देश आजाद होने के बाद से तमाम राजभाष विभागों, हिन्दी प्रचार समितियों की एक मात्र उपलब्धि यह रही है कि हम हिन्दी को सरल से कठिनतर, ग्राहय से गुहय और सरस से सपाट बनाने में सफल रहें हैं। इसके ऐतिहासिक कारण है। कहावत है कि शादी-ब्याह के मंत्र क्लिष्ट संस्कृत में इसलिये होते हैं की पंडितजी का धंधा चलता रहे। उसी तरह कानून की भाषा में इतने “इफ्स एंड बटस” इसलिए होते हैं कि जिस दिन आम आदमी कानून समझने लगेगा उसी दिन से वकीलों का क्या होगा? बस इसी तर्ज पर हिन्दी को ऐसा बना दिया गया है की बिना सलाहकार, निदेशक, संयुक्त निदेशक यह भाषा “पनप” ही नहीं सकती है। इनके बजट देखें। इनके कार्यालय के लवाजमा देखते ही बनता है। फिर मासिक, त्रैमासिक और छमाही प्रगति बैठकों के तो “मैनु” ही इतने रोचक होते हैं कि “अजेंडा” पर ध्यान ही नहीं जाता। इस मामले में बेंकों की राजभाषा बैठकें अच्छे आकर्षण का केंद्र होती हैं। इन सभाओं में शादी ब्याह की तरह पिछली सभा से बेहतर परोसने की प्रतियोगिता भी होती है। अधिकारियों के पास कुछ रटे-रटाये सूत्र हैं। रबर सील , कार्यालय आदेश और नाम पट्ट द्विभाषी होने चाहिए। साइक्लोस्टाइल करने वाले को पकड़ते हैं कि ‘बच्चे बिना हिन्दी आदेश छापकर दिखा” यह भी हिन्दी वालों की ‘प्रबंध में सहभागिता का नमूना है। जगह-जगह धूल-धूसरित व मकड़ी के जालों से अटे पोस्टर लगा दिए गए हैं। “हिन्दी में काम करें”, हिन्दी में काम करना आसान है।“ अरे मेरे भैया जब दफ़्तर में कोई काम ही नहीं करेगा तो आपकी नीति का उल्लंघन हुआ ही कहाँ? बिल्कुल उसी तरह जैसे जब कार्यालय में ‘शून्यकाल’ लगाया गया (बाहरी आंतरिक व्यक्तियों को डिस्टर्ब न करें) तो यह टिप्पणी अक्सर सुनने में आती थी दफ़्तरों में कोई बैठता ही नहीं है सुनसान पड़े रहते हैं वैसे ही शून्य काल लगा रहता है।
हिन्दी की यह देश सेवा क्या कम है की इतने निठ्लों की गाड़ी अपने बलबूते पर चला रही है। कार्यालय के समय में हिन्दी स्टाफ का हिन्दी की पत्र-पत्रिका पढ़ना भी ड्यूटी लिस्ट में आता है। हिन्दी एकक की महिलाएँ स्वेटर बुनते समय भी हिन्दी में ही वार्तालाप करती हैं। यह हिन्दी को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाने का नायाब तरीका है। मेरे परिचित राजभाषा अधिकारी तो हिन्दी के निरीक्षण वास्ते एयरकंडीशन कोच में स्थान-स्थान का भ्रमण करते हैं और हजारों रूपये महीने का तो यात्रा भत्ता ही ले लेते हैं। ऐसी है यह गरीब परवर हिन्दी।
आँकड़ों और प्रतिशत की गोद में खेलती है ये मेरी हिन्दी। इतने तार हिन्दी में दिये गए। इतने प्रतिशत कार्यालय आदेश हिन्दी में निकाले गए। फिर बहस शुरू होती है पिछली बार से किस विभाग ने कितने दशमलव अधिक या कम हिन्दी में कम किया है। जो लोग हिन्दी जानते ही नहीं या जानकर भी प्रयोग में लाना नहीं चाहते उनके लिए सरल और सुगम तरीके ईजाद किए गए हैं यथा अंग्रेजी के पत्र अथवा आदेश पर सिर्फ हस्ताक्षर भर अगर हिन्दी में कर दें तो पत्र हिन्दी का मान लिया जाता है। परीक्षा में दस प्रश्न पत्रों में से दो प्रश्न पत्रों के उत्तर हिन्दी में लिख दें तो विशेष पुरस्कार के लिए पात्र हो जाते हैं। फाइलों पर अधिकाधिक हिन्दी में टिप्पणी लिखने से हजारों रूपय के पुरस्कार आपके हैं। वह दिन दूर नहीं जब हिन्दी को बढ़ाने के लिये पुरस्कार स्वरूप दो व्यक्तियों को लंदन या पेरिस के वापसी टिकट दिये जायेंगे तथा चार रात का होटल में स्टे फ्री।
