तुम्हारे भरोसे पर जिये हम
मालूम न था
तुम मुंह मोड़ लोगे
यारों की तरह
इस उम्मीद में हर बार
तेरी महफ़िल में चले आये
कभी शायद तू भी मेहरबाँ हो जाए
गैरों की तरह
तुमसे अच्छी है
मेरी तन्हाई
आ के जाती तो नहीं
बहारों की तरह
मेरे दिल की शख्सियत नायाब है
उम्मीद बांधे रहा
मालूम था टूट जायेंगी
ख़्वाबों की तरह
कैसे कह दूं बेहतर है
ऐ मौत तूने भी तो
कम नहीं तड़पाया
ज़िन्दगी की तरह .
......
रिश्ते तो तह करके रख दिए हैं हमने
कल के अखबार की तरह
कुछ चीख चीख कर कुछ चुपचाप
हर एक अपना ज़मीर बेच रहा है
शाम के अखबार की तरह
टूटी हुई असलियत को जोड़ने
ऐ उम्मीद तू क्यों चली आती है हर
सुबह के अखबार की तरह
इस अध पढ़े इतिहास का बोझ कब तक उठाऊं मैं
ऐ मौत तू ले जा मुझे
मोहल्ले के अखबार की तरह .
both the first and second poems sens that the poet write them by heart.
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