाती हैं। एक कहावत है कि कोई भी देश, पहाड़,
नदियों और पेड़ों से महान नहीं बनता वह महान बनता है अपने नागरिकों
की मेहनत से, उनकी ईमानदारी, अनुशासन,
उनकी कुशाग्र बुद्धि , शिक्षा, वीरता और साहस से। अब कुशाग्र
बुद्धि को ही ले लें। एक सूबे के महान ज़िले में जब दो वर्षीय बालक की आँख के ऊपर
चोट लग गई तो बालक के परिजन बालक को भागे-भागे निकटतम प्राइवेट क्लीनिक में ले गए।
वहाँ जो डॉक्टर, वार्ड बॉय और कंपाउंडर थे उन्होने परिजन को
नजदीक की मार्किट से पाँच रुपये की फेविक्विक की ट्यूब लाने को कहा। परिजन परेशान
थे उन्होने यह पूछा भी नहीं कि फेविक्विक
कायकू? वो ले आए।
अब ‘डॉक्टर’ साब ने ट्यूब को लिया और जहां
चोट लगी थी उसमें फेविक्विक भर दी। इस तरह उन्होने तुरत-फुरत में इलाज़ कर दिया। अब
इमर्जेंसी में जो हाथ लगा, कर दिया। मैंने सुना था पानी
रिसने के विज्ञापन में ‘डॉ फिक्स इट’ नाम से एक सीलिंग डिब्बा आता है। डॉ साब ने
फेविक्विक से ही घाव फिक्स कर दिया। हमें शायद ऐसे ही क्रांतिकारी डॉक्टरों की
ज़रूरत है। बस पाँच रुपये की फेविक्विक और इलाज़ पक्का, मजबूत
और कभी न टूटने वाला। इस केस में जब पेरेंट्स ने आश्चर्य व्यक्त किया तो डॉक्टर ने
उन्हें बताया यह लेटेस्ट तकनीक है। वह सालों से इसी से इलाज कर रहा है। यहाँ तक कि
जब उसके अपने बच्चे के चोट लगी तो फेविक्विक ही काम आया। पेरेंट्स तो पेरेंट्स
होते हैं उन्होने फिर कहा “डॉ साब कमसेकम टिटेनस का इंजेक्शन तो लगा दो” डॉ. ने यह
कह कर उनको टाल दिया कि अब इसकी कोई ज़रूरत नहीं। फेविक्विक है ना।
इधर बालक था कि चुप ही नहीं हो रहा था। पूरी
रात वह दर्द से तड़पता रहा और सुबह सुबह बच्चे के पिता उसे दूसरे डॉ. के पास ले कर
गए। उन्होने पूरा किस्सा-ए-फेविक्विक बयान
किया। डॉ. हैरान - परेशान। उसने तुरंत बहुत सावधानी से फेविक्विक को बड़े जतन से
साफ किया। जो चोट लगी थी उसमें पूरे चार टांके लगे। दवा लगा कर मरहम-पट्टी की
गई। डॉक्टर ने पेरेंट्स को बताया कि ये तो
अच्छा हुआ कि फेविक्विक आँख मेॅ नहीं गई। अगर फेविक्विक आँख में चली जाती तो आँखों
की रोशनी भी जा सकती थी। वह डॉक्टर इतना कुपित हुआ कि वह पेरेंट्स के पास उस क्लीनिक
में गया महान डॉक्टर फेविक्विक से मिलने। डॉक्टर फेविक्विक, क्विकली ये जा, वो जा, फरार।
जब खूब हो-हल्ला मचा तो जो हमारे देश में होता है वही हुआ। आखिरी खबर मिलने तक एक
जांच समिति बैठा दी गयी है। आगे जो हो। मुझे एक किस्सा याद हो आया जब बच्चे के पेट
में दर्द हुआ तो आलसी-अनपढ़ पिता ने बेटे को विक्स चटा दी थी। यह सोच कर कि अगर यह
सिर दर्द ठीक कर देती है तो पेट का दर्द क्यूँ नहीं? कहते
हैं आजकल लोग ज्यादा न खाएं और अपना वज़न न बढ़ाएँ अतः कहते हैं कि वे अपने पेट में
अंदर स्टेप्लर से स्टेपलर पिन लगवा लेते हैं। इससे पेट का साइज़ कम हो जाता है। अतः
थोड़े खाने से ही काम चल जाता है। हम छोटे थे तो एक कहावत थी कि चोट लगी है और कुछ
दवा सुलभ नहीं है तो जहां कटा-फटा है वहाँ आप पेशाब कर लें (लगा लें) छोटे-मोटे कट
पर मैंने अपने दादा जी को बीड़ी के बंडल का पतला कागज चिपकाते देखा है। मैंने एक
ऐलो-वेरा डाॅक्टर के बारे में सुना था। उसने अपने बाग़ में ऐलो-वेरा का पूरा बगीचा
लगा रखा था। अब जो आये उसे किसी को ऐलो-वेरा खाने को, किसी
को पीने को, किसी को लगाने को दी जाती। बोले तो ऐलो-वेरा
रामबाण, ऑल-इन-वन। उनकी प्रैक्टिस अच्छी चलती थी। फेविक्विक
वाले चाहें तो अब वे इस लाइन पर अपने विज्ञापन की एक नवीनतम सीरीज चला सकते हैं।
आखिर पंजाब के गांवों में वाशिंग मशीन को लस्सी बनाने के काम में लिया ही जाता है।
'एप्रोपिरिएट प्राद्योगिकी' इसी को
कहते हैं।
बोले तो जुगाड़ ज़िन्दाबाद !!
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