पीछे सुनने में आया था कि हमारे माननीय सांसद तंग आ गए थे कि ये ज़ाहिल भारतीय तो अपनी भाषा से प्रेम करते नहीं, तो क्यों न विदेश में जाकर देखा जाऐ कि क्यों जर्मनी का नागरिक जर्मन बोलता है, फ्रांस का नागरिक फ्रेंच बोलता है और अंग्रेज अंग्रेजी बोलता है। आनन-फानन में कार्यक्रम तय हो गया .चलो बाहर गाँव जाकर दूतावासों में हिन्दी प्रगति का जायजा लिया जाय । तुलसीदास जी ने साँप पकड़ कर छत पर पहुँचने का उपक्रम किया था उसी तरह सांसदों की समिति ने “हिन्दी”, को पकड़ कर विदेश पहुँचने की ठान ली। बुरा हो इन विपक्षिओं का न खेलते हैं न खेलने देते हैं। खबर ले उड़े और खूब उछाला। टूर केंसल। हिन्दी प्रगति करे तो कैसे।
हिन्दी के अनेक विद्वानों की कर्मभूमि तो विदेश भूमि ही रही है। वे जानते हैं कि भारत में क्या रखा है। सिवाय अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के। विदेश में भी हिन्दी इन्हे वैतरणी पार करा रही है। हाउ स्वीट।
“हिन्दी अंग्रेजी दोऊ खड़े काके लागूँ पांव।
बलिहारी हिन्दी आप के विदेश दिया घुमाय।”
देश में राजभाषा विभाग को ‘प्रतीक्षा कक्ष’ की तरह प्रयोग में लाया जाता है! यहाँ अफसर बैठकर बेहतर पोस्टिंग का इंतजार करते हैं। इस विभाग में अक्सर रिक्तिया चलती रहती हैं। सजा पाये या “थके” हुए कर्मचारी यहाँ को धकेल दिये जाते हैं। रिक्ति रखना इन्हें “सूट” भी करता है। अधिक दबाव आए तो कहने को रहता है “क्या करें दों पद रिक्त हैं हिन्दी आगे बढ़े तो बढे कैसे? बहुत अधिक उन्नतिशील राजभाषा विभागों में कवि सम्मेलन कराने, स्मारिका निकालने व हिन्दी लेखकों की जयंती मनाने का रिवाज भी पाया जाता है।
समझ नहीं आता हिंदी के सिपाहियों ने किस जगह गलत “टर्न” ले लिया कि मंजिल से दूर ही होते जा रहे हैं। “हिन्दी सप्ताह” मनाने वाले मेरे देश में सन 47 से लेकर आज ६० साल बाद भी कार्यालय और परीक्षाएं बिन अंग्रेजी सूने क्यों हैं? सभी कान्वेंट पढ़ी वधू ही चाहते हैं। कन्या पाठशाला इज आउट। मेरे दफ़्तर में एक के दो बच्चे अंग्रेजी स्कूल में एड्मिशन न पा सकें हैं मजबूरन हिन्दी स्कूल में “डाले” गए हैं। यह बात पूरे दफ़्तर को पता है व लोग उसे कभी हेय दृष्टि से और कभी सहानुभूति से देखते हैं। वह उन सब की जमात में रह कर भी उनसे अलग-थलग पड़ गया है।
हिन्दी न आने का एक बहुत बड़ा कारण हमारी ढुलमुल नीति भी रही है। यह लगभग हर क्षेत्र में दृष्टिगोचर होती है। हमने उसे न्यायोचित ठहराते ठहराते आत्मसात ही कर लिया है। हमारा संविधान कठोर भी है, लचीला भी। बच्चे दों हों या तीन हों। लड़की हुई है चलो कोई बात नहीं, लक्ष्मी आई है। अब वंश चलाने को लड़का और कर लो। राज-काज द्विभाषी हो। हिन्दी आनी चाहिए पर अंग्रेजी भी बनी रहने दी जाए। नशाबंदी रहे ताकि गांधीजी का आत्मा को कोफ़्त न हो पर नकली शराब के कुटीर उधोग भी चलते रहें। समाजवाद आए किन्तु निजी क्षेत्र का उदारीकरण भी हो। हम धर्म निरपेक्ष रहें और मंदिर-मस्जिद के मुद्दे भी सुलगते रहें।
तमाम राजभाषा विभाग तथा प्रचार समितियाँ एक तरफ और बम्बई की एक हिट हिन्दी फिल्म एक तरफ। हिंदी बढ़ाई है हमारे अभिनेता अभिनेत्री ने। हिन्दी बढ़ाई है हमारे फिल्म निर्माता, गायकों, संगीतकारों ने वह भी बिन खड़ग बिन ढाल। मैं नहीं समझता कि विश्व में अन्य किसी भी देश में सिर्फ इस बात के लिए इनाम दिया जाता हो कि इन्होने अपनी भाषा में इतने हजार शब्द लिखे। हिन्दी में पुस्तक लिखकर उसे “लगवाना” एक “पुशिंग” व्यवसाय हो गया है। उतना ही तकनीकी और संभावनाओं से परिपूर्ण जितना “कंपनी” लीज पर अफसर का अपना मकान कंपनी को ही लीज पर “उठवाना”।
सोचता हूँ कि मैं भी हिन्दी बढ़ाने और उसके प्रेमियों की संख्या बढ़वाने कहीं विदेश में ही सैटल हो जाऊँ। आप भले कहते रहना “ब्रेन ड्रेन” हो रहा है। वहाँ हिन्दी की पताका फहराने को हिन्दी सम्मेलन करवाने की भी मेरी योजना है। यहाँ से चार संपादको को विशिष्ट अतिथि के तौर पर बुलाने की रूपरेखा भी फाईनल कर ली है। सोचिए फिर ग्रीनलैंड से भेजी मेरी कविता कौन सी हिन्दी पत्रिका छापने से मना करेगी?
